🌙 दो यतीमों की कहानी — इंसाफ करने वाला अल्लाह 

दिन की धूप आसमान पर चमक रही थी, मगर मेमूना के चेहरे पर थकान के साए गहरे थे।
वह जंगल से लकड़ियाँ काटकर लौट रही थी — सिर पर भारी गठरी, कंधों पर बोझ, और दिल में सन्नाटा।
घर पहुंचते ही देवरानी की चीखदार आवाज़ ने माहौल चीर दिया —
“इतनी कम लकड़ियाँ! क्या वहीं सो गई थी?”

मेमूना ने सिर झुकाकर कहा, “भाभी, इससे ज़्यादा मैं उठा नहीं पाई।”
देवरानी की आंखों में नफरत थी, “खा तो खूब लेती है ना! अब भाग यहाँ से!”
मेमूना के कदम थम गए, आँखों में आँसू भर आए। मगर वह चुप रही।
वो अपने ग़म खुद में समेट लेती थी। अपने बच्चों के सामने कभी आँसू नहीं दिखाती थी।

कमरे में दाख़िल हुई तो देखा — अहमद और सारा दीवार से टेक लगाकर बैठे थे,
चेहरों पर डर और आँखों में मासूमियत।
माँ को देखते ही दोनों उसकी गोद में जा गिरे।
मेमूना ने उन्हें सीने से लगाया, आँसू गिरने लगे,
पर चेहरे पर मुस्कान बनाए रखी —
अपने बच्चों की मुस्कुराहट के लिए वो हर दर्द छिपा लेती थी।

जब उसका शौहर इस दुनिया से चला गया, तभी से ज़ुल्म शुरू हुआ था।
देवरानी उसे नौकरानी से भी बुरा समझती थी।
दिनभर लकड़ी काटना, खाना पकाना, बर्तन मांजना, बच्चों की देखभाल —
सब कुछ वही करती। मगर फिर भी ताने खत्म नहीं होते।

एक सर्द सुबह थी। बारिश हो रही थी।
अहमद और सारा की आँख खुली तो उन्होंने माँ को चुप देखा।
“अम्मी, उठ जाइए, सुबह हो गई!” बच्चे बोले।
मगर मेमूना की सांसें थम चुकी थीं।
दोनों उसे झंझोड़ते रहे, रोते रहे — पर अब कुछ नहीं बदला।

माँ, जो हर दर्द की दीवार थी, आज चली गई थी।
अब उनके सिर से साया हट चुका था।

चाची ने अब बेरहमी की हद पार कर दी।
छह साल की सारा से झाड़ू-पोंछा करवाती,
और अहमद से पानी भरवाती, लकड़ी उठवाती।
दोनों बच्चे सुबह से रात तक काम करते।
उनके लिए खाना भी बमुश्किल मिलता।

हर दिन जब चाची का बेटा स्कूल यूनिफॉर्म में निकलता,
तो सारा और अहमद चुपचाप देखते —
“काश हम भी स्कूल जा सकते…”
मगर उनके हिस्से में किताबें नहीं, आँसू थे।

एक दिन सारा चाय बना रही थी। भूखी थी, चक्कर आ रहे थे।
चाय कप में भरकर चाची को देने गई,
मगर कदम लड़खड़ा गए — कप उलट गया, चाय चाची के हाथ पर गिर पड़ी।
चाची ने गुस्से में थप्पड़ मारा — इतना ज़ोर से कि सारा जमीन पर गिर पड़ी।

अहमद भागा, “चाची! उसे मत मारिए, मुझे मार लीजिए!”
मगर चाची ने दोनों को खींचकर बाहर फेंक दिया —
“दफा हो जाओ मेरे घर से! दोबारा दिखे तो हड्डियाँ तोड़ दूँगी!”

दोनों बच्चे ठंडी मिट्टी पर खड़े रह गए —
डरे हुए, अकेले, और बेसहारा।

धीरे-धीरे उनके कदम मां की कब्र की तरफ बढ़े।
वो दोनों घुटनों के बल बैठे, रोने लगे।
“अम्मा… हमें घर से निकाल दिया… हमें भूख लगी है…”
उनकी सिसकियाँ हवा में गूंजती रहीं।
मिट्टी की ठंडक और आसमान की चुप्पी — सब कुछ उस दर्द का गवाह था।

अहमद ने बहन का हाथ थामा, और बोला,
“चलो, सारा। अब हम खुद कुछ करेंगे। लकड़ियाँ काटेंगे, बेचेंगे, खाना कमाएँगे।”

दोनों जंगल की ओर चल पड़े।
घना अंधेरा, सरसराते पत्ते, और दो छोटे साये।
कुछ देर बाद उन्हें एक झोपड़ी दिखी।
अहमद ने दरवाज़ा खटखटाया।
एक बुज़ुर्ग बाहर आए — आँखों में ममता और चेहरे पर थकान।

अहमद ने रोते-रोते सब बताया —
माँ की मौत, चाची का ज़ुल्म, और भूख की हालत।
बुज़ुर्ग चुपचाप सुनते रहे, फिर बोले —
“अंदर आओ बच्चों। ये झोपड़ी अब तुम्हारा घर है।”

उन्होंने अपने हाथों से फल दिए —
“खाओ बेटा, अब डर मत।”
सालों बाद दोनों बच्चों ने पहली बार सुकून महसूस किया।

दिन बीतते गए। अहमद सुबह लकड़ियाँ काटता,
सारा बुज़ुर्ग की सेवा करती, खाना बनाती, घर साफ करती।
उनकी मेहनत और सच्चाई देखकर बुज़ुर्ग बहुत खुश हुए।
एक दिन उन्होंने अहमद को बुलाया —
“बेटा, अब एक अमानत तुम्हारे हवाले है।”

उन्होंने कहा,
“मेरे बेटों ने मुझे घर से निकाल दिया।
पर मैंने एक खजाना अपनी ज़मीन में दफन किया था।
उस आम के पेड़ के नीचे एक संदूक है।
वो निकालकर मेरे पास लाओ, मगर मेरे बेटों को पता ना चले।”

अहमद बोला, “बाबा जी, जान देकर भी अमानत वापस लाऊँगा।”

रात को अहमद और सारा ने खुदाई शुरू की।
डर था कि कोई देख न ले।
मगर हिम्मत से उन्होंने लकड़ी का संदूक बाहर निकाला।
सुबह होते ही वो बुज़ुर्ग के पास पहुँचे और संदूक सामने रखा।

बुज़ुर्ग की आँखों में चमक आ गई।
उन्होंने कहा,
“बात संदूक की नहीं, तुम्हारी ईमानदारी की थी।
मैं देखना चाहता था कि दौलत तुम्हें बदलती है या नहीं।
तुमने मेरी उम्मीद पूरी की।”

संदूक खोला —
अंदर सोना, हीरे, मोती, सिक्के चमक रहे थे।
बुज़ुर्ग ने कहा,
“ये अब तुम्हारा है बेटा। तुमने इंसाफ और अमानत निभाई है।”

अहमद बोला,
“बाबा जी, इस खजाने से मैं एक लंगरखाना बनाऊँगा —
जहाँ हर गरीब को खाना मिले, कपड़े मिलें, और सुकून भी।”

बुज़ुर्ग की आँखों से आँसू बह निकले —
“यही असली दौलत है, बेटा।”

वक्त गुज़रा, और वही झोपड़ी अब एक बड़ा महल बन गई।
मगर उस महल के दरवाज़े हमेशा खुले रहते —
हर भूखा वहाँ खाना खाता, हर गरीब कपड़े पाता।
लोग दुआएँ देते — “अल्लाह ऐसे बच्चों को सलामत रखे।”

अहमद और सारा की पहचान अब पूरे इलाके में थी —
“दया और इंसाफ के मालिक।”

दूसरी तरफ चाची का हाल बदल चुका था।
जिस बेटे के लिए उसने सब कुछ जोड़ा था,
वो बड़ा होकर शराब और जुए में सब उड़ा बैठा।
घर बिक गया, ज़मीनें खत्म हो गईं।
अब वही चाची भूखी, बेघर, और बेसहारा थी।

वो जंगल की ओर चली गई,
लाठी के सहारे, आँसुओं में डूबी।
लोगों ने कहा — “ये उसी औरत का अंजाम है जिसने यतीमों पर ज़ुल्म किया था।”

भूख से तड़पती वो दरख़्त के नीचे बैठी थी।
तभी कुछ लोग गुज़रे।
उन्होंने कहा, “अहमद के महल में जाओ — वहाँ सबको खाना मिलता है।”
चाची की आँखों में उम्मीद की किरण जगी।
वो धीरे-धीरे वहाँ पहुँची।

महल के दरवाज़े खुले थे।
अंदर सैकड़ों गरीब खाना खा रहे थे।
अहमद और सारा खुद अपने हाथों से खाना बाँट रहे थे।
चाची ने उन्हें देखा —
दिल काँप उठा।
उसे पहचानने में वक्त नहीं लगा।

जब अहमद उसके पास पहुँचा,
उसने पूछा, “आप कौन हैं, अम्मा?”
वो बोली, “मेरा कोई नहीं… मेरा बेटा भी मुझे छोड़ गया…”

अहमद मुस्कुराया,
“क्या आपने हमें पहचाना नहीं?”
उसकी आँखें उठीं — सामने वही चेहरे थे —
वो यतीम बच्चे, जिन्हें उसने घर से निकाला था।

चाची फूट-फूटकर रो पड़ी।
“खुदा के लिए मुझे माफ कर दो बेटा… मैंने बहुत जुल्म किए…”
सारा ने उसका हाथ थामा,
“चाची, अब रोइए मत। अल्लाह ने हमें सब दे दिया। हमने आपको माफ किया।”

चाची ने सिर झुका लिया।
शर्मिंदगी और पछतावे ने उसे तोड़ दिया।
वो महल से निकलकर फिर उसी जंगल की तरफ चली गई।
दरख़्त के नीचे बैठी, आसमान की ओर देखा और कहा,
“या अल्लाह, जिन पर मैंने ज़ुल्म किया, आज तूने उन्हें महलों का मालिक बना दिया,
और मैं, जालिम, आज तन्हा हूँ…”

उसका दिल ज़ोर से धड़कने लगा।
वो वहीं गिर पड़ी। कुछ लम्हों में उसकी सांसें थम गईं।

तीन दिन बाद लोगों को उसकी लाश मिली।
बदबू फैली थी, मगर किसी को अफसोस नहीं था।
लोगों ने दफनाया और सिर झुकाकर कहा,
“जुल्म करने वाले का यही अंजाम होता है।”

उस दिन पूरे गाँव ने देखा कि
अल्लाह का इंसाफ कैसा होता है।
जिन्होंने यतीमों को रुलाया, वो रोते रहे।
और जिन्होंने सब्र किया, अल्लाह ने उन्हें इज़्ज़त दी, मक़ाम दिया।

बेशक —
अल्लाह इंसाफ करने वाला है।

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अगली बार फिर मिलेंगे एक नई सच्ची कहानी में।
जय हिंद, जय भारत। 🇮🇳