बुजुर्ग नौकरी मांगने गया… रिसेप्शन पर बैठे लड़के ने कहा – बूढ़ों के लिए जगह नहीं! फिर
“संस्थापक की वापसी”
सुबह का समय, मुंबई के आलीशान कॉर्पोरेट टावर में रोज़ की तरह रौनक थी।
स्टाफ अपने-अपने काम में व्यस्त था। कॉफी मशीनें गर्म हो रही थीं, मीटिंग रूम्स की बुकिंग्स चल रही थीं। इसी तेज़ रफ्तार माहौल में एक बेहद साधारण लेकिन गरिमामय व्यक्ति ने प्रवेश किया। उम्र करीब 75, चेहरे पर झुर्रियाँ, पर आँखों में एक अजीब चमक। पहनावे में हल्की सलवटों वाली सफेद शर्ट, ढीली सी पतलून और पैरों में घिसे हुए जूते। हाथों में एक पुरानी सी फाइल थी, जिसे उन्होंने अपनी छाती से ऐसा चिपका रखा था जैसे उसमें उनका आत्मसम्मान बंद हो।
वो धीरे-धीरे रिसेप्शन डेस्क तक पहुँचे। सामने बैठा था एक युवा रिसेप्शनिस्ट – चमकदार सूट, हेयर जेल, और हाथ में लेटेस्ट स्मार्टफोन। बुजुर्ग ने धीमे स्वर में कहा,
“बेटा, मैं इस कंपनी में नौकरी के लिए आवेदन देना चाहता हूँ। यह मेरी फाइल है।”
युवक ने एक नजर ऊपर से नीचे तक देखा। सफेद बाल, थकी चाल और घिसा पहनावा। फिर वह जोर से हँस पड़ा,
“सर, लगता है आप रास्ता भटक गए हैं। यह कोई वृद्धाश्रम नहीं है। यह ग्लोबल फर्म है। हम टेक्नोलॉजी में काम करते हैं, रिटायरमेंट नहीं।”
पास खड़े दो अन्य कर्मचारी भी मुस्कुरा दिए। किसी ने फुसफुसाया,
“कहीं से बाहर निकल आए होंगे। नौकरी क्या, खुद को ही भूल चुके हैं शायद।”
बुजुर्ग ने कोई जवाब नहीं दिया। उनके होठ हिले जरूर, लेकिन शब्द बाहर नहीं आए। बस उन्होंने वह फाइल थोड़ा और सीने से कस ली, जैसे किसी ने सीधा दिल पर वार कर दिया हो। उन्होंने धीमे कदमों से मुड़ना शुरू किया, अपमान को चेहरे पर नहीं, पीठ पर लेकर।
लेकिन तभी—
ऊपर से आई आवाज, “रुको!”
कंपनी के ऊपरी फ्लोर से सीढ़ियों की ओर भागते हुए एक सीनियर एग्जीक्यूटिव नीचे आ रहा था। सूट पहने, पसीने से लथपथ, लेकिन उसकी आँखों में घबराहट थी।
“सर, प्लीज रुकिए। आपने बताया क्यों नहीं कि आप आ रहे हैं?”
पूरा रिसेप्शन हॉल ठहर गया। रिसेप्शनिस्ट और स्टाफ सन। अब कोई हँसी नहीं थी, बस एक बेचैनी जैसे किसी ने वक्त का आईना सामने रख दिया हो।
सीनियर एग्जीक्यूटिव ने उस बुजुर्ग के पास जाकर हाथ जोड़ दिए,
“आपका नाम ही तो इस कंपनी की नींव है, सर। हम सब जो कर रहे हैं, वह आपके बनाए हुए रास्तों पर ही तो चल रहे हैं।”
बुजुर्ग ने अब पहली बार हल्की सी मुस्कान दी। वो मुस्कान जिसमें तंज नहीं, सिर्फ थका हुआ सच्चाई का भाव था।
पर अभी तक किसी को पूरा सच नहीं पता था। कहानी बस अब शुरू होने वाली थी।
सच का खुलासा
रिसेप्शन एरिया अब युद्ध क्षेत्र जैसा लग रहा था, जहाँ शब्दों से नहीं, नजरों की चुप्पी से लड़ाई चल रही थी।
जिस बुजुर्ग को अभी कुछ मिनट पहले रिटायरमेंट केस कहकर हँसाया गया था, उसे अब कंपनी का सीनियर डायरेक्टर दोनों हाथ जोड़कर झुककर संबोधित कर रहा था।
सभी के चेहरे पर एक ही सवाल था –
“यह कौन है?”
फिर जैसे सन्नाटे में बिजली गिरी हो।
डायरेक्टर ने कहा,
“यह हैं श्रीमान देवकी नंदन वर्मा। इस कंपनी के मूल संस्थापक, जिन्होंने अपनी मेहनत से इस इमारत की नींव डाली थी। जिनका विज़न था कि भारत का नाम ग्लोबल स्टेज पर चमके। और आज इन्हें हमसे नौकरी मांगनी पड़ी।”
पूरा ऑफिस सन्नाटा। रिसेप्शनिस्ट के हाथ से फाइल गिर चुकी थी। उसकी साँसे तेज हो गईं, मानो किसी ने उसके अंदर का घमंड एक झटके में तोड़ दिया हो।
किसी ने नहीं सोचा था कि जिस सादे इंसान को सबने अनदेखा किया, वह वही व्यक्ति है जिसकी तस्वीर आज भी कॉन्फ्रेंस हॉल की दीवार पर टंगी है – धूल से ढकी हुई मगर गौरवशाली।
संस्थापक का दर्द
“लेकिन सर, आप बताकर क्यों नहीं आए?”
डायरेक्टर ने पूछा। आँखों में शर्म और पछतावे का तूफान था।
देवकी नंदन जी ने लंबी साँस ली,
“मैं देखने आया था कि जिस सपने को मैं छोड़कर गया, वह अब कैसा दिखता है।
क्या इसमें अब भी वही गर्माहट है?
क्या इसमें अब भी इंसानियत बची है या सिर्फ पॉलिश प्रोफाइल और पर्दे?”
रिसेप्शनिस्ट अब आगे बढ़ा, उसकी आँखें डबडबा चुकी थीं,
“सर, मुझे माफ कर दीजिए। मैं… मैं नहीं जानता था…”
देवकी नंदन जी ने उसे देखा और बहुत धीमे स्वर में कहा,
“जानना जरूरी नहीं था बेटा, समझना जरूरी था।
हर बड़ा दिखने वाला आदमी जरूरी नहीं कि बड़ा हो, और हर साधारण दिखने वाला आदमी छोटा नहीं होता।”
इतने में कंपनी के अन्य बोर्ड मेंबर भी नीचे आ गए।
किसी ने देवकी नंदन जी के पैर छुए, किसी ने चुपचाप सर झुकाया।
और उसी भीड़ के बीच वह फाइल अब भी पड़ी थी, जिसमें कोई रिज्यूमे नहीं था, बल्कि एक चिट्ठी थी – देवकी नंदन जी की लिखी हुई।
चिट्ठी का संदेश
उसमें बस कुछ लाइनें थीं –
“अगर इस कंपनी की नींव में अब भी संवेदना बाकी है, तो मैं लौटने को तैयार हूँ।
लेकिन अगर यहाँ अब सिर्फ दिखावा बचा है, तो मैं वहीं अच्छा हूँ जहाँ शांति है, पर दिखावा नहीं।”
अब सबकी आँखों में नम चमक थी।
कंपनी के सीईओ तक को नीचे बुला लिया गया।
उन्होंने देवकी नंदन जी को गले लगाया और कहा,
“सर, आज आपने हमें आईना दिखा दिया।
हम कंपनी चला रहे थे, पर आत्मा खो चुके थे।
कृपया वापस आइए, इस बार बतौर संस्थापक नहीं, बतौर संस्कृति।”
देवकी नंदन जी ने कोई जवाब नहीं दिया।
उन्होंने बस अपनी फाइल उठाई, फिर रिसेप्शनिस्ट की तरफ देखा और बोले,
“तुम्हें नहीं हटाया जाना चाहिए, तुम्हें पढ़ाया जाना चाहिए।
हम गलती से नहीं, सीख से बदलते हैं।”
यही वाक्य बना अगले हफ्ते की कंपनी की ट्रेनिंग पॉलिसी का मुख्य संदेश।
कंपनी का बदलाव
एक हफ्ता बाद कंपनी के माहौल में एक अलग सी शांति थी।
लेकिन वह शांति खालीपन की नहीं, बल्कि जागने की थी।
वह रिसेप्शनिस्ट – जिसकी हँसी कभी पूरे लॉबी में गूंजती थी – अब सबसे पहले आता और सबसे आखिर में जाता।
उसने अब किताबें पढ़नी शुरू की थीं – “इंडियन स्टार एप्स,” “विजन बाइंड मोनी फाउंडर्स,” “चेंज्ड कल्चर,” और सबसे ऊपर – “द मैन बिहाइंड आवर कंपनी – डी एन वर्मा,” जो कभी ऑफिस की लाइब्रेरी में धूल खा रही थी।
इधर कंपनी के एचआर डिपार्टमेंट में भी बदलाव शुरू हो चुका था।
एक नई ट्रेनिंग मॉड्यूल लॉन्च हुई थी – “एम्पथी बिफोर एफिशिएंसी,” जिसमें पहले दिन की स्लाइड पर लिखा था –
“संस्थापक वह नहीं होता जो केवल दस्तखत करता है, वह होता है जो दीवारों से पहले रिश्ते बनाता है।”
स्लाइड के नीचे एक पुरानी तस्वीर थी –
देवकी नंदन जी मिट्टी से सने हाथों में ईंट उठाए, पहले ऑफिस की नींव डालते हुए।
संस्कृति की पुनर्स्थापना
कंपनी की डायरेक्टर मीटिंग हो रही थी।
सीईओ ने सभी से कहा,
“अब वक्त आ गया है कि हम सिर्फ कंपनी ना चलाएँ, संस्कार भी बनाएँ।
जो घटना रिसेप्शन पर घटी, वह सिर्फ एक भूल नहीं थी, वह हमारी सोच की परीक्षा थी। और हम लगभग असफल हो गए।”
एक सीनियर मेंबर बोला,
“सर, क्या हम देवकी नंदन जी को बोर्ड में वापस ला सकते हैं?”
सीईओ ने हल्की मुस्कान दी,
“वह कभी गए ही नहीं थे। हमने उन्हें भुला दिया था, अब याद करना शुरू किया है।”
उसी दिन कंपनी के मुख्य हॉल में एक विशेष कार्यक्रम रखा गया।
बैनर पर लिखा था –
“Welcome Back, The Soul of Our Company.”
देवकी नंदन जी मंच पर बुलाए गए।
लोगों ने खड़े होकर तालियाँ बजाई, पर उसमें शोर नहीं, श्रद्धा थी।
उन्होंने माइक लिया, पर कुछ पल चुप रहे।
फिर बोले,
“मैं यहाँ लौटकर खुश नहीं हूँ। मैं लौटकर चिंतित हूँ, क्योंकि जब एक कंपनी की दीवारें शीशे से होती हैं, तो वह सिर्फ पारदर्शिता नहीं, कभी-कभी दूसरों को गिरता हुआ भी दिखाती हैं।”
सन्नाटा छा गया।
फिर उन्होंने जेब से वही पुरानी चिट्ठी निकाली, जो फाइल में थी।
“यह चिट्ठी मैं एक कर्मचारी की तरह लाया था। लेकिन आज इसे एक शिक्षक की तरह पढ़ रहा हूँ।
अगर आप सीख गए हैं कि जिंदगी का अनुभव नए आइडिया से पुराना नहीं होता, तो मैं यहाँ रहने को तैयार हूँ।”
नई शुरुआत
कार्यक्रम के अंत में कंपनी ने एक बड़ा फैसला लिया –
हर नए कर्मचारी को नियुक्ति से पहले “संस्थापक सत्र” में भाग लेना होगा।
जहाँ वह खुद देवकी नंदन जी से मिलेंगे और उनसे एक सवाल पूछेंगे –
“आप जब गए थे, तो लौटे क्यों?”
और जवाब हर बार एक ही होगा –
“क्योंकि नींव की आवाज छत से सुनाई नहीं देती, पर जब वह डगमगाती है तो सब कुछ हिलता है।”
उसी रिसेप्शन एरिया में अब एक नई तस्वीर लगी है –
देवकी नंदन जी की बुजुर्ग सादा कपड़े, फाइल सीने से लगाए हुए।
संस्थापक सिर्फ कंपनी नहीं बनाते, वह संस्कृति छोड़ जाते हैं।
और संस्कृति तब बनती है जब लोग पद नहीं, मूल्यों को पहचानें।
इज्जत उम्र से नहीं मिलती, वह मिलती है उस नींव से जो कोई चुपचाप बना जाता है –
जब दुनिया उसे देख भी नहीं रही होती।
सीख:
कभी किसी को उसके पहनावे, उम्र या पद से मत आँको।
असली मूल्य और संस्कृति वह होती है, जो दिखावे से नहीं, संवेदना और सम्मान से बनती है।
संस्थापक सिर्फ नाम नहीं, आत्मा होते हैं – और जब आत्मा लौटती है, तब कंपनी सच में जागती है।
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बुजुर्ग नौकरी मांगने गया… रिसेप्शन पर बैठे लड़के ने कहा – बूढ़ों के लिए जगह नहीं! फिर
“संस्थापक की वापसी”
सुबह का समय, मुंबई के आलीशान कॉर्पोरेट टावर में रोज़ की तरह रौनक थी।
स्टाफ अपने-अपने काम में व्यस्त था। कॉफी मशीनें गर्म हो रही थीं, मीटिंग रूम्स की बुकिंग्स चल रही थीं। इसी तेज़ रफ्तार माहौल में एक बेहद साधारण लेकिन गरिमामय व्यक्ति ने प्रवेश किया। उम्र करीब 75, चेहरे पर झुर्रियाँ, पर आँखों में एक अजीब चमक। पहनावे में हल्की सलवटों वाली सफेद शर्ट, ढीली सी पतलून और पैरों में घिसे हुए जूते। हाथों में एक पुरानी सी फाइल थी, जिसे उन्होंने अपनी छाती से ऐसा चिपका रखा था जैसे उसमें उनका आत्मसम्मान बंद हो।
वो धीरे-धीरे रिसेप्शन डेस्क तक पहुँचे। सामने बैठा था एक युवा रिसेप्शनिस्ट – चमकदार सूट, हेयर जेल, और हाथ में लेटेस्ट स्मार्टफोन। बुजुर्ग ने धीमे स्वर में कहा,
“बेटा, मैं इस कंपनी में नौकरी के लिए आवेदन देना चाहता हूँ। यह मेरी फाइल है।”
युवक ने एक नजर ऊपर से नीचे तक देखा। सफेद बाल, थकी चाल और घिसा पहनावा। फिर वह जोर से हँस पड़ा,
“सर, लगता है आप रास्ता भटक गए हैं। यह कोई वृद्धाश्रम नहीं है। यह ग्लोबल फर्म है। हम टेक्नोलॉजी में काम करते हैं, रिटायरमेंट नहीं।”
पास खड़े दो अन्य कर्मचारी भी मुस्कुरा दिए। किसी ने फुसफुसाया,
“कहीं से बाहर निकल आए होंगे। नौकरी क्या, खुद को ही भूल चुके हैं शायद।”
बुजुर्ग ने कोई जवाब नहीं दिया। उनके होठ हिले जरूर, लेकिन शब्द बाहर नहीं आए। बस उन्होंने वह फाइल थोड़ा और सीने से कस ली, जैसे किसी ने सीधा दिल पर वार कर दिया हो। उन्होंने धीमे कदमों से मुड़ना शुरू किया, अपमान को चेहरे पर नहीं, पीठ पर लेकर।
लेकिन तभी—
ऊपर से आई आवाज, “रुको!”
कंपनी के ऊपरी फ्लोर से सीढ़ियों की ओर भागते हुए एक सीनियर एग्जीक्यूटिव नीचे आ रहा था। सूट पहने, पसीने से लथपथ, लेकिन उसकी आँखों में घबराहट थी।
“सर, प्लीज रुकिए। आपने बताया क्यों नहीं कि आप आ रहे हैं?”
पूरा रिसेप्शन हॉल ठहर गया। रिसेप्शनिस्ट और स्टाफ सन। अब कोई हँसी नहीं थी, बस एक बेचैनी जैसे किसी ने वक्त का आईना सामने रख दिया हो।
सीनियर एग्जीक्यूटिव ने उस बुजुर्ग के पास जाकर हाथ जोड़ दिए,
“आपका नाम ही तो इस कंपनी की नींव है, सर। हम सब जो कर रहे हैं, वह आपके बनाए हुए रास्तों पर ही तो चल रहे हैं।”
बुजुर्ग ने अब पहली बार हल्की सी मुस्कान दी। वो मुस्कान जिसमें तंज नहीं, सिर्फ थका हुआ सच्चाई का भाव था।
पर अभी तक किसी को पूरा सच नहीं पता था। कहानी बस अब शुरू होने वाली थी।
सच का खुलासा
रिसेप्शन एरिया अब युद्ध क्षेत्र जैसा लग रहा था, जहाँ शब्दों से नहीं, नजरों की चुप्पी से लड़ाई चल रही थी।
जिस बुजुर्ग को अभी कुछ मिनट पहले रिटायरमेंट केस कहकर हँसाया गया था, उसे अब कंपनी का सीनियर डायरेक्टर दोनों हाथ जोड़कर झुककर संबोधित कर रहा था।
सभी के चेहरे पर एक ही सवाल था –
“यह कौन है?”
फिर जैसे सन्नाटे में बिजली गिरी हो।
डायरेक्टर ने कहा,
“यह हैं श्रीमान देवकी नंदन वर्मा। इस कंपनी के मूल संस्थापक, जिन्होंने अपनी मेहनत से इस इमारत की नींव डाली थी। जिनका विज़न था कि भारत का नाम ग्लोबल स्टेज पर चमके। और आज इन्हें हमसे नौकरी मांगनी पड़ी।”
पूरा ऑफिस सन्नाटा। रिसेप्शनिस्ट के हाथ से फाइल गिर चुकी थी। उसकी साँसे तेज हो गईं, मानो किसी ने उसके अंदर का घमंड एक झटके में तोड़ दिया हो।
किसी ने नहीं सोचा था कि जिस सादे इंसान को सबने अनदेखा किया, वह वही व्यक्ति है जिसकी तस्वीर आज भी कॉन्फ्रेंस हॉल की दीवार पर टंगी है – धूल से ढकी हुई मगर गौरवशाली।
संस्थापक का दर्द
“लेकिन सर, आप बताकर क्यों नहीं आए?”
डायरेक्टर ने पूछा। आँखों में शर्म और पछतावे का तूफान था।
देवकी नंदन जी ने लंबी साँस ली,
“मैं देखने आया था कि जिस सपने को मैं छोड़कर गया, वह अब कैसा दिखता है।
क्या इसमें अब भी वही गर्माहट है?
क्या इसमें अब भी इंसानियत बची है या सिर्फ पॉलिश प्रोफाइल और पर्दे?”
रिसेप्शनिस्ट अब आगे बढ़ा, उसकी आँखें डबडबा चुकी थीं,
“सर, मुझे माफ कर दीजिए। मैं… मैं नहीं जानता था…”
देवकी नंदन जी ने उसे देखा और बहुत धीमे स्वर में कहा,
“जानना जरूरी नहीं था बेटा, समझना जरूरी था।
हर बड़ा दिखने वाला आदमी जरूरी नहीं कि बड़ा हो, और हर साधारण दिखने वाला आदमी छोटा नहीं होता।”
इतने में कंपनी के अन्य बोर्ड मेंबर भी नीचे आ गए।
किसी ने देवकी नंदन जी के पैर छुए, किसी ने चुपचाप सर झुकाया।
और उसी भीड़ के बीच वह फाइल अब भी पड़ी थी, जिसमें कोई रिज्यूमे नहीं था, बल्कि एक चिट्ठी थी – देवकी नंदन जी की लिखी हुई।
चिट्ठी का संदेश
उसमें बस कुछ लाइनें थीं –
“अगर इस कंपनी की नींव में अब भी संवेदना बाकी है, तो मैं लौटने को तैयार हूँ।
लेकिन अगर यहाँ अब सिर्फ दिखावा बचा है, तो मैं वहीं अच्छा हूँ जहाँ शांति है, पर दिखावा नहीं।”
अब सबकी आँखों में नम चमक थी।
कंपनी के सीईओ तक को नीचे बुला लिया गया।
उन्होंने देवकी नंदन जी को गले लगाया और कहा,
“सर, आज आपने हमें आईना दिखा दिया।
हम कंपनी चला रहे थे, पर आत्मा खो चुके थे।
कृपया वापस आइए, इस बार बतौर संस्थापक नहीं, बतौर संस्कृति।”
देवकी नंदन जी ने कोई जवाब नहीं दिया।
उन्होंने बस अपनी फाइल उठाई, फिर रिसेप्शनिस्ट की तरफ देखा और बोले,
“तुम्हें नहीं हटाया जाना चाहिए, तुम्हें पढ़ाया जाना चाहिए।
हम गलती से नहीं, सीख से बदलते हैं।”
यही वाक्य बना अगले हफ्ते की कंपनी की ट्रेनिंग पॉलिसी का मुख्य संदेश।
कंपनी का बदलाव
एक हफ्ता बाद कंपनी के माहौल में एक अलग सी शांति थी।
लेकिन वह शांति खालीपन की नहीं, बल्कि जागने की थी।
वह रिसेप्शनिस्ट – जिसकी हँसी कभी पूरे लॉबी में गूंजती थी – अब सबसे पहले आता और सबसे आखिर में जाता।
उसने अब किताबें पढ़नी शुरू की थीं – “इंडियन स्टार एप्स,” “विजन बाइंड मोनी फाउंडर्स,” “चेंज्ड कल्चर,” और सबसे ऊपर – “द मैन बिहाइंड आवर कंपनी – डी एन वर्मा,” जो कभी ऑफिस की लाइब्रेरी में धूल खा रही थी।
इधर कंपनी के एचआर डिपार्टमेंट में भी बदलाव शुरू हो चुका था।
एक नई ट्रेनिंग मॉड्यूल लॉन्च हुई थी – “एम्पथी बिफोर एफिशिएंसी,” जिसमें पहले दिन की स्लाइड पर लिखा था –
“संस्थापक वह नहीं होता जो केवल दस्तखत करता है, वह होता है जो दीवारों से पहले रिश्ते बनाता है।”
स्लाइड के नीचे एक पुरानी तस्वीर थी –
देवकी नंदन जी मिट्टी से सने हाथों में ईंट उठाए, पहले ऑफिस की नींव डालते हुए।
संस्कृति की पुनर्स्थापना
कंपनी की डायरेक्टर मीटिंग हो रही थी।
सीईओ ने सभी से कहा,
“अब वक्त आ गया है कि हम सिर्फ कंपनी ना चलाएँ, संस्कार भी बनाएँ।
जो घटना रिसेप्शन पर घटी, वह सिर्फ एक भूल नहीं थी, वह हमारी सोच की परीक्षा थी। और हम लगभग असफल हो गए।”
एक सीनियर मेंबर बोला,
“सर, क्या हम देवकी नंदन जी को बोर्ड में वापस ला सकते हैं?”
सीईओ ने हल्की मुस्कान दी,
“वह कभी गए ही नहीं थे। हमने उन्हें भुला दिया था, अब याद करना शुरू किया है।”
उसी दिन कंपनी के मुख्य हॉल में एक विशेष कार्यक्रम रखा गया।
बैनर पर लिखा था –
“Welcome Back, The Soul of Our Company.”
देवकी नंदन जी मंच पर बुलाए गए।
लोगों ने खड़े होकर तालियाँ बजाई, पर उसमें शोर नहीं, श्रद्धा थी।
उन्होंने माइक लिया, पर कुछ पल चुप रहे।
फिर बोले,
“मैं यहाँ लौटकर खुश नहीं हूँ। मैं लौटकर चिंतित हूँ, क्योंकि जब एक कंपनी की दीवारें शीशे से होती हैं, तो वह सिर्फ पारदर्शिता नहीं, कभी-कभी दूसरों को गिरता हुआ भी दिखाती हैं।”
सन्नाटा छा गया।
फिर उन्होंने जेब से वही पुरानी चिट्ठी निकाली, जो फाइल में थी।
“यह चिट्ठी मैं एक कर्मचारी की तरह लाया था। लेकिन आज इसे एक शिक्षक की तरह पढ़ रहा हूँ।
अगर आप सीख गए हैं कि जिंदगी का अनुभव नए आइडिया से पुराना नहीं होता, तो मैं यहाँ रहने को तैयार हूँ।”
नई शुरुआत
कार्यक्रम के अंत में कंपनी ने एक बड़ा फैसला लिया –
हर नए कर्मचारी को नियुक्ति से पहले “संस्थापक सत्र” में भाग लेना होगा।
जहाँ वह खुद देवकी नंदन जी से मिलेंगे और उनसे एक सवाल पूछेंगे –
“आप जब गए थे, तो लौटे क्यों?”
और जवाब हर बार एक ही होगा –
“क्योंकि नींव की आवाज छत से सुनाई नहीं देती, पर जब वह डगमगाती है तो सब कुछ हिलता है।”
उसी रिसेप्शन एरिया में अब एक नई तस्वीर लगी है –
देवकी नंदन जी की बुजुर्ग सादा कपड़े, फाइल सीने से लगाए हुए।
संस्थापक सिर्फ कंपनी नहीं बनाते, वह संस्कृति छोड़ जाते हैं।
और संस्कृति तब बनती है जब लोग पद नहीं, मूल्यों को पहचानें।
इज्जत उम्र से नहीं मिलती, वह मिलती है उस नींव से जो कोई चुपचाप बना जाता है –
जब दुनिया उसे देख भी नहीं रही होती।
सीख:
कभी किसी को उसके पहनावे, उम्र या पद से मत आँको।
असली मूल्य और संस्कृति वह होती है, जो दिखावे से नहीं, संवेदना और सम्मान से बनती है।
संस्थापक सिर्फ नाम नहीं, आत्मा होते हैं – और जब आत्मा लौटती है, तब कंपनी सच में जागती है।
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