बिना टिकट सफर करने पर बुजुर्ग को ट्रेन से उतारा निचे फिर बच्चे ने जो किया, देखकर हर कोई रो पड़ा!
“एक टिकट, एक इंसानियत – बाबूजी और आरव की यात्रा”
उत्तर प्रदेश की वह सुबह
उत्तर प्रदेश की एक खुशनुमा सुबह थी। सूरज की पहली किरणें कानपुर स्टेशन के पुराने प्लेटफार्म पर पड़ रही थीं। भीड़भाड़, ठेले वालों की पुकार, चाय की गंध और यात्रियों की हलचल – सब मिलकर एक अलग ही माहौल बना रहे थे। इसी कोलाहल के बीच, एक 75 साल के बुजुर्ग बाबूजी धीमे कदमों से लोकल पैसेंजर ट्रेन की सीढ़ी चढ़ रहे थे। उनकी पतली काया, झुकी कमर, गंदे कपड़े और हाथ में एक पुरानी पिट्ठू थैली – सब उनकी कठिन जिंदगी की कहानी बयां कर रहे थे।
वह चुपचाप एक कोने की सीट पर बैठ गए। थैली गोद में रखी, नजरें बाहर स्टेशन की दुनिया को देख रही थीं, जो धीरे-धीरे पीछे छूट रही थी। ट्रेन ने सिटी दी और चल पड़ी। डिब्बे में एक अजीब सा सन्नाटा छा गया, बाबूजी की मौजूदगी ने सबका ध्यान खींचा था। उनकी टूटी चप्पलें, फटे कपड़े और थका चेहरा जैसे एक अनकही कहानी कह रहे थे।
टिकट चेकिंग – अपमान का पल
डिब्बे में बैठे लोग अपनी-अपनी दुनिया में खोए थे – कोई टिफिन से पराठे निकाल रहा था, कोई फोन पर वीडियो देख रहा था, कोई बाहर के खेतों को निहार रहा था। तभी एक तेज आवाज गूंजी – “टिकट! टिकट दिखाओ!”
टीटीई रमेश, 40 साल का, अपनी सफेद शर्ट, काली पट्टी और कंधे पर लगे बैज के साथ डिब्बे में घूम रहा था। उसकी आवाज में सख्ती थी। वह एक-एक यात्री का टिकट जांच रहा था और उसकी नजरें बाबूजी पर टिक गईं।
“ए बुड्ढे, टिकट है क्या?” उसने कठोर स्वर में पूछा।
बाबूजी ने कांपती आवाज में जवाब दिया, “बेटा, टिकट नहीं है। पैसे नहीं थे, लेकिन मुझे इटावा जाना है। वहां मेरी बेटी है, बहुत जरूरी है।”
रमेश ने तंज कसते हुए कहा, “जरूरी तो सबको होता है, लेकिन यह ट्रेन मुफ्त में नहीं चलती। समझे? चल नीचे उतर, अगले स्टेशन पर तुझे उतारेंगे।”
डिब्बे में सन्नाटा छा गया। कुछ यात्रियों ने नजरें चुराई, कुछ अपने फोन में खो गए। एक अधेड़ उम्र का आदमी पास की सीट पर बैठा सिर हिलाने लगा, जैसे वह रमेश के रवैये से सहमत हो।
बाबूजी ने हाथ जोड़कर विनती की, “बेटा, स्टेशन पहुंचते ही अपनी बेटी से पैसे मंगवा लूंगा। मैं वादा करता हूं।”
लेकिन रमेश का दिल पत्थर हो चुका था। “जितना टिकट बचाया, उससे बड़ी कीमत अब तू चुकाएगा।”
उसने सीटी बजाई और गार्ड को बुलाया, “अगले स्टेशन पर इसे उतार देना। भीख मांगने वाले सब ऐसे ही आते हैं। मुफ्तखोरों ने देश को बर्बाद कर रखा है।”
बाबूजी चुपचाप बैठे रहे। उनकी आंखों में अब झुकाव नहीं था, बस एक सन्नाटा था।
फतेहपुर स्टेशन – इंसानियत की परीक्षा
ट्रेन फतेहपुर स्टेशन पर रुकी। प्लेटफार्म सुनसान था। रमेश ने बाबूजी को खींचते हुए उठाया, “उतर जा यहां से, अपने इटावा पैदल चला जा।”
बाबूजी धीरे-धीरे उठे, थैली कंधे से लटक रही थी, कदम कांप रहे थे। डिब्बे में बैठे लोग चुप थे, किसी ने विरोध नहीं किया।
जैसे ही बाबूजी सीढ़ी से उतरने लगे, डिब्बे के कोने से एक मासूम आवाज गूंजी, “दादाजी को क्यों उतारा?”
सबकी नजरें उस ओर मुड़ी। एक 9 साल का बच्चा आरव, अपनी स्कूल ड्रेस में मां सुनीता के साथ बैठा था। उसकी आंखों में मासूमियत थी और आवाज में सवाल।
“उनका टिकट नहीं था, बेटे,” रमेश ने जवाब दिया।
आरव ने मां का पर्स खींचा, “मम्मी, आप हमेशा कहती हैं ना कि बड़ों की मदद करनी चाहिए, तो हम क्यों नहीं कर सकते?”
फिर सबके सामने खड़ा होकर बोला, “मैं दादाजी के लिए टिकट खरीदूंगा। मेरी गुल्लक में पैसे हैं, प्लीज आप अभी के लिए दे दो, मैं घर जाकर वापस कर दूंगा।”
डिब्बे में सन्नाटा छा गया। आरव ने रमेश की जेब में पैसे ठूंसते हुए कहा, “प्लीज अंकल, दादाजी को मत उतारो।”
रमेश के चेहरे पर झिझक थी, वह एक पल के लिए रुका। फिर प्लेटफार्म पर उतरकर बाबूजी के पास गया, जो पुराने बेंच पर बैठे थे। “बाबा चलिए, वापस आइए, बच्चे ने आपका टिकट ले लिया है।”
बाबूजी चौंके, “कौन बच्चा?”
“वो छोटा सा लड़का स्कूल ड्रेस में,” रमेश ने जवाब दिया।
बाबूजी की आंखें भर आईं। उन्होंने हाथ जोड़कर सिर झुका लिया, जैसे वह जीवन के सबसे बड़े अपमान और सबसे सुंदर क्षण को एक साथ जी रहे हों।
रिश्तों की गर्माहट
ट्रेन फिर से चल पड़ी, अब प्रयागराज स्टेशन की ओर बढ़ रही थी। डिब्बे में माहौल बदल चुका था। आरव की मासूमियत ने ना सिर्फ रमेश को बल्कि बाकी यात्रियों को भी झकझोर दिया था।
एक अधेड़ उम्र का यात्री, जो पहले रमेश के रवैये से सहमत था, अब बाबूजी के पास आया, “बाबा, आप यहां बैठिए।”
आरव अब उनके पास था, “दादा जी, आप ठीक हैं ना?”
बाबूजी ने कांपते हाथों से आरव का सिर सहलाया, “बेटा, तेरा नाम क्या है?”
“आरव।”
“आप इटावा क्यों जा रहे हैं?”
बाबूजी ने गहरी सांस ली, “वहां मेरी बेटी है मीना। कई सालों बाद उससे मिलने जा रहा हूं।”
सुनीता, आरव की मां, ने पूछा, “बाबा, आपकी बेटी से इतने सालों तक मुलाकात नहीं हुई?”
बाबूजी की आंखें नम हो गईं, “बेटी मेरी गलती थी। मैंने उसे पढ़ाने के लिए शहर भेजा, लेकिन गरीबी ने जकड़ लिया। उसकी शादी के बाद मैं दूर हो गया। अब वह इटावा में है, मुझे उससे माफी मांगनी है।”
प्रयागराज स्टेशन – इंसानियत की गूंज
डिब्बे में बैठे कुछ यात्री अब उनकी बातें सुन रहे थे। एक युवा लड़की पास की सीट पर थी, उसने अपना टिफिन खोला और बाबूजी की ओर बढ़ाया, “बाबा, यह पराठे खाइए।”
बाबूजी ने मना किया, लेकिन लड़की ने जिद की, “आप खाएंगे तभी मैं खाऊंगी।”
धीरे-धीरे डिब्बे में गर्माहट फैलने लगी। लोग अब तमाशबीन नहीं थे। आरव की मासूमियत ने उनके दिलों को छू लिया था।
प्रयागराज स्टेशन पर ट्रेन रुकी। यहां का माहौल कानपुर से अलग था। गंगा के किनारे बसा यह शहर तीर्थ यात्रियों और पर्यटकों से भरा था। स्टेशन पर मंदिरों की घंटियों की आवाज और भजनों की गूंज थी। बाबूजी ने खिड़की से बाहर देखा, उनकी आंखें एक पुराने मंदिर की ओर ठहर गईं। उन्होंने मन ही मन प्रार्थना की, “हे भगवान, मुझे मेरी बेटी तक पहुंचा दे।”
माफ़ी और बदलाव
डिब्बे में अब लोग बाबूजी के साथ बातें करने लगे। एक बुजुर्ग महिला ने कहा, “बाबा, आपकी कहानी सुनकर मेरा दिल भर आया। मेरे बेटे ने भी मुझे सालों तक नहीं पूछा, लेकिन अब मैं उसके पास जा रही हूं।”
बाबूजी ने मुस्कुराकर कहा, “बेटी, बच्चे भूल जाते हैं, लेकिन मां-बाप का दिल हमेशा उनके लिए धड़कता है।”
रमेश जो अब तक चुप था, डिब्बे में वापस आया। उसकी आंखों में अब वह अकड़ नहीं थी। वह बाबूजी के पास रुका, “बाबा, माफ कीजिए। ड्यूटी करते-करते कभी-कभी दिल कठोर हो जाता है। आज इस बच्चे ने मुझे याद दिलाया कि इंसान पहले बनना जरूरी है।”
बाबूजी ने मुस्कुराया, “गलती तुम्हारी नहीं बेटा, यह जमाना ही ऐसा हो गया है जहां हर बुजुर्ग को झूठा, हर भूखे को चोर समझ लिया जाता है। लेकिन आज इस ट्रेन में एक छोटा बच्चा हमें बड़ा बना गया।”
इटावा की ओर – इंसानियत का सफर
ट्रेन इटावा की ओर बढ़ रही थी। डिब्बे में अब कोई शोर नहीं था, बस एक खामोशी थी, जिसमें आरव की मासूमियत की गूंज थी।
बाबूजी अपनी सीट पर बैठे थे, आरव उनके पास। दोनों के बीच उम्र का फासला था, लेकिन दिलों का नहीं। बाबूजी ने अपनी थैली खोली, उसमें से एक पुरानी मिठाई की डिब्बी निकाली, “बेटा आरव, यह मैं अपनी बेटी के लिए लाया था, लेकिन अब लगता है तेरा हक इससे पहले बनता है।”
आरव ने पहले मना किया, लेकिन बाबूजी ने मुस्कुराकर उसके हाथ में डिब्बी रख दी, “तूने मेरी इज्जत बचाई है बेटा, मिठाई तो बहुत छोटी चीज है तेरे सामने।”
सुनीता ने अपने बेटे को सीने से लगाया, “आज तूने मां को सिखाया है कि इंसानियत क्या होती है।”
मिलन – रिश्तों की मिठास
इटावा स्टेशन आ चुका था। बाबूजी खड़े हुए, कांपते हाथों से थैली ठीक की, दरवाजे की ओर बढ़े। एक पल के लिए रुके, पूरे डिब्बे की ओर देखा, “आज मैं जा रहा हूं, लेकिन आप सबके चेहरे याद रखूंगा। चुप रहना आसान होता है, लेकिन आज एक छोटे बच्चे ने सिखा दिया कि बोलना जरूरी होता है, जब किसी के साथ नाइंसाफी हो। शुक्रिया आरव, शुक्रिया आप सबका कि आपने इंसानियत की आवाज सुनी।”
डिब्बे में बैठे लोग अब खड़े होकर तालियां बजाने लगे। बाबूजी प्लेटफार्म पर उतरे, ट्रेन धीरे-धीरे चल पड़ी। आरव खिड़की से झांक रहा था, उसने हाथ हिलाया। बाबूजी ने थकी मुस्कान के साथ हाथ उठाया, “खुदा हाफिज बेटा, हमेशा ऐसे ही रहना।”
बेटी से मिलन
स्टेशन छोटा था, लेकिन वहां की हवा में ताजगी थी। बाबूजी ने मंदिर में भगवान के आगे सिर झुकाया, “हे भगवान, मुझे मेरी मीना तक पहुंचा दिया, अब बस उसका दिल जीतने की ताकत दे दे।”
मंदिर से निकलकर बाबूजी ने एक रिक्शे वाले को रोका, “बेटा, मुझे गंगानगर ले चलो।”
रिक्शा शहर की तंग गलियों से गुजरने लगा। गंगानगर एक साधारण मोहल्ला था। रिक्शा एक नीले रंग के मकान के सामने रुका। बाबूजी ने दरवाजे पर दस्तक दी। कुछ पल बाद दरवाजा खुला, सामने 35 साल की महिला – मीना।
“बाबूजी!” मीना की आंखें चौड़ी हो गईं।
“बेटी, मैं आ गया।”
मीना दौड़कर बाबूजी से लिपट गई, “आप इतने सालों बाद आए, मैंने सोचा था आप कभी नहीं आएंगे।”
बाबूजी ने सिर सहलाया, “माफ कर दे बेटी, मैंने तुझे अकेला छोड़ दिया।”
घर छोटा लेकिन साफ-सुथरा था। दीवारों पर मीना की शादी और बच्चों की तस्वीरें थीं। बाबूजी ने थैली से मिठाई की डिब्बी निकाली, “यह तेरे लिए लाया था बेटी।”
मीना की आंखें फिर नम हो गईं, “आप आ गए, यही मेरे लिए सबसे बड़ी मिठाई है।”
उस रात बाबूजी और मीना ने घंटों बातें की – कानपुर से इटावा तक का सफर, रमेश का अपमान, आरव की मासूमियत।
सम्मान और सीख
कुछ महीने बाद लखनऊ में एक चैरिटी इवेंट हुआ, जिसे आरव के स्कूल ने आयोजित किया। बाबूजी और मीना वहां अतिथि के रूप में गए।
आरव ने मंच पर अपनी कहानी सुनाई – कैसे उसने एक बुजुर्ग की मदद की, कैसे उसने सीखा कि इंसानियत सबसे बड़ी ताकत है।
बाबूजी ने मंच पर आकर कहा, “मैं एक गरीब इंसान हूं, जिसके पास कुछ नहीं था। लेकिन उस दिन एक छोटे बच्चे ने मुझे सम्मान दिया, मेरी बेटी तक पहुंचाया और मुझे सिखाया कि इंसान बनने में उम्र नहीं, इरादा चाहिए।”
हॉल तालियों से गूंज उठा। आरव ने बाबूजी को गले लगाया, सुनीता ने मीना का हाथ थामा। उस पल में ना कानपुर का शोर था, ना फतेहपुर का अपमान, ना प्रयागराज की खामोशी – तो बस एक गर्माहट थी, एक छोटे दिल की गर्माहट जो ना उम्र देखता है, ना हालात, बस इंसान देखता है।
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सीख:
इंसानियत, मदद और सम्मान – यही असली जीवन है।
एक टिकट ने बदल दी पूरी ट्रेन की सोच।
एक बच्चे ने सिखा दिया – दिल बड़ा होना चाहिए, जेब नहीं।
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