अमेरिका के ट्रेन स्टेशन पर विलियम एच कार्टर की कहानी (हिंदी में)

कहते हैं, इंसान की असली पहचान उसके कपड़ों से नहीं, उसके कर्मों से होती है। लेकिन इस दौड़ती-भागती दुनिया में लोग अक्सर इस सच्चाई को भूल जाते हैं।

अमेरिका का एक बड़ा और भीड़भाड़ वाला ट्रेन स्टेशन। सुबह के 11 बजे थे। प्लेटफार्म पर हजारों लोग अपनी-अपनी मंजिल की जल्दी में भाग रहे थे। सूट-बूट में सजे यात्री, मोबाइल में व्यस्त लोग और बैग घसीटते हुए यात्री—हर तरफ बस भीड़ ही भीड़ थी।

इसी भीड़ के बीच एक बुजुर्ग आदमी धीरे-धीरे कदम बढ़ाता हुआ स्टेशन पर दाखिल हुआ। उम्र लगभग 75 साल रही होगी। साधारण, फीका सा ग्रे सूट, थोड़ा पुराना, जिस पर वक्त की सिलवटें साफ झलक रही थीं। हाथ में पुराना चमड़े का बैग और आंखों में गहरी थकान। वह धीरे-धीरे सीढ़ियों से नीचे उतरा और ट्रेन के डिब्बे की ओर बढ़ा। उसके कदम डगमगा रहे थे, लेकिन चेहरे पर अजीब सी शांति और गरिमा थी।

जैसे ही वह अंदर दाखिल हुआ, भीड़ में बैठे कुछ युवा यात्रियों ने उसकी ओर देखा और हल्की हंसी उड़ाई।
“देखो, पुराना सूट पहनकर चला आया। लगता है गलती से फर्स्ट क्लास में चढ़ गया,” एक यात्री ने ताना मारा।
दूसरे ने मजाक उड़ाते हुए कहा, “बाबा, यह आपकी जगह नहीं है। यह टिकट बड़े लोगों के लिए होता है।”

बुजुर्ग चुप रहे। उन्होंने बिना कुछ कहे अपनी टिकट निकाली और नजरें झुकाकर अपनी सीट ढूंढने लगे। लेकिन तभी कंडक्टर आ गया—लंबा चौड़ा आदमी, चेहरा अकड़ से भरा हुआ। उसने बुजुर्ग की ओर देखा और ऊंची आवाज में बोला,
“अरे, यह कौन अंदर घुस आया? बाबा, यह डिब्बा आपके बस का नहीं है। निकलो यहां से!”

बुजुर्ग ने शांति से कहा,
“बेटा, मेरे पास टिकट है। बस मेरी सीट दिखा दो।”

लेकिन कंडक्टर ने टिकट देखे बिना ही हाथ उठाकर धक्का दे दिया।
“ना निकलो यहां से, वरना मैं खींच कर बाहर फेंक दूंगा!”

भीड़ चुपचाप देखती रही। किसी ने बीच-बचाव नहीं किया। कुछ लोग हंसने लगे, किसी ने मोबाइल निकालकर वीडियो भी बनाने की कोशिश की। बुजुर्ग की पकड़ रेलिंग पर ढीली हुई और वह लड़खड़ाते हुए बाहर प्लेटफार्म पर गिर पड़े। उनके हाथ से पुराना बैग छूटकर जमीन पर जा गिरा। उनका माथा हल्का सा छिल गया और खून की एक पतली लकीर बह निकली। लेकिन उन्होंने विरोध नहीं किया। बस धीरे से उठे, बैग संभाला और प्लेटफार्म की बेंच पर जाकर बैठ गए। आंखों में नमी थी, लेकिन होठों पर कोई शिकायत नहीं।

आसपास बैठे लोग कानाफूसी करने लगे,
“लगता है कोई बेघर है। पता नहीं कैसे टिकट ले लिया। नाटक कर रहा होगा। आजकल तो ऐसे बहुत घूमते हैं।”

बुजुर्ग चुपचाप बैठे रहे। उनके चेहरे की चुप्पी उन तमाम तानों से ज्यादा भारी लग रही थी। कुछ देर बाद उन्होंने अपने बैग से एक पुराना छोटा फोन निकाला। स्क्रीन टूटी हुई थी, लेकिन उसमें उनकी उंगलियां बेहद सधी हुई लगी। उन्होंने एक नंबर डायल किया और बस इतना कहा,
“मुझे लेने यहां आ जाओ। स्टेशन पर तुरंत।”

उनकी आवाज में कोई गुस्सा नहीं था, लेकिन एक ठंडा सा सन्नाटा था। उधर प्लेटफार्म पर अभी भी वही भीड़भाड़ और शोर था। लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया कि इस खामोश कॉल के बाद जल्द ही पूरा माहौल बदलने वाला है।

करीब 20 मिनट भी नहीं बीते थे कि अचानक प्लेटफार्म पर हलचल मच गई। दूर से पुलिस सायरन की आवाज सुनाई दी। लोगों ने सोचा कोई हादसा हुआ होगा, लेकिन अगले ही पल काले रंग की एसयूवी गाड़ियां और सरकारी वाहन स्टेशन के गेट पर आकर रुके। दरवाजे खुलते ही करीब दर्जन भर सुरक्षा अधिकारी और कुछ सूट-बूट पहने लोग तेजी से प्लेटफार्म की ओर भागे। उनका चेहरा तनाव से भरा हुआ था, जैसे किसी बड़ी शख्सियत को ढूंढ रहे हों।

“सर्च द प्लेटफार्म!”—एक अधिकारी ने आदेश दिया। यात्रियों ने चौंक कर इधर-उधर देखना शुरू कर दिया।
“क्या हुआ? किसके लिए इतनी फोर्स आई है?” भीड़ में फुसफुसाहट फैलने लगी।

तभी उन अधिकारियों में से एक बुजुर्ग आदमी तक पहुंचा। उसे देखते ही उसने रुक कर गहरी सांस ली और अचानक झुक कर सलाम ठोक दिया,
“सर!” उसकी आवाज गूंज उठी। पूरा प्लेटफार्म स्तब्ध रह गया। जो लोग कुछ देर पहले उसे भिखारी समझकर हंसी उड़ा रहे थे, उनकी आंखें चौड़ी हो गईं।

बुजुर्ग आदमी शांति से खड़ा हुआ। उसके माथे पर अब भी चोट का हल्का निशान था, लेकिन उसकी आंखों की गरिमा अब सबके दिलों में उतर रही थी। सूट पहने एक और अधिकारी दौड़कर आया और लगभग कांपते हुए बोला,
“हम देर से पहुंचे सर, हमें माफ कर दीजिए।”

उसके बाद उसने कंधे से वॉकी टॉकी हटाकर आदेश दिया,
“एरिया सील करो तुरंत।”

अचानक पूरे स्टेशन पर सुरक्षा घेरा कस गया। पुलिसकर्मी प्लेटफार्म पर लाइन बनाकर खड़े हो गए। यात्री हैरानी में खड़े रह गए। कंडक्टर, जिसने कुछ देर पहले बुजुर्ग को धक्का देकर ट्रेन से बाहर फेंका था, अब डर के मारे वहीं जम गया। उसका चेहरा सफेद पड़ गया और पसीने की बूंदें माथे से टपकने लगीं।

बुजुर्ग आदमी ने उसकी ओर देखा। आवाज अब भी बेहद शांत थी, लेकिन उसके हर शब्द में बिजली की तरह असर था,
“कल रात मैंने सोचा था कि लोग अब भी इंसानियत पहचानते होंगे। लेकिन आज साबित हो गया कि वर्दी और पद से ज्यादा लोग कपड़ों और हालात को देखते हैं।”

भीड़ में सन्नाटा पसर गया। तभी एक वरिष्ठ अधिकारी आगे बढ़ा और जोर से बोला,
“सुनो सब लोग, यह साधारण दिखने वाले शख्स कोई आम आदमी नहीं है। यह है विलियम एच कार्टर—पूर्व कैबिनेट मंत्री और राष्ट्रपति के विशेष सलाहकार। इनकी एक कॉल से पूरे देश का भविष्य बदल सकता है।”

गूंज पूरे प्लेटफार्म पर फैल गई। यात्रियों की सांसें थम गईं। कुछ लोग जो हंस रहे थे, अब जमीन की ओर देखने लगे। जो लोग वीडियो बना रहे थे, उनके हाथ कांप गए। और वह कंडक्टर, उसके घुटने वहीं कांपते हुए जवाब देने लगे। वो हाथ जोड़कर रोते हुए बोला,
“सर, मुझे माफ कर दीजिए। मैंने आपको नहीं पहचाना।”

बुजुर्ग आदमी ने उसकी ओर देखा। उसकी आंखें गीली थीं, लेकिन आवाज स्थिर,
“गलती पहचान की नहीं थी। गलती इंसानियत की थी।”

स्टेशन पर जैसे तूफान उतर आया था। कुछ देर पहले तक जहां हंसी और ताने गूंज रहे थे, अब वहां कैमरों की फ्लैश लाइटें चमकने लगीं। टीवी चैनलों के रिपोर्टर भागते हुए पहुंचे। माइक्रोफोन बुजुर्ग आदमी के सामने बढ़ा दिए गए—
“सर, क्या यह सच है कि आपको ट्रेन से धक्का देकर निकाला गया? कंडक्टर ने आपके साथ बदसलूकी क्यों की? क्या आप इस घटना पर सरकार से कार्रवाई की मांग करेंगे?”

बुजुर्ग आदमी विलियम एच कार्टर एक गहरी सांस लेकर चुप खड़ा रहा। उस