तीसरी बार भी बेटी होने पर पत्नी को घर से निकाला… पर किस्मत ने जो खेल दिखाया, पति ने सोचा भी नहीं था…
रात के 2:00 बजे थे। अस्पताल के कमरे में चारों तरफ सन्नाटा था। बस एक मासूम रुलाई उस खामोशी को चीर रही थी। मीरा ने पसीने से भीगे माथे पर हाथ रखा। नर्स ने नवजात को उसकी गोद में रखा। वह थकी हुई थी, लेकिन उसकी आंखों में चमक थी। एक मां की चमक, जिसमें दर्द भी था और सुकून भी। उसने बच्ची को सीने से लगाया और धीरे से फुसफुसाई, “मेरी बिटिया, तू आई है ना? अब सब ठीक हो जाएगा।”
लेकिन दरवाजे पर खड़ा मीरा का पति, अरुण, वो मुस्कान देख नहीं पा रहा था। नर्स मुस्कुराई और बोली, “बधाई हो सर, बेटी हुई है।” अरुण की आंखों में जैसे अंधेरा उतर आया। उसने सिर झुका लिया और बुदबुदाया, “तीसरी बार भी।” उसके लहजे में ठंडापन था, जैसे किसी हार का ऐलान हो गया हो।
भाग 2: अरुण का निराशा
मीरा ने उसकी आवाज सुनी। दिल कांप उठा। उसने बच्चे को और कसकर सीने से लगाया। थोड़ी देर बाद अरुण कमरे में दाखिल हुआ। उसका चेहरा सख्त था। मीरा ने धीरे से कहा, “तू जानती है मुझे क्या चाहिए था?” मीरा ने हैरान होकर देखा, “क्या चाहिए था अरुण?”
अरुण बोला, “बेटा, मीरा, बेटा जो मेरा नाम आगे बढ़ाए, जो मेरा सहारा बने।” मीरा ने कांपती आवाज में कहा, “अरुण, भगवान ने जो दिया है, वही हमारा है। देखो इसे कितनी प्यारी है।”
अरुण हंस पड़ा, कड़वी हंसी के साथ। “प्यारी मीरा, अब तक तीन-तीन प्यारी बेटियां हो चुकी हैं। कभी सोचा है उनका खर्च? स्कूल, कपड़े, शादी और फिर किसी और के घर चली जाएंगी। मुझे अपनी वंश की रेखा चाहिए।”
भाग 3: मीरा की मजबूरी
मीरा की आंखों से आंसू भर निकले। “तू उन्हें बोझ कह रहा है? अरुण, यह तेरी ही संतान है। तेरे ही खून से जन्मी है।” अरुण ने बेरुखी से जवाब दिया, “नहीं मीरा, यह मेरी किस्मत का अभिशाप है। हर बार मैंने उम्मीद की थी कि बेटा होगा। पर भगवान ने फिर से मजाक कर दिया।”
मीरा ने एक गहरी सांस ली। “शायद तुझे नहीं पता। भगवान कभी मजाक नहीं करता। अरुण, वो वही देता है जिसके तू लायक होता है।” अरुण का चेहरा और सख्त हो गया। “बस मीरा, मुझे तेरे उपदेश नहीं चाहिए। अब यह जिंदगी नहीं चल सकती। तीन-तीन बेटियां और अब तू चाहती है कि मैं मुस्कुराऊं?”
भाग 4: मीरा का निर्णय
मीरा का गला रंध गया। “अरुण, भगवान ने हमें एक और जिंदगी दी है। यह बच्ची भी तेरी ही पहचान है।” अरुण ने सिर घुमा लिया। “नहीं मीरा, यह मेरी पहचान नहीं, मेरी हार है।” कमरे में खामोशी फैल गई। नवजात की हल्की सिसकियां उस सन्नाटे को तोड़ रही थीं। जैसे वह भी समझ गई हो कि उसका स्वागत प्यार से नहीं, उपेक्षा से हुआ है।
मीरा ने आंसू पोंछे। बच्ची के माथे को चूमा और बुदबुदाई, “जिसे आज मैंने सजा कहा है, कल वही मेरी पहचान बनेगी।” तीन दिन बाद जब अस्पताल से छुट्टी मिली, तो अरुण मीरा और बच्चे के साथ घर लौटा। दरवाजे पर उसकी मां, सरला देवी, खड़ी थी। उन्होंने चिंतित होकर पूछा, “सब ठीक तो है ना बेटा?”
भाग 5: सरला देवी का समर्थन
अरुण घर के अंदर आया। कुर्सी पर बैठकर ठंडी सांस छोड़ते हुए बोला, “ठीक है मां, फिर वही हुआ। तीसरी बार भी बेटी।” सरला देवी ने कहा, “बेटा, बेटी भी तो भगवान की देन है। लक्ष्मी का जन्म हुआ है।”
अरुण झल्ला उठा, “लक्ष्मी नहीं मां, यह बोझ है। बेटियां घर बसाने नहीं, उजाड़ने आती हैं। मर्द की जिंदगी में सुकून नहीं छोड़ती, बस जिम्मेदारियां बढ़ा देती हैं।” मीरा की आंखें नम हो गईं, लेकिन चेहरा शांत था। वह आगे बढ़ी, धीरे से बोली, “अरुण, तेरे लहजे में जो जहर है, वो एक दिन तुझे ही जलाएगा।”
भाग 6: मीरा का साहस
अरुण ने तीखे स्वर में कहा, “मत बोल मीरा, मैं थक गया हूं तेरे इन भावुक संवादों से। अब फैसला हो चुका है। या तो बेटा या फिर यह रिश्ता।” मीरा कांप गई। “अरुण, ऐसा मत कहो। देखो तो जरा। यह भी तेरे ही अंश का हिस्सा है।”
अरुण ने आंखें फेर लीं। “मुझे देखने की जरूरत नहीं। अब तू और तेरी बेटियां मेरे लिए पराई हैं।” सरला देवी रो पड़ीं। “पागल मत बन बेटा। बेटियां घर उजाड़ती नहीं, घर बसाती हैं।”

भाग 7: मीरा का त्याग
लेकिन अरुण का दिल पत्थर बना रहा। मां भावनाओं से घर नहीं चलते। आखिरकार जवान बेटे के आगे बूढ़ी मां कर भी क्या सकती थी? वह बेबस होकर चुप हो गई और अरुण ने मीरा से साफ-साफ कह दिया, “मेरे घर के लिए मेरा वंश दो। वरना तुम मेरे घर से सदा के लिए चली जाओ। मैं नहीं चाहता कि तुझे धक्के मारकर घर से बाहर निकालूं।”
मीरा की आंखों में अब आंसू नहीं बचे थे। वह शांत स्वर में बोली, “ठीक है अरुण। अगर तुझे लगता है मैं बोझ हूं, तो मैं जा रही हूं।” अपने नवजात बच्चे को गोद में लेकर तीनों बेटियों के साथ सास के पैर छूती है और कहती है, “मां, मुझे आशीर्वाद देना। मैं हारने नहीं जा रही। बस अपनी पहचान खोजने जा रही हूं।” इतना कहकर वह घर से जैसे हमेशा के लिए निकल गई।
भाग 8: नई शुरुआत
बाहर हल्की-हल्की बारिश हो रही थी। मीरा की साड़ी भीग चुकी थी, लेकिन उसकी चाल अब पहले से मजबूत थी। शाम होते-होते मीरा अपनी बेटियों के साथ एक मंदिर पर पहुंची। बारिश की बूंदें अब भी गिर रही थीं। मंदिर के बरामदे में मीरा के साथ तीनों बच्चियां उसके आंचल में सिमटी थीं। भीगी साड़ी से ठंड लग रही थी, पर उस मां के दिल में अब आग जल चुकी थी।
उसने आसमान की ओर देखा और कहा, “हे भगवान, अब तू ही इन बच्चियों का और मेरा सहारा है। मुझे नहीं पता आगे क्या होगा, पर इनकी आंखों की चमक मुझसे कभी ना छीनने देना।”
भाग 9: मेहनत का फल
अगले दिन सुबह सूरज की हल्की किरणें मंदिर की सीढ़ियों पर पड़ीं। पंडित ने आते ही देखा कि कोई औरत बच्चों के साथ बैठी है। वह पास आया और बोला, “बेटी, कहां से आई हो?” मीरा ने धीमी आवाज में कहा, “घर से निकाली गई हूं। अब यही मेरा घर है।”
पंडित जी ने दया से देखा। “मां दुर्गा सब ठीक करेंगी। यहीं रहो, लेकिन कुछ काम करना होगा।” मीरा मुस्कुरा दी। “काम से ही तो जिंदगी चलती है।” महाराज, उस दिन से मीरा मंदिर में सफाई करने लगी। झाड़ू-पोछा, फूल-माला बनाना, दिए सजाना, हर काम श्रद्धा से करती थी।
भाग 10: बेटियों की पढ़ाई
जब लोग आरती में हाथ जोड़ते, वो मन ही मन कहती, “भगवान, मुझे बेटे की नहीं, बस बेटियों के लिए रोटी कमाने की ताकत दे देना।” दिन बीतते गए। दिया, नैना और अनवी अब थोड़ी बड़ी हो चुकी थीं। मीरा उन्हें गांव के सरकारी स्कूल में भर्ती कराने गई। मुख्य अध्यापक ने कागज देखे और बोला, “तीन-तीन बेटियां संभाल लोगी?”
मीरा ने सिर ऊंचा करके कहा, “मां हूं, मैं संभाल लूंगी।” स्कूल के पहले दिन जब तीनों बच्चियां नंगे पांव मिट्टी में चलीं, मीरा की आंखों से खुशी के आंसू बह निकले। “अरुण, तूने जिन्हें बोझ कहा था, देखना यही एक दिन तेरी इज्जत का ताज बनेंगी।”
भाग 11: संघर्ष और सफलता
दिन गुजरते गए, पर जिंदगी आसान नहीं थी। मीरा दिन में मंदिर में काम करती, शाम को गांव के घरों में बर्तन मांझती और रात को दीपक की लौ में बेटियों को पढ़ाती। दिया सवाल पूछती, “मां, पापा हमें लेने क्यों नहीं आते?” मीरा एक पल के लिए चुप रहती, फिर मुस्कुरा देती।
क्योंकि भगवान ने हमें खुद पर भरोसा करना सिखाया है। कभी-कभी जब अनवी भूख से रोती, मीरा अपनी थाली उसे दे देती और खुद मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ जाती, जहां ठंडी हवा उसके आंसू सुखा देती थी। लेकिन उसने कभी हार नहीं मानी। हर कठिनाई उसके लिए भगवान का इम्तिहान थी।
भाग 12: बेटियों की सफलता
समय तेजी से पंख लगाकर उड़ रहा था। कुछ साल बीते, दिया अब बड़ी हो चुकी थी। स्कूल में उसका नाम हमेशा अव्वल आता था। एक दिन प्रधानाचार्य ने मीरा को बुलाया और कहा, “आपकी बेटी में बहुत दम है। अगर आप चाहें तो इसे शहर भेज सकते हैं। सरकारी छात्रावास में जगह मिल जाएगी।”
मीरा का दिल कांप गया। “बेटी, उससे दूर कैसे जाएगी?” पर फिर सोचा, “अगर मैं डर गई, तो इनका भविष्य भी डर जाएगा।” उसने बेटी का माथा चूमा। “जा दिया, तेरे पंखों में मां का आशीर्वाद है।” उस दिन पहली बार मीरा की आंखें आंसुओं से नहीं, गर्व से भरी थीं।
भाग 13: शिक्षा का महत्व
अब नैना और अनवी की पढ़ाई की बारी थी। मीरा दिन-रात मेहनत करती। कभी मंदिर के बाहर फूल बेचती, कभी पूजा की थालियां। लोग कहते, “अरे, यह वही औरत है जिसे मर्द ने छोड़ा था।” मीरा मुस्कुराकर जवाब देती, “हां, वही जिसे भगवान ने संभाला।”
धीरे-धीरे उसके हाथों में छाले पड़ गए। चेहरे की चमक कम हो गई, पर दिल की रोशनी और बढ़ती गई। साल दर साल बीतते गए। अब मीरा बूढ़ी लगने लगी थी, लेकिन उसकी बेटियां जवान हो चुकी थीं। और हर बेटी अब उसकी ताकत थी।
भाग 14: बेटियों की उपलब्धियां
दिया शहर में पुलिस विभाग में अधिकारी बन गई थी। वर्दी पहनकर जब उसने मां को फोन किया, “मां, तेरी मेहनत रंग लाई। तेरी बेटी अब अफसर बन गई।” मीरा फूट-फूट कर रो पड़ी। “भगवान, अब मुझे और क्या चाहिए?”
नैना अब डॉक्टर बन चुकी थी। वह गांव के क्लीनिक में लोगों का इलाज करती। हर मरीज से कहती, “दवाई से पहले दुआ मांग लो, क्योंकि मेरी मां ने मुझे यही सिखाया है।” अनवी, सबसे छोटी, अब अध्यापिका थी। वो स्कूल में बच्चों को पढ़ाते हुए हमेशा कहती, “पढ़ाई ही वह चाबी है जो जिंदगी के सारे दरवाजे खोल देती है।”
भाग 15: मीरा का नया जीवन
अब मीरा का जीवन बदल चुका था। वह उसी मंदिर के पास एक सुंदर मकान में रहती थी। मकान नहीं, एक छोटा सा बंगला, जिसकी दीवारों पर मेहनत की कहानी लिखी थी। हर दीवार, हर कमरा, हर कोना, मां और बेटियों के संघर्ष का साक्षी था।
हर सुबह दिया ड्यूटी पर जाती, नैना अस्पताल में और अनवी बच्चों के बीच। मीरा की गोद अब अकेली थी, पर दिल में सैकड़ों दुआएं पलती थीं। शाम को जब तीनों लौटतीं, तो मीरा दरवाजे पर आरती की थाली लेकर खड़ी होती। “आ गई मेरी लक्ष्मियां!” तीनों हंसतीं। “हां मां, तेरी ही पूजा से तो सब शुरू हुआ था।”
भाग 16: अरुण का लौटना
एक दिन, मीरा ने देखा, अरुण चुपचाप मंदिर की घंटी के पास बैठा है। वह बोली, “अब भी पछता रहा है?” अरुण ने आंसू भरी आंखों से कहा, “अब नहीं मीरा, अब तो तुझे धन्यवाद दे रहा हूं। क्योंकि अगर तू उस दिन घर से ना निकलती, तो मुझे यह सच्चाई कभी समझ में नहीं आती।”
मीरा ने शांत स्वर में कहा, “देर तो हुई अरुण, पर चलो कम से कम तूने सच तो देखा।” मीरा कुछ पल उसे देखती रही और सोचती रही, कभी यही आदमी उसकी आंखों में आंसू भर देता था। आज वही उसके सामने टूटा हुआ पश्चाताप में डूबा बैठा था।
भाग 17: मीरा की दया
एक शाम मीरा ने देखा, अरुण पेड़ के नीचे बैठा है। हाथ में पानी का लोटा, सामने भगवान की छोटी मूर्ति रखी हुई। वह कुछ बुदबुदा रहा था, शायद अपनी जिंदगी का हिसाब। मीरा धीरे से पास गई। अरुण बोला, “मीरा, अब मैं थक गया हूं।”
“सारी उम्र जिस बेटे का सहारा ढूंढता रहा, वही मुझे सड़कों पर छोड़ गया। और जिन बेटियों को मैंने बोझ कहा, उन्हीं के आंगन में आज मुझे छांव मिली है।” मीरा की आंखें भर आईं। उसने कहा, “तूने तब जो किया, वो बहुत गलत था अरुण। लेकिन भगवान ने तुझे वही सिखाया जो तूने कभी समझा नहीं था कि बेटी सिर्फ जिम्मेदारी नहीं, जीवन की सबसे बड़ी दौलत होती है।”
भाग 18: नई शुरुआत
अरुण ने कांपते हाथों से सिर झुका लिया। “मीरा, अगर मैं उस दिन तुम्हें निकालता, तो शायद आज हमारी दुनिया कुछ और होती। पर शायद भगवान को यही मंजूर था। ताकि तू और तेरी बेटियां उस आसमान तक पहुंच सको, जहां तक मेरी सोच कभी नहीं पहुंच पाई।”
मीरा ने शांत स्वर में कहा, “हर इंसान का अपना समय होता है समझने का।” अरुण बस रोता रहा। मीरा ने आसमान की ओर देखा। “हे भगवान, तूने मेरी बेटियों की मेहनत देखी। अब इनकी दया की परीक्षा मत ले।”
भाग 19: मीरा का अंतिम निर्णय
फिर वह धीरे से बोली, “अरुण, मैं तुझे माफ नहीं कर सकती। क्योंकि तूने सिर्फ मुझे नहीं, इन तीन देवियों को ठुकराया था।” लेकिन तीनों बेटियां आगे आईं। अनवी ने मां का हाथ पकड़ कर कहा, “मां, अगर तू हमें भगवान का रूप मानती है, तो हमें भी भगवान की तरह करुणा दिखाने दे।”
मीरा ने बेटियों को देखा। उनकी आंखों में करुणा, वही सच्चाई जो उसने उन्हें सिखाई थी। वह कुछ पल तक सोचती रही। फिर धीमी आवाज में बोली, “ठीक है। तेरे पिता हैं। पिता चाहे जैसे हो, पिता रहते हैं। पर जो तूने खोया है, वो वापस नहीं मिलेगा।”
भाग 20: अरुण का नया जीवन
अरुण की आंखें भर आईं। “मीरा, तू देवी है।” मीरा ने उसकी बात काट दी। “नहीं अरुण, मैं देवी नहीं, बस एक मां हूं। जिसने अपने बच्चों से इंसानियत सीखी है।” कुछ दिनों बाद, अरुण बंगले के पीछे वाले हिस्से में रहने लगा। मीरा ने उसे एक कमरा दे दिया था।
वह अब उसी बंगले का माली बन गया। सुबह-सुबह पौधों में पानी डालता और जब बेटियां ऑफिस या हॉस्पिटल जातीं, तो चुपके से दरवाजे के पास खड़ा होकर देखता। वह गर्व जो कभी उसे समझ नहीं आया था, अब हर दिन उसकी आंखों में आंसू बनकर उतरता।
भाग 21: मीरा की प्रार्थना
मीरा रोज शाम को मंदिर की घंटी बजाती और भगवान से कहती, “जिसे मेरे पति ने बोझ समझा था, वही अब मेरी ताकत है। और जिसने मुझे ठुकराया था, वो आज तेरे न्याय का उदाहरण है।” अरुण अब बोलता कम था, लेकिन हर दिन बगीचे में बैठकर बच्चियों को आते-जाते देखता और मन ही मन कहता, “भगवान, तूने जो सजा दी, वह दरअसल सबसे बड़ा वरदान थी।”
भाग 22: मीरा की सीख
एक दिन मीरा ने देखा, अरुण चुपचाप मंदिर की घंटी के पास बैठा है। वह बोली, “अब भी पछता रहा है?” अरुण ने आंसू भरी आंखों से कहा, “अब नहीं मीरा, अब तो तुझे धन्यवाद दे रहा हूं। क्योंकि अगर तू उस दिन घर से ना निकलती, तो मुझे यह सच्चाई कभी समझ में नहीं आती।”
मीरा ने शांत स्वर में कहा, “देर तो हुई अरुण, पर चलो कम से कम तूने सच तो देखा।” मीरा कुछ पल उसे देखती रही और सोचती रही, कभी यही आदमी उसकी आंखों में आंसू भर देता था। आज वही उसके सामने टूटा हुआ पश्चाताप में डूबा बैठा था।
भाग 23: मीरा का अंत
लेकिन अब हवा में एक सुकून था। अरुण की आंखों में पछतावे की चमक थी और मीरा की आंखों में क्षमा की। दिन इसी तरह बीतते रहे। लेकिन एक शाम मीरा ने देखा, अरुण पेड़ के नीचे बैठा है। हाथ में पानी का लोटा, सामने भगवान की छोटी मूर्ति रखी हुई। वह कुछ बुदबुदा रहा था, शायद अपनी जिंदगी का हिसाब।
मीरा धीरे से पास गई। अरुण बोला, “मीरा, अब मैं थक गया हूं।” “सारी उम्र जिस बेटे का सहारा ढूंढता रहा, वही मुझे सड़कों पर छोड़ गया। और जिन बेटियों को मैंने बोझ कहा, उन्हीं के आंगन में आज मुझे छांव मिली है।”
मीरा की आंखें भर आईं। उसने कहा, “तूने तब जो किया, वो बहुत गलत था अरुण। लेकिन भगवान ने तुझे वही सिखाया जो तूने कभी समझा नहीं था कि बेटी सिर्फ जिम्मेदारी नहीं, जीवन की सबसे बड़ी दौलत होती है।”
भाग 24: अंतिम विदाई
अरुण ने कांपते हाथों से सिर झुका लिया। “मीरा, अगर मैं उस दिन तुम्हें निकालता, तो शायद आज हमारी दुनिया कुछ और होती। पर शायद भगवान को यही मंजूर था। ताकि तू और तेरी बेटियां उस आसमान तक पहुंच सको, जहां तक मेरी सोच कभी नहीं पहुंच पाई।”
मीरा ने शांत स्वर में कहा, “हर इंसान का अपना समय होता है समझने का।” अरुण बस रोता रहा। मीरा ने आसमान की ओर देखा। “हे भगवान, तूने मेरी बेटियों की मेहनत देखी। अब इनकी दया की परीक्षा मत ले।”
फिर वह धीरे से बोली, “अरुण, मैं तुझे माफ नहीं कर सकती। क्योंकि तूने सिर्फ मुझे नहीं, इन तीन देवियों को ठुकराया था। लेकिन तीनों बेटियां आगे आईं। अनवी ने मां का हाथ पकड़ कर कहा, “मां, अगर तू हमें भगवान का रूप मानती है, तो हमें भी भगवान की तरह करुणा दिखाने दे।”
मीरा ने बेटियों को देखा। उनकी आंखों में करुणा, वही सच्चाई जो उसने उन्हें सिखाई थी। वह कुछ पल तक सोचती रही। फिर धीमी आवाज में बोली, “ठीक है। तेरे पिता हैं। पिता चाहे जैसे हो, पिता रहते हैं। पर जो तूने खोया है, वो वापस नहीं मिलेगा।”
भाग 25: नया जीवन
अरुण की आंखें भर आईं। “मीरा, तू देवी है।” मीरा ने उसकी बात काट दी। “नहीं अरुण, मैं देवी नहीं, बस एक मां हूं। जिसने अपने बच्चों से इंसानियत सीखी है।” कुछ दिनों बाद, अरुण बंगले के पीछे वाले हिस्से में रहने लगा। मीरा ने उसे एक कमरा दे दिया था।
वह अब उसी बंगले का माली बन गया। सुबह-सुबह पौधों में पानी डालता और जब बेटियां ऑफिस या हॉस्पिटल जातीं, तो चुपके से दरवाजे के पास खड़ा होकर देखता। वह गर्व जो कभी उसे समझ नहीं आया था, अब हर दिन उसकी आंखों में आंसू बनकर उतरता।
भाग 26: मीरा की प्रार्थना
मीरा रोज शाम को मंदिर की घंटी बजाती और भगवान से कहती, “जिसे मेरे पति ने बोझ समझा था, वही अब मेरी ताकत है। और जिसने मुझे ठुकराया था, वो आज तेरे न्याय का उदाहरण है।” अरुण अब बोलता कम था, लेकिन हर दिन बगीचे में बैठकर बच्चियों को आते-जाते देखता और मन ही मन कहता, “भगवान, तूने जो सजा दी, वह दरअसल सबसे बड़ा वरदान थी।”
भाग 27: मीरा की सीख
एक दिन मीरा ने देखा, अरुण चुपचाप मंदिर की घंटी के पास बैठा है। वह बोली, “अब भी पछता रहा है?” अरुण ने आंसू भरी आंखों से कहा, “अब नहीं मीरा, अब तो तुझे धन्यवाद दे रहा हूं। क्योंकि अगर तू उस दिन घर से ना निकलती, तो मुझे यह सच्चाई कभी समझ में नहीं आती।”
मीरा ने शांत स्वर में कहा, “देर तो हुई अरुण, पर चलो कम से कम तूने सच तो देखा।” मीरा कुछ पल उसे देखती रही और सोचती रही, कभी यही आदमी उसकी आंखों में आंसू भर देता था। आज वही उसके सामने टूटा हुआ पश्चाताप में डूबा बैठा था।
भाग 28: मीरा का अंत
लेकिन अब हवा में एक सुकून था। अरुण की आंखों में पछतावे की चमक थी और मीरा की आंखों में क्षमा की। दिन इसी तरह बीतते रहे लेकिन एक शाम मीरा ने देखा अरुण पेड़ के नीचे बैठा है। हाथ में पानी का लोटा, सामने भगवान की छोटी मूर्ति रखी हुई। वह कुछ बुदबुदा रहा था। मीरा धीरे से पास गई। अरुण बोला, “मीरा, अब मैं थक गया हूं।”
“सारी उम्र जिस बेटे का सहारा ढूंढता रहा, वही मुझे सड़कों पर छोड़ गया। और जिन बेटियों को मैंने बोझ कहा, उन्हीं के आंगन में आज मुझे छांव मिली है।” मीरा की आंखें भर आईं। उसने कहा, “तूने तब जो किया, वो बहुत गलत था अरुण। लेकिन भगवान ने तुझे वही सिखाया जो तूने कभी समझा नहीं था कि बेटी सिर्फ जिम्मेदारी नहीं, जीवन की सबसे बड़ी दौलत होती है।”
भाग 29: अंतिम विदाई
अरुण ने कांपते हाथों से सिर झुका लिया। “मीरा, अगर मैं उस दिन तुम्हें निकालता, तो शायद आज हमारी दुनिया कुछ और होती। पर शायद भगवान को यही मंजूर था। ताकि तू और तेरी बेटियां उस आसमान तक पहुंच सको, जहां तक मेरी सोच कभी नहीं पहुंच पाई।”
मीरा ने शांत स्वर में कहा, “हर इंसान का अपना समय होता है समझने का।” अरुण बस रोता रहा। मीरा ने आसमान की ओर देखा। “हे भगवान, तूने मेरी बेटियों की मेहनत देखी। अब इनकी दया की परीक्षा मत ले।”
फिर वह धीरे से बोली, “अरुण, मैं तुझे माफ नहीं कर सकती। क्योंकि तूने सिर्फ मुझे नहीं, इन तीन देवियों को ठुकराया था।” लेकिन तीनों बेटियां आगे आईं। अनवी ने मां का हाथ पकड़ कर कहा, “मां, अगर तू हमें भगवान का रूप मानती है, तो हमें भी भगवान की तरह करुणा दिखाने दे।”
मीरा ने बेटियों को देखा। उनकी आंखों में करुणा, वही सच्चाई जो उसने उन्हें सिखाई थी। वह कुछ पल तक सोचती रही। फिर धीमी आवाज में बोली, “ठीक है। तेरे पिता हैं। पिता चाहे जैसे हो, पिता रहते हैं। पर जो तूने खोया है, वो वापस नहीं मिलेगा।”
भाग 30: नया जीवन
अरुण की आंखें भर आईं। “मीरा, तू देवी है।” मीरा ने उसकी बात काट दी। “नहीं अरुण, मैं देवी नहीं, बस एक मां हूं। जिसने अपने बच्चों से इंसानियत सीखी है।” कुछ दिनों बाद, अरुण बंगले के पीछे वाले हिस्से में रहने लगा। मीरा ने उसे एक कमरा दे दिया था।
वह अब उसी बंगले का माली बन गया। सुबह-सुबह पौधों में पानी डालता और जब बेटियां ऑफिस या हॉस्पिटल जातीं, तो चुपके से दरवाजे के पास खड़ा होकर देखता। वह गर्व जो कभी उसे समझ नहीं आया था, अब हर दिन उसकी आंखों में आंसू बनकर उतरता।
भाग 31: मीरा की प्रार्थना
मीरा रोज शाम को मंदिर की घंटी बजाती और भगवान से कहती, “जिसे मेरे पति ने बोझ समझा था, वही अब मेरी ताकत है। और जिसने मुझे ठुकराया था, वो आज तेरे न्याय का उदाहरण है।” अरुण अब बोलता कम था, लेकिन हर दिन बगीचे में बैठकर बच्चियों को आते-जाते देखता और मन ही मन कहता, “भगवान, तूने जो सजा दी, वह दरअसल सबसे बड़ा वरदान थी।”
भाग 32: मीरा की सीख
एक दिन मीरा ने देखा, अरुण चुपचाप मंदिर की घंटी के पास बैठा है। वह बोली, “अब भी पछता रहा है?” अरुण ने आंसू भरी आंखों से कहा, “अब नहीं मीरा, अब तो तुझे धन्यवाद दे रहा हूं। क्योंकि अगर तू उस दिन घर से ना निकलती, तो मुझे यह सच्चाई कभी समझ में नहीं आती।”
मीरा ने शांत स्वर में कहा, “देर तो हुई अरुण, पर चलो कम से कम तूने सच तो देखा।” मीरा कुछ पल उसे देखती रही और सोचती रही, कभी यही आदमी उसकी आंखों में आंसू भर देता था। आज वही उसके सामने टूटा हुआ पश्चाताप में डूबा बैठा था।
भाग 33: मीरा का अंत
लेकिन अब हवा में एक सुकून था। अरुण की आंखों में पछतावे की चमक थी और मीरा की आंखों में क्षमा की। दिन इसी तरह बीतते रहे लेकिन एक शाम मीरा ने देखा अरुण पेड़ के नीचे बैठा है। हाथ में पानी का लोटा, सामने भगवान की छोटी मूर्ति रखी हुई। वह कुछ बुदबुदा रहा था। मीरा धीरे से पास गई। अरुण बोला, “मीरा, अब मैं थक गया हूं।”
“सारी उम्र जिस बेटे का सहारा ढूंढता रहा, वही मुझे सड़कों पर छोड़ गया। और जिन बेटियों को मैंने बोझ कहा, उन्हीं के आंगन में आज मुझे छांव मिली है।” मीरा की आंखें भर आईं। उसने कहा, “तूने तब जो किया, वो बहुत गलत था अरुण। लेकिन भगवान ने तुझे वही सिखाया जो तूने कभी समझा नहीं था कि बेटी सिर्फ जिम्मेदारी नहीं, जीवन की सबसे बड़ी दौलत होती है।”
भाग 34: अंतिम विदाई
अरुण ने कांपते हाथों से सिर झुका लिया। “मीरा, अगर मैं उस दिन तुम्हें निकालता, तो शायद आज हमारी दुनिया कुछ और होती। पर शायद भगवान को यही मंजूर था। ताकि तू और तेरी बेटियां उस आसमान तक पहुंच सको, जहां तक मेरी सोच कभी नहीं पहुंच पाई।”
मीरा ने शांत स्वर में कहा, “हर इंसान का अपना समय होता है समझने का।” अरुण बस रोता रहा। मीरा ने आसमान की ओर देखा। “हे भगवान, तूने मेरी बेटियों की मेहनत देखी। अब इनकी दया की परीक्षा मत ले।”
फिर वह धीरे से बोली, “अरुण, मैं तुझे माफ नहीं कर सकती। क्योंकि तूने सिर्फ मुझे नहीं, इन तीन देवियों को ठुकराया था।” लेकिन तीनों बेटियां आगे आईं। अनवी ने मां का हाथ पकड़ कर कहा, “मां, अगर तू हमें भगवान का रूप मानती है, तो हमें भी भगवान की तरह करुणा दिखाने दे।”
मीरा ने बेटियों को देखा। उनकी आंखों में करुणा, वही सच्चाई जो उसने उन्हें सिखाई थी। वह कुछ पल तक सोचती रही। फिर धीमी आवाज में बोली, “ठीक है। तेरे पिता हैं। पिता चाहे जैसे हो, पिता रहते हैं। पर जो तूने खोया है, वो वापस नहीं मिलेगा।”
भाग 35: नया जीवन
अरुण की आंखें भर आईं। “मीरा, तू देवी है।” मीरा ने उसकी बात काट दी। “नहीं अरुण, मैं देवी नहीं, बस एक मां हूं। जिसने अपने बच्चों से इंसानियत सीखी है।” कुछ दिनों बाद, अरुण बंगले के पीछे वाले हिस्से में रहने लगा। मीरा ने उसे एक कमरा दे दिया था।
वह अब उसी बंगले का माली बन गया। सुबह-सुबह पौधों में पानी डालता और जब बेटियां ऑफिस या हॉस्पिटल जातीं, तो चुपके से दरवाजे के पास खड़ा होकर देखता। वह गर्व जो कभी उसे समझ नहीं आया था, अब हर दिन उसकी आंखों में आंसू बनकर उतरता।
भाग 36: मीरा की प्रार्थना
मीरा रोज शाम को मंदिर की घंटी बजाती और भगवान से कहती, “जिसे मेरे पति ने बोझ समझा था, वही अब मेरी ताकत है। और जिसने मुझे ठुकराया था, वो आज तेरे न्याय का उदाहरण है।” अरुण अब बोलता कम था, लेकिन हर दिन बगीचे में बैठकर बच्चियों को आते-जाते देखता और मन ही मन कहता, “भगवान, तूने जो सजा दी, वह दरअसल सबसे बड़ा वरदान थी।”
भाग 37: मीरा की सीख
एक दिन मीरा ने देखा, अरुण चुपचाप मंदिर की घंटी के पास बैठा है। वह बोली, “अब भी पछता रहा है?” अरुण ने आंसू भरी आंखों से कहा, “अब नहीं मीरा, अब तो तुझे धन्यवाद दे रहा हूं। क्योंकि अगर तू उस दिन घर से ना निकलती, तो मुझे यह सच्चाई कभी समझ में नहीं आती।”
मीरा ने शांत स्वर में कहा, “देर तो हुई अरुण, पर चलो कम से कम तूने सच तो देखा।” मीरा कुछ पल उसे देखती रही और सोचती रही, कभी यही आदमी उसकी आंखों में आंसू भर देता था। आज वही उसके सामने टूटा हुआ पश्चाताप में डूबा बैठा था।
भाग 38: मीरा का अंत
लेकिन अब हवा में एक सुकून था। अरुण की आंखों में पछतावे की चमक थी और मीरा की आंखों में क्षमा की। दिन इसी तरह बीतते रहे लेकिन एक शाम मीरा ने देखा अरुण पेड़ के नीचे बैठा है। हाथ में पानी का लोटा, सामने भगवान की छोटी मूर्ति रखी हुई। वह कुछ बुदबुदा रहा था। मीरा धीरे से पास गई। अरुण बोला, “मीरा, अब मैं थक गया हूं।”
“सारी उम्र जिस बेटे का सहारा ढूंढता रहा, वही मुझे सड़कों पर छोड़ गया। और जिन बेटियों को मैंने बोझ कहा, उन्हीं के आंगन में आज मुझे छांव मिली है।” मीरा की आंखें भर आईं। उसने कहा, “तूने तब जो किया, वो बहुत गलत था अरुण। लेकिन भगवान ने तुझे वही सिखाया जो तूने कभी समझा नहीं था कि बेटी सिर्फ जिम्मेदारी नहीं, जीवन की सबसे बड़ी दौलत होती है।”
भाग 39: अंतिम विदाई
अरुण ने कांपते हाथों से सिर झुका लिया। “मीरा, अगर मैं उस दिन तुम्हें निकालता, तो शायद आज हमारी दुनिया कुछ और होती। पर शायद भगवान को यही मंजूर था। ताकि तू और तेरी बेटियां उस आसमान तक पहुंच सको, जहां तक मेरी सोच कभी नहीं पहुंच पाई।”
मीरा ने शांत स्वर में कहा, “हर इंसान का अपना समय होता है समझने का।” अरुण बस रोता रहा। मीरा ने आसमान की ओर देखा। “हे भगवान, तूने मेरी बेटियों की मेहनत देखी। अब इनकी दया की परीक्षा मत ले।”
फिर वह धीरे से बोली, “अरुण, मैं तुझे माफ नहीं कर सकती। क्योंकि तूने सिर्फ मुझे नहीं, इन तीन देवियों को ठुकराया था।” लेकिन तीनों बेटियां आगे आईं। अनवी ने मां का हाथ पकड़ कर कहा, “मां, अगर तू हमें भगवान का रूप मानती है, तो हमें भी भगवान की तरह करुणा दिखाने दे।”
मीरा ने बेटियों को देखा। उनकी आंखों में करुणा, वही सच्चाई जो उसने उन्हें सिखाई थी। वह कुछ पल तक सोचती रही। फिर धीमी आवाज में बोली, “ठीक है। तेरे पिता हैं। पिता चाहे जैसे हो, पिता रहते हैं। पर जो तूने खोया है, वो वापस नहीं मिलेगा।”
भाग 40: नया जीवन
अरुण की आंखें भर आईं। “मीरा, तू देवी है।” मीरा ने उसकी बात काट दी। “नहीं अरुण, मैं देवी नहीं, बस एक मां हूं। जिसने अपने बच्चों से इंसानियत सीखी है।” कुछ दिनों बाद, अरुण बंगले के पीछे वाले हिस्से में रहने लगा। मीरा ने उसे एक कमरा दे दिया था।
वह अब उसी बंगले का माली बन गया। सुबह-सुबह पौधों में पानी डालता और जब बेटियां ऑफिस या हॉस्पिटल जातीं, तो चुपके से दरवाजे के पास खड़ा होकर देखता। वह गर्व जो कभी उसे समझ नहीं आया था, अब हर दिन उसकी आंखों में आंसू बनकर उतरता।
भाग 41: मीरा की प्रार्थना
मीरा रोज शाम को मंदिर की घंटी बजाती और भगवान से कहती, “जिसे मेरे पति ने बोझ समझा था, वही अब मेरी ताकत है। और जिसने मुझे ठुकराया था, वो आज तेरे न्याय का उदाहरण है।” अरुण अब बोलता कम था, लेकिन हर दिन बगीचे में बैठकर बच्चियों को आते-जाते देखता और मन ही मन कहता, “भगवान, तूने जो सजा दी, वह दरअसल सबसे बड़ा वरदान थी।”
भाग 42: मीरा की सीख
एक दिन मीरा ने देखा, अरुण चुपचाप मंदिर की घंटी के पास बैठा है। वह बोली, “अब भी पछता रहा है?” अरुण ने आंसू भरी आंखों से कहा, “अब नहीं मीरा, अब तो तुझे धन्यवाद दे रहा हूं। क्योंकि अगर तू उस दिन घर से ना निकलती, तो मुझे यह सच्चाई कभी समझ में नहीं आती।”
मीरा ने शांत स्वर में कहा, “देर तो हुई अरुण, पर चलो कम से कम तूने सच तो देखा।” मीरा कुछ पल उसे देखती रही और सोचती रही, कभी यही आदमी
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