बीवी के इलाज के लिए भीख मांग रहा था, डॉक्टर निकली उसकी बिछड़ी हुई बहन, फिर जो हुआ
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एक नई शुरुआत
दिल्ली के भीड़भाड़ वाले रेलवे स्टेशन के बाहर सर्दियों की ठंडी हवा में लोग अपने गंतव्य की ओर भाग रहे थे। चाय बेचने वालों की आवाज, कुलियों का सामान ढोना और स्टेशन के बाहर लगी टैक्सियों की कतार सब कुछ अपने रफ्तार में चल रहा था। लेकिन इस शोरगुल के बीच एक कोना ऐसा था जो ठहराव में डूबा था। एक फटे पुराने कंबल में लिपटा एक आदमी ठंड से कांपते हुए हाथ में एक पुराना टिन का कटोरा पकड़े आने जाने वालों से मदद की गुहार कर रहा था। उसकी आंखें लाल थी, चेहरा थका हुआ और होंठ सूखे हुए। उसके सामने जमीन पर एक महिला लेटी हुई थी। उम्र में 30 के आसपास। चेहरा पीला, सांसे धीमी और आंखें बंद। पास रखी छोटी सी पोटली में कुछ कपड़े और दवाई के पर्चे पड़े थे। लेकिन पर्चियों पर तारीखें पुरानी हो चुकी थी।
“माई साहब, कुछ मदद कर दीजिए। मेरी बीवी का इलाज कराना है,” आदमी बार-बार कह रहा था। लेकिन ज्यादातर लोग बिना सुने आगे निकल जाते। कुछ लोग उसे शक की नजर से देखते। कुछ बस अनदेखा कर देते। उसका नाम था रघुवीर। कभी वह एक छोटा सा दर्जी का काम करता था। लेकिन एक हादसे ने उसकी जिंदगी बदल दी थी। पत्नी सुमित्रा को गंभीर बीमारी हो गई थी और इलाज के लिए उसके पास ना पैसे बचे ना साधन। गांव का घर बेच दिया, उधार लिया, लेकिन सब खत्म हो गया। अब वो दिल्ली आया था उम्मीद में कि शायद कोई मदद मिल जाए। ठंड और भूख से थक कर वो वही फुटपाथ पर बैठ गया। उसकी आंखें सुमित्रा के चेहरे पर टिकी थी, जिसकी सांसे धीमी होती जा रही थी।
तभी भीड़ को चीरती हुई एक महिला स्टेशन से बाहर निकली। सफेद कोट, गले में स्टेथोस्कोप, कंधे पर बैग, एक डॉक्टर थी। वो तेजी से निकल रही थी। लेकिन अचानक उसकी नजर रघुवीर और सुमित्रा पर पड़ी। “ये,” उसने खुद से बुदबुदाया। वो पास गई और सुमित्रा की नब्ज़ चेक करने लगी। “इनकी हालत बहुत खराब है। इन्हें तुरंत अस्पताल ले जाना होगा।” डॉक्टर ने कहा, रघुवीर ने उम्मीद भरी आंखों से उसकी तरफ देखा। लेकिन अगले ही पल उसकी आंखें चौड़ी हो गई। उसने डॉक्टर के चेहरे को गौर से देखा जैसे कोई पुरानी याद सामने आ गई हो। डॉक्टर भी उसे देख रही थी। लेकिन अब उसकी सांसे तेज हो चुकी थी। “रघु,” उसने बहुत धीमे स्वर में कहा। रघुवीर का दिल एक पल के लिए रुक सा गया। यह वही थी, उसकी छोटी बहन जो बचपन में बिछड़ गई थी।
रघुवीर की आंखों में एक पल में बरसों पुरानी यादें ताजा हो गई। वो लगभग 10 साल का था और उसकी छोटी बहन आरती सिर्फ छह साल की। गांव में उनका छोटा सा घर था। मिट्टी की दीवारें, छप्पर की छत और आंगन में एक नीम का पेड़। पिता खेतों में मजदूरी करते थे और मां घर संभालती थी। जीवन सादा था लेकिन खुशियां भरपूर थीं। एक बरसात की रात गांव के पास नदी में बाढ़ आ गई। पानी इतनी तेजी से बढ़ा कि लोगों को संभलने का मौका ही नहीं मिला। रघुवीर और आरती घर में थे। मां खाना पका रही थी। और पिता अभी खेत से लौटे भी नहीं थे। अचानक बाढ़ का पानी आंगन में घुस आया। मां ने घबराकर बच्चों को उठाया। लेकिन तभी पानी का तेज बहाव आया और घर की मिट्टी की दीवार गिर गई। उस अफरातफरी में रघुवीर का हाथ आरती से छूट गया। वो चीखता रहा, “आरती! आरती!” लेकिन पानी ने सब कुछ निगल लिया।
उस रात के बाद ना आरती मिली, ना उसका कोई सुराग। पिता ने महीनों तलाश की। गांव-गांव घूमे लेकिन सब बेकार। घर का सुकून खत्म हो गया। मां गहरे सदमे में चली गई और कुछ ही सालों में बीमारी से चल बसी। पिता का भी मन टूटा और वे चुपचाप दुनिया से रुखसत हो गए। रघुवीर अकेला रह गया। उसने काम धंधा शुरू किया। कभी शहर, कभी गांव में। लेकिन हर बार किसी अनजान चेहरे में उसे अपनी बहन का चेहरा दिखने लगता। वो अक्सर सोचता, अगर वह जिंदा है तो कहां होगी? कैसी होगी?
दूसरी तरफ, आरती की जिंदगी भी आसान नहीं थी। बाढ़ की रात पानी के बहाव ने उसे कई किलोमीटर दूर एक गांव के पास बहा दिया। जहां एक जोड़ा उसे बचाकर अपने घर ले गया। वे लोग नि:संतान थे लेकिन बेहद गरीब। उन्होंने आरती का नाम बदलकर अनामिका रख दिया। पढ़ाई का शौक तो था लेकिन गरीबी में कई बार स्कूल छोड़ना पड़ा। फिर भी मेहनत और लगन से वह पढ़ाई करती रही। अनामिका का सपना था डॉक्टर बनना क्योंकि उसने अपनी आंखों के सामने कई लोगों को समय पर इलाज ना मिलने से मरते देखा था। जिनमें शायद उसकी असली मां भी शामिल थी। गरीबी के बावजूद उसने स्कॉलरशिप आई। मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया और कड़ी मेहनत से डॉक्टर बनी। अब वो दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में काम करती थी।
लेकिन अपने अतीत के बारे में उसे सिर्फ इतना ही पता था कि वह किसी बाढ़ में मिली थी। बाकी सब धुंधला था। और आज स्टेशन पर इतने साल बाद वो उस आदमी को देख रही थी जिसे वो चेहरों में पहचान रही थी। उसका अपना भाई। आरती के हाथ कांप रहे थे। लेकिन उसने तुरंत अपने इमोशंस को संभाला। “रघु, अभी बातों का वक्त नहीं है। पहले तुम्हारी बीवी को अस्पताल ले चलते हैं।” उसकी आवाज में डॉक्टर की तात्कालिकता भी थी और बहन का स्नेह भी।
रघुवीर एक पल के लिए स्तब्ध खड़ा रहा। फिर उसने सुमित्रा की तरफ देखा। उसकी पत्नी की सांस अब और कमजोर हो गई थी। “हां। हां। चलो।” वो घबरा कर बोला। आरती ने पास खड़े एक ऑटो चालक को इशारा किया। “जल्दी अस्पताल।” ऑटो में बैठते ही उसने सुमित्रा की नब्ज़ चेक की और बैग से ऑक्सीजन मास्क निकाल कर लगा दिया। रघुवीर अपनी पत्नी का हाथ थामे बस उसे देख रहा था। जैसे उसकी हर सांस गिन रहा हो। सड़क पर गाड़ियों का शोर, हॉर्न की आवाज और ठंडी हवा सब कुछ जैसे पृष्ठभूमि में खो गया था।
रघुवीर का मन अब सिर्फ एक ही सवाल से भरा था। क्या यह सच में मेरी आरती है? लेकिन वह पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। ऑटो अस्पताल के गेट पर रुका। आरती तुरंत स्ट्रेचर लेकर आई। नर्सों को बुलाया और सुमित्रा को इमरजेंसी वार्ड में ले गई। “तुम यहीं रुको। मैं अभी आती हूं।” उसने रघुवीर से कहा, कुछ देर बाद आरती बाहर आई। “तुम्हारी पत्नी अब सुरक्षित है। लेकिन उसे कुछ दिनों तक भर्ती रखना होगा। इलाज मैं खुद देखूंगी।”
रघुवीर की आंखें भर आई। यह वही देखभाल थी जो शायद बचपन में उसने आरती के लिए की थी और अब आरती उसके लिए कर रही थी। दोनों के बीच कुछ पल का सन्नाटा रहा। फिर रघुवीर ने धीमे स्वर में कहा, “क्या तुम वही हो? मेरी आरती।” आरती के गले में शब्द अटक गए। उसकी आंखें भर आईं। “हां भैया, मैं ही हूं।” दोनों की आंखों से आंसू बह निकले। रघुवीर ने अपने कांपते हाथों से बहन का चेहरा छुआ। जैसे यकीन करना चाहता हो कि यह सपना नहीं है।
आरती ने उसकी हथेली थाम ली। “मैंने सोचा था मेरा कोई नहीं है। लेकिन भगवान ने आज मुझे फिर से तुम्हारे पास भेज दिया।” रघुवीर के होंठ कांपते हुए बोले, “और मैंने कभी प्रार्थना करना नहीं छोड़ा था कि मेरी बहन एक दिन मुझे मिल जाए।” अगले दिन सुबह अस्पताल के कमरे में हल्की धूप खिड़की से अंदर आ रही थी। सुमित्रा की हालत कुछ बेहतर थी। वो ऑक्सीजन सपोर्ट पर थी। लेकिन चेहरे पर थोड़ी रंगत लौट आई थी।
रघुवीर उसके पास कुर्सी पर बैठा था और सामने टेबल पर चाय का कप ठंडा हो चुका था। दरवाजा धीरे से खुला और आरती अंदर आई। हाथ में कुछ दवाइयों का पैकेट लिए। “कैसी है भाभी?” उसने मुस्कुरा कर पूछा। “थोड़ी ठीक है लेकिन अभी बहुत कमजोर है।” रघुवीर ने जवाब दिया। आरती पास आकर बैठ गई और कुछ पल चुप रही। फिर उसने धीरे से कहा, “भैया, इतने साल तुम कहां थे? कैसे गुजरी तुम्हारी जिंदगी?”
रघुवीर ने गहरी सांस ली। “तुम्हारे जाने के बाद घर में जैसे खुशियां खत्म हो गई। मां ने तुम्हारे गम में खाना छोड़ दिया और कुछ ही साल में चली गई। पिता भी टूट गए। फिर मैं अकेला रह गया। मैंने दर्जी का काम शुरू किया लेकिन ज्यादा कमाई नहीं थी। शादी हुई तो लगा जिंदगी संभल जाएगी। पर सुमित्रा की तबीयत अचानक बिगड़ने लगी। डॉक्टरों ने कहा इलाज महंगा है। घर बेच दिया, उधार लिया लेकिन सब खत्म हो गया। जब कोई रास्ता नहीं बचा तो मैं दिल्ली आ गया। सोचा यहां किसी से मदद मिल जाएगी।”
आरती उसकी बात सुनते हुए गहरे सोच में थी। “तुम्हें मुझसे पहले क्यों नहीं मिले? भैया…” रघुवीर कड़वा सा हंसा। “कैसे मिलता? मुझे तो पता ही नहीं था कि तुम जिंदा हो।” कुछ पल के लिए दोनों खामोश हो गए। फिर आरती ने उसका हाथ थाम लिया। “अब मैं हूं ना। भाभी का पूरा इलाज मैं करवाऊंगी। चाहे कितना भी खर्च हो। तुम्हें अब चिंता करने की जरूरत नहीं है।”
रघुवीर की आंखें भर आईं। “तुम्हारा इतना करना। मैं कैसे चुका पाऊंगा?” आरती ने मुस्कुराकर कहा, “भैया, भाई-बहन के रिश्ते में हिसाब नहीं रखा जाता। तुमने बचपन में मुझे तूफान से बचाने की कोशिश की थी। अब मुझे तुम्हें और भाभी को मुश्किल से निकालना है।”
दोपहर की हल्की धूप कमरे में फैल रही थी। मशीन की बीपीप आवाज के बीच सुमित्रा धीरे-धीरे होश में आ रही थी। उसने आंखें खोली और सबसे पहले रघुवीर को देखा जो कुर्सी पर उसके हाथ थामे बैठा था। “रघु,” उसकी आवाज धीमी और कमजोर थी। “हां, मैं यहीं हूं।” रघुवीर ने उसके माथे पर हाथ रखा। उसी समय दरवाजा खुला और आरती अंदर आई। हाथ में कुछ दवाइयों का पैकेट लिए।
सुमित्रा ने उसे देखा और थोड़ी देर तक चुपचाप देखती रही। फिर धीमे स्वर में पूछा, “यह?” रघुवीर ने उसकी ओर झुक कर कहा, “यह मेरी बहन है आरती।” सुमित्रा की आंखों में हैरानी और सवाल दोनों थे। “बहन? लेकिन मैंने तो कभी…” रघुवीर ने उसके बालों पर हाथ फेरते हुए कहा, “यह बचपन में मुझसे बिछड़ गई थी। मुझे भी आज ही मिली है। स्टेशन पर तुम्हें बचाने आई थी।”
सुमित्रा की आंखों में आंसू आ गए। “आपने मेरी जान बचाई?” आरती मुस्कुराई। लेकिन उसकी आंखें भी भीग चुकी थीं। “भाभी, आप मेरे लिए सिर्फ मरीज नहीं हैं। आप मेरे अपने हैं।” सुमित्रा ने कांपते हाथ से आरती का हाथ पकड़ा। “भगवान ने आज मुझे सिर्फ जिंदगी नहीं दी। एक नई रिशेदारी भी दी है।” कमरे में कुछ पल के लिए बस सन्नाटा और तीनों की आंखों में छलकते आंसू थे।
रघुवीर ने अपनी बहन और पत्नी दोनों का हाथ एक साथ थाम लिया। “अब हम तीनों साथ हैं। ना कोई बीमारी हमें अलग करेगी ना कोई मुश्किल।” आरती ने गंभीर स्वर में कहा। “भैया, सुमित्रा को अभी लंबा इलाज चाहिए। मैं सब संभाल लूंगी। लेकिन आपको भी संभलना होगा। पिछले सालों की कमी हम धीरे-धीरे पूरी करेंगे मिलकर।” सुमित्रा ने सिर हिलाकर हामी भरी।
उस पल अस्पताल का वह छोटा सा कमरा रिश्तों के उस नए बंधन का गवाह बन गया जिसे सालों की जुदाई भी तोड़ नहीं पाई थी। अगले कुछ हफ्तों तक सुमित्रा का इलाज लगातार चलता रहा। आरती दिन में अपने अस्पताल के दूसरे मरीजों को भी देखती। लेकिन हर शाम वह सुमित्रा के कमरे में आकर बैठ जाती। जैसे बचपन में रघुवीर के पास बैठा करती थी।
रघुवीर ने भी पहली बार महसूस किया कि जिंदगी में सिर्फ खून का रिश्ता ही नहीं बल्कि अपनापन ही असली ताकत है। धीरे-धीरे सुमित्रा की सेहत सुधरने लगी। उसके चेहरे पर अब फिर से रंगत लौट आई थी और मुस्कान में नई उम्मीद थी। एक दिन डिस्चार्ज का कागज मिला और तीनों अस्पताल से बाहर निकले।
ठंडी हवा में धूप की गर्मी जैसे कह रही थी। कठिन दिन खत्म हुए। आरती ने कहा, “भैया, अब आप लोग मेरे घर चलेंगे। जब तक पूरी तरह ठीक नहीं हो जाते आप यहीं रहेंगे।” रघुवीर ने पहले झिझक दिखाई। “बहन, हमने तुम्हें पहले ही बहुत परेशान कर दिया।” लेकिन आरती ने बीच में ही रोक दिया। “भैया, सालों से जो खालीपन था अब वह भरने का वक्त है।”
उस शाम तीनों आरती के घर पहुंचे। छोटा सा लेकिन साफ सुथरा घर, दीवार पर टंगी पारिवारिक तस्वीरें और अब उनमें जल्द ही एक नई तस्वीर जुड़ने वाली थी। रात को खाना खाते हुए आरती ने कहा, “भैया, मैं सोच रही हूं गांव में एक छोटा सा क्लीनिक खोलूं। वहां इलाज सस्ता होगा और जरूरतमंदों को मुफ्त भी।”
रघुवीर की आंखों में चमक आ गई। “तो मैं भी मदद करूंगा। सिलाई का काम करके जो कमा पाऊंगा वह लाऊंगा।” सुमित्रा ने मुस्कुराकर दोनों को देखा। “आप दोनों को देख लगता है जैसे भगवान ने हमें सिर्फ एक रिश्ता नहीं बल्कि एक मकसद भी दिया है।”
कुछ महीनों बाद गांव के किनारे एक छोटे से नीम के पेड़ के नीचे बना नया क्लीनिक खोला गया। दरवाजे पर तख्ती लगी थी। “आरती क्लीनिक: स्वास्थ्य सबके लिए।” उस दिन रघुवीर, सुमित्रा और आरती तीनों साथ खड़े थे। बचपन में बाढ़ ने उन्हें अलग कर दिया था। लेकिन अब जिंदगी की लहरों ने फिर से मिला दिया था।
रिश्ते का वो धागा जो बरसों पहले टूट गया था, अब और भी मजबूत हो गया था। रघुवीर ने आसमान की तरफ देखा और मन ही मन कहा, “मां, पिताजी, आपकी आरती लौट आई है और अब हमारा घर फिर से पूरा है।”
अब आपसे एक सवाल: अगर आपके बचपन में बिछड़े हुए भाई या बहन अचानक इस तरह मिल जाएं तो आप सबसे पहले उनसे क्या कहेंगे? कमेंट करके जरूर बताएं।
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