बेटी की विदाई पर गरीब पिता को मिला ऐसा गिफ्ट, गांववालों ने झुककर किया सलाम!

बरेली के पास एक छोटा सा गांव था – मुरादपुर। गांव छोटा था, ना ज्यादा मशहूर, ना ही बहुत अमीर। वहीं रहता था रामप्रसाद, एक साधारण किसान जिसकी उम्र पचास के करीब थी। उसकी जिंदगी की सबसे बड़ी दौलत थी – उसकी इकलौती बेटी लक्ष्मी और उसका मिट्टी का छोटा सा घर, जिसे उसने सालों की मेहनत से बनाया था।

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लक्ष्मी पढ़ाई में तेज थी, गांव के स्कूल से बारहवीं पास की थी और पास के कस्बे में एक छोटी सी दुकान में हिसाब-किताब का काम करती थी। उसकी तनख्वाह ज़्यादा नहीं थी, लेकिन वो हर महीने कुछ पैसे अपने बाबूजी के लिए बचा कर लाती थी।

रामप्रसाद की पत्नी सावित्री अब इस दुनिया में नहीं थी। वो पांच साल पहले बीमारी से चल बसी थी। तब से रामप्रसाद की पूरी दुनिया सिर्फ लक्ष्मी थी। वह उसे बेटी ही नहीं, मां जैसा भी मानता था।

एक दिन गांव में खबर फैल गई कि लक्ष्मी की शादी तय हो गई है। लड़का था अमर, जो पास के कस्बे में स्कूल में अध्यापक था। अमर सीधा-सादा और ईमानदार लड़का था। रामप्रसाद को लगा, अब उसकी बेटी का भविष्य सुरक्षित हाथों में है। लेकिन अमर के परिवार ने दहेज की मांग रख दी – नए कपड़े, गहने, और घर का सारा सामान। रामप्रसाद के लिए ये सब जुटाना आसान नहीं था। उसके पास ना तो पैसे थे, ना कोई जमा पूंजी।

रामप्रसाद ने जी-जान से मेहनत शुरू कर दी। खेतों में और वक्त बिताया, मजदूरी की, हर तरह से पैसे जोड़ने की कोशिश की। फिर भी, पैसे कम पड़ रहे थे। गांव के सेठ हरप्रसाद से उधार मांगा, लेकिन सेठ ने साफ मना कर दिया। आखिरकार, रामप्रसाद ने कठोर फैसला लिया – वह अपनी जिंदगी की सबसे बड़ी पूंजी, अपना घर बेच देगा।

गांव वालों को जब पता चला, तो किसी ने ताना मारा, किसी ने मजाक उड़ाया, किसी ने सलाह दी कि शादी सादगी से कर दो, लेकिन रामप्रसाद का मन सिर्फ एक बात पर अड़ा था – बेटी की विदाई में कोई कमी नहीं होनी चाहिए।

लक्ष्मी को जब बाबूजी के फैसले का पता चला, तो उसका दिल टूट गया। उसने रात को अपने बाबूजी से कहा, “बाबूजी, आप घर क्यों बेच रहे हैं? मैं शादी नहीं करूंगी, अगर इसके लिए आपको इतना बड़ा बलिदान देना पड़े।” लेकिन रामप्रसाद ने मुस्कुराकर उसका माथा चूमा और कहा, “बेटी, तू मेरी जिंदगी का गहना है। तेरा ब्याह मेरे लिए सबसे बड़ा त्यौहार है। चिंता मत कर, सब ठीक हो जाएगा।”

लक्ष्मी ने मन ही मन ठान लिया कि वह अपने बाबूजी का घर बचाएगी, चाहे कितनी भी मेहनत करनी पड़े। उसने अपनी तनख्वाह का हर पैसा बचाना शुरू किया, ओवरटाइम किया, दोस्तों से छोटे-मोटे कर्ज लिए, और जो भी हो सका, सब जमा करती रही। उसका इरादा था, बाबूजी का घर किसी भी कीमत पर नहीं बिकने देगी।

शादी से एक हफ्ते पहले, लक्ष्मी ने सेठ हरप्रसाद से गुप्त रूप से मुलाकात की। उसने सेठ से कहा, “सेठ जी, मेरे बाबूजी का घर मत खरीदिए। मैं आपको उतने ही पैसे दूंगी, जितने में आप घर खरीदने वाले हैं।” सेठ ने पहले तो हंसी उड़ाई, लेकिन लक्ष्मी की आंखों में दृढ़ता देखकर मान गया। लक्ष्मी ने अपनी बचत से जितना हो सका, पैसा दिया और वादा किया कि बाकी पैसे वह काम करके चुका देगी। सेठ ने घर का मालिकाना हक वापस रामप्रसाद के नाम कर दिया।

ये सब इतनी चुपके से हुआ कि रामप्रसाद को भनक तक नहीं लगी।

शादी का दिन आया। मुरादपुर में रौनक थी। रामप्रसाद के घर के बाहर मंडप सजा था। गांव वाले आए थे – कुछ मदद करने, कुछ तमाशा देखने। लक्ष्मी दुल्हन के जोड़े में किसी अप्सरा जैसी लग रही थी, लेकिन उसकी आंखों में बेचैनी थी। शादी की रस्में पूरी हुईं। विदाई का समय आया। गांव की औरतें रो रही थीं, रामप्रसाद की आंखें भी नम थीं, लेकिन वह अपने आंसुओं को छुपा रहा था।

लक्ष्मी ने अपने बाबूजी के पैर छुए, गले लगाकर धीरे से कहा, “बाबूजी, मैं आपके लिए कुछ लाई हूं।” रामप्रसाद ने हैरानी से पूछा, “क्या बेटी?” लक्ष्मी ने अपने दुपट्टे से एक छोटा सा लिफाफा निकाला और बाबूजी के हाथ में रख दिया। “यह मेरा तोहफा है, बाबूजी। इसे खोलिए।”

रामप्रसाद ने लिफाफा खोला। उसमें एक कागज था – मुरादपुर में उसके नाम का घर का मालिकाना हक। रामप्रसाद हैरान रह गया। “ये क्या है लक्ष्मी?” लक्ष्मी ने मुस्कुराकर कहा, “बाबूजी, मैंने पिछले दो साल से अपनी तनख्वाह का हर पैसा बचाया था। मुझे पता था कि आप मेरी शादी के लिए सब कुछ बेच देंगे, इसलिए मैंने सेठ हरप्रसाद से पहले ही बात कर ली थी। यह घर अब भी आपका है, मैंने इसे वापस खरीद लिया।”

गांव वाले दंग रह गए। जो लोग रामप्रसाद की मजबूरी पर हंसते थे, अब उनकी आंखें शर्म से झुक गईं। रामप्रसाद की आंखों से आंसू बहने लगे। उसने लक्ष्मी को गले लगाया और कहा, “बेटी, तूने मुझे आज वो धन दिया है जो कोई जमा पूंजी नहीं खरीद सकती।”

लक्ष्मी ने कहा, “बाबूजी, आपने हमेशा सिखाया कि सच्चा धन वही है जो दूसरों के काम आए। मैंने वही किया।”

कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। कुछ महीने बाद, लक्ष्मी अपने ससुराल से मुरादपुर लौटी। उसने अपने बाबूजी के लिए एक और तोहफा लाया – एक छोटा सा स्कूल, जो उसने अपनी नई नौकरी की कमाई से गांव में शुरू किया। उस स्कूल में गांव के गरीब बच्चे मुफ्त पढ़ाई करने लगे। लक्ष्मी ने कहा, “बाबूजी, यह स्कूल मां की याद में है। मैं चाहती हूं कि हर बच्चा पढ़े, और कोई बाप अपनी बेटी की शादी के लिए घर ना बेचे।”

रामप्रसाद की आंखें फिर नम हो गईं। उसने लक्ष्मी का माथा चूमा और कहा, “बेटी, तूने ना सिर्फ मेरा घर बचाया, बल्कि पूरे गांव का भविष्य संवार दिया।”

उस दिन से मुरादपुर में एक नई कहानी बनी। लोग अब लक्ष्मी को ‘गांव की बेटी’ कहते थे। उसका स्कूल बड़ा हुआ, और गांव के बच्चे पढ़-लिखकर अपने सपने पूरे करने लगे। रामप्रसाद का घर अब सिर्फ उसका नहीं, पूरे गांव का घर बन गया।