कहानी: मोहब्बत, अहंकार और माफी – करोड़पति बेटे व गरीब लड़की की अनोखी दास्तान
दिल्ली की एक सुनसान, चमकदार रात थी। घड़ी में ठीक 10 बज रहे थे। शहर की रफ्तार थम गई थी, मगर खान मार्केट के एक आलीशान होटल में आज अजीब खामोशी छाई थी। होटल की मीटिंग रूम में एक उम्रदराज़ आदमी अपने आख़िरी निवेशक का इंतजार कर रहा था। वह बेहद बेचैन था, क्योंकि उसकी पुश्तैनी कंपनी डूबने की कगार पर थी, और यही शायद आख़िरी मदद थी।
दरवाजे के उस पार बैठा शख्स, जो अब तक कुर्सी घुमाकर पीठ किए बैठा था, अचानक घूमा। बुजुर्ग ने जब चेहरा देखा, तो आंखें फटी रह गईं। होंठ कांपने लगे। “अभिनव… बेटा?” आवाज़ में दर्द, पछतावा और हैरानी – सब कुछ एक साथ था। मगर यह मुलाकात यहां कैसे पहुँची? उसका बेटा इन्वेस्टर कैसे बन गया? सच जानने के लिए हमें 6 साल पीछे जाना होगा।
जब अमीरी-गरीबी का टकराव मोहब्बत से हुआ
लखनऊ। शहर का मशहूर नाम – मोहन वर्मा। गारमेंट्स के किंग, बेहद रईस, जिनके घर की दीवारों से भी रुतबे की खुशबू आती थी। लंबी-लंबी गाड़ियां, शानदार हवेली, स्टाफ की फौज और व्यापारी समाज में सिरमौर। मोहन की एक ही कमजोरी थी – उनका घमंड। जिंदगी में पैसा सबसे ऊपर था, रिश्ते सिर्फ पीठ थपथपाने तक, असल मायने सिर्फ खानदान और स्टेटस के थे।
उनका एक बेटा था – अभिनव। इंग्लैंड से पढ़ा-लिखा, समझदार, व्यवहार से विनम्र और सपनों से भरा। उसने पिता के बिजनेस में नए-नए रंग भर दिए – नए डिज़ाइन, ऑनलाइन सेल, सोशल मीडिया मार्केटिंग। परिवार का नाम दुगना हो गया। लेकिन किस्मत को तो मानो कुछ और ही मंजूर था।
एक दिन शिल्प मेले में अभिनव की नज़र पड़ी – रेखा पर। साधारण सलवार-कुर्ते, पीछे बंधे बाल, चेहरे पर सादगी – मगर आंखों में संघर्ष की चमक। वह खुद डिजाइनर थी और खुद ही सामान बेच रही थी। उसके बनाए कपड़े अनूठे थे, लोग भीड़ बना उसके स्टॉल पर जुटे थे।
अभिनव को वो सिर्फ अपनी कला से नहीं, बल्कि अपने मेहनती और ईमानदार स्वभाव से भी भा गई। मुलाकातें बढ़ीं, दोस्ती हुई और दोस्ती धीरे-धीरे दिल की बातों तक पहुंच गई। लेकिन रेखा जानती थी – अमीर लड़के कभी भी गरीब, अनाथ लड़की को समाज ने स्वीकारा नहीं। कई बार उसने अभिनव को साफ मना किया। मगर…
“रेखा, अगर मुझे तुम्हारी अमीरी-गरीबी से फर्क होता, तो शायद पहली नजर में रोक लेता अपने जज्बातों को। लेकिन आज मुझे सिर्फ तुम्हारा साथ चाहिए।” अभिनव ने मुस्कुराकर कहा।
संघर्ष की असली शुरुआत
अभिनव जानता था – पिता को मनाना आसान न साबित होगा। उस दिन रात डाइनिंग टेबल पर पिता मोहन और मां सुजाता के सामने उसने आवाज़ में हौसला भरके बात की।
“पापा, मैं रेखा से शादी करना चाहता हूँ।”
मोहन का रंग उड़ गया। “कौन है वो लड़की? खानदान… माता-पिता?”
“पापा, वो अनाथ है। खुद मजदूरी करती है…”
ये सुनते ही घर में सन्नाटा। मोहन के चेहरे पर गुस्सा और घृणा घुल गई। “मैंने तुझे लंदन पढ़ने भेजा ताकि तेरा नाम ऊँचा हो, कंपनी बढ़े। और तू एक साधारण, बेसहार लड़की के लिए सब कुछ दांव पर लगाने चला है?”
“पापा, मैं उसके दिल से प्यार करता हूँ; पैसा, रुतबा नहीं मायने रखता,” अभिनव ने डटे रहकर कहा।
“तो अगर मेरी मर्जी की शादी नहीं कर सकता, तो यही से चला जा! आज के बाद ये घर तेरा नहीं।”
अभिनव की आंखें भर आईं। मां-बहन की मिन्नत भी काम न आई। उन सबकी आंखें नम थीं, मगर अहंकारी पिता की जिद के सामने सभी बेमोल। अभिनव ने मां के पाँव छुए, चुपचाप अपने कमरे गया, सामान बांधा और हमेशा के लिए घर छोड़ दिया।
नए सफर की ठोकरें
अभिनव सीधे रेखा के किराए के छोटे से घर पहुंचा। “रेखा, अब मुझे किसी डर का कोई मतलब नहीं। मेरा घर, मेरा नाम – कुछ भी नहीं…बस तुम हो।” रेखा की आंखें नम हो गईं – डर, चिंता, मगर प्यार भी।
शुरुआत बेहद मुश्किल थी। अभिनव को लगा था, उसकी डिग्री, उसका अनुभव उसे नौकरी दिला देगा। लेकिन हर जगह से एक ही जवाब – “माफ करें…” क्योंकि मोहन वर्मा का दबदबा इतना था कि कोई उसके बेटे को नौकरी नहीं दे सकता था। खर्चे बढ़ते गए, बचत खत्म होती गई।
एक रात छत पर अभिनव चुप बैठा था। रेखा ने पास आकर कहा, “रेखा, मैंने सब कुछ खो दिया…पापा, नाम, काम। सिर्फ तुम्हारे लिए!”
रेखा ने आंखों में भरोसा भरते हुए कहा — “अभिनव, जो लोग मोहब्बत की कदर नहीं कर सकते, उनके फैसले से अपनी किस्मत मत जोड़ो। अपनी काबिलियत मेरे हुनर से मिलाओ, हम खुद नया कारोबार खड़ा करेंगे।”
सफलता की नयी इबादत
अगले दिन से दोनों ने सच में छोटे स्तर पर काम शुरू कर दिया। अभिनव ने पुराने कारीगर जुटाए, नए डिज़ाइन तैयार करवाए। पहली खेप बड़े मॉल में लगी – और कुछ ही दिन में बिक गई। फिर नए ऑर्डर मिले, नया सेटअप बना। दो साल में उनका छोटा सा कारोबार ‘अभिनव क्रिएशन्स’ एक ब्रांड बन गया – देश-विदेश से ऑर्डर्स, सैकड़ों कारीगर। उनके घर में अब भीड़ बच्चों और काम के सामान की लगी रहती थी – थकान से ज्यादा चेहरे पर मुस्कान।
मगर जितनी भी ऊंचाई मिली, दिल में एक खालीपन था – अपने मां-बाप, खासकर मां को देखने की चाह।
वक्त का पहिया घूमा
एक दिन अभिनव को फोन आया – “सुना वर्मा ग्रुप दिवालिया हो रहा है? कर्ज के बोझ में अब कंपनी बिकने वाली है…” बेटे के आंखों में आंसू आ गए, संवादहीन पिता की हालत में छिपी लाचारी को वो भांप गया।
“वो मेरे पिता हैं; मैं उनके संघर्ष को यूं हारते हुए नहीं देख सकता।” उसने पुराने मैनेजर को बुलाया – बिना नाम बताए इंवेस्ट मीटिंग रखवाई।
यही वह शुरुआत थी – आज की रात, होटल की मुलाकात।
अहंकार का अंत और माफी की शुरुआत
मोहन वर्मा ने जब बेटे को सामने देखा, तो आंखों में पछतावा भर आया। “मुझसे भूल हुई बेटा…” बेटे ने स्नेह से कहा – “पापा, आप मेरे लिए हीरो हो, आपके बिना कैसे रह सकता था? मैं आपकी मदद करने आया हूँ।”
उस रात लंबी बातचीत के बाद, अभिनव ने कंपनी का नया प्लान, नए डिज़ाइन, नेटवर्क सब कुछ जिंदा कर दिया। कुछ महीनों में वर्मा ग्रुप संभल गया, कर्ज उतर गया।
“घर में अब तुम्हारे बिना सूनापन है बेटा। लौट आओ, अपने परिवार को पूरा कर दो,” मोहन ने थाम कर कहा।
रेखा और बच्चों के साथ अभिनव पांच साल बाद घर लौटा। मां सुजाता ने गले लगाकर कहा, “मेरा घर अब पूरा हो गया!”
निष्कर्ष
इस किस्से की सीख – अहंकार इंसान को अपने अपनों से दूर कर देता है, मगर माफी और प्यार सालों की दूरियों को पल में मिटा देता है। परिवार फिर से हंस पड़ा, घर फिर से खुशियों से गूंजने लगा।
क्या आप अभिनव की जगह होते तो पिता को माफ कर पाते? अपनी राय कॉमेंट में लिखिए। और कहानी अच्छी लगी तो शेयर जरूर करें!
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