आखिर क्यों Asrani के अंतिम संस्कार में सिर्फ 20 लोग पहुँचे | Govardhan Asrani Passes Away
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आखिर क्यों असरानी के अंतिम संस्कार में सिर्फ 20 लोग पहुँचे?
गोवर्धन असरानी के जीवन, निधन और मौन विदाई की पूरी कहानी
भारतीय सिनेमा के स्वर्ण युग में जब कॉमेडी और अभिनय का मतलब सिर्फ हँसाना नहीं बल्कि लोगों के दिलों को छूना था, उस समय एक ऐसा नाम उभरा जिसने अपनी अलग छाप छोड़ी — गोवर्धन असरानी। जिनकी मुस्कुराती आँखें, निराली कॉमिक टाइमिंग और सहज अभिनय ने करोड़ों दर्शकों को अपना दीवाना बना दिया। लेकिन जब यह महान कलाकार दुनिया को अलविदा कह गया, तो उनके अंतिम संस्कार में सिर्फ कुछ गिने-चुने लोग ही मौजूद थे। आखिर ऐसा क्यों हुआ कि सिनेमा के इस दिग्गज को विदा करने के लिए भीड़ नहीं, सन्नाटा था? यही सवाल हर किसी के मन में उठता है — और यही इस लेख का केंद्र है।
असरानी का जीवन — हँसी से भरा सफ़र
गोवर्धन असरानी का जन्म 1 जनवरी 1941 को राजस्थान की गुलाबी नगरी जयपुर में हुआ था। बचपन से ही उन्हें नाटक और अभिनय में गहरी रुचि थी। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने पुणे के फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (FTII) से अभिनय की औपचारिक शिक्षा ली। उनके अंदर एक अभिनेता बनने की चाह थी, लेकिन उनकी राह आसान नहीं थी।
1960 के दशक में उन्होंने मुंबई का रुख किया, जब हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में पहले से कई दिग्गज अभिनेता मौजूद थे। संघर्ष के वर्षों में असरानी ने छोटे-छोटे किरदार निभाए — कोई सहायक भूमिका, कोई दोस्त, कभी हास्य अभिनेता। लेकिन उनकी मेहनत रंग लाई। धीरे-धीरे दर्शकों ने उन्हें नोटिस करना शुरू किया।
1970 के दशक में उनका करियर उफान पर पहुंचा। फिल्म “शोले” (1975) में “अंग्रेज़ों के ज़माने के जेलर” का किरदार तो उनकी पहचान बन गया। “हम तो ईमानदार हैं जी!” जैसे संवाद आज भी लोगों की ज़ुबान पर हैं। उनके हाव-भाव और आवाज़ में ऐसी कॉमिक टाइमिंग थी जो केवल जन्मजात कलाकार में होती है।
इसके अलावा उन्होंने अंदाज़ अपना अपना, चुपके-चुपके, अब तुम ही कहो, चलती का नाम गाड़ी, दीवाना मस्ताना, और हेरा फेरी जैसी सैकड़ों फिल्मों में काम किया। उनकी कॉमिक उपस्थिति ने हर फिल्म को हल्का-फुल्का और मनोरंजक बना दिया। असरानी उन चंद कलाकारों में से थे जिन्होंने हीरो, विलन और कॉमेडियन — तीनों रूपों को समान सहजता से निभाया।

पर्दे के बाहर का असरानी — सादगी और आत्मसम्मान का प्रतीक
जहाँ फिल्मी पर्दे पर असरानी बेहद चंचल, मज़ाकिया और ऊर्जा से भरे रहते थे, वहीं असल जीवन में वे बहुत ही सादे, शांत और विनम्र स्वभाव के व्यक्ति थे। उन्हें शोहरत पसंद थी, पर दिखावा नहीं। उनका मानना था कि अभिनेता की असली पहचान उसके काम से होती है, न कि उसकी पार्टी या प्रचार से।
उन्हें लोगों के बीच रहना पसंद था, लेकिन भीड़ नहीं। वे हमेशा अपने परिवार — विशेषकर पत्नी मंजू असरानी — के बेहद करीब रहे। दोनों ने मिलकर अनेक नाटकों और फिल्मों में काम किया। असरानी हमेशा कहते थे कि “हँसी बाँटना सबसे बड़ा पुण्य है।” शायद यही कारण था कि अपने जीवन के अंत तक वे मंच से जुड़े रहे।
आखिरी पड़ाव — बीमारी और अचानक विदाई
84 वर्ष की आयु में असरानी के स्वास्थ्य में गिरावट आने लगी थी। उम्र के कारण फेफड़ों से संबंधित समस्या बढ़ रही थी। कुछ समय से वे सांस लेने में कठिनाई महसूस कर रहे थे। परिवार ने उन्हें मुंबई के एक अस्पताल में भर्ती कराया, जहाँ डॉक्टरों ने बताया कि उनके फेफड़ों में पानी जमा हो गया है।
कुछ दिनों की चिकित्सा के बाद वे थोड़े बेहतर महसूस करने लगे। उन्होंने अपने सोशल मीडिया हैंडल पर दिवाली की शुभकामनाएँ भी साझा कीं — “हँसी और रोशनी से भरपूर रहें आपके जीवन के हर पल।” पर नियति को कुछ और मंज़ूर था। दिवाली की रात ही उनका निधन हो गया।
यह ख़बर सुनते ही सिनेमा जगत में शोक की लहर दौड़ गई। उनके प्रशंसक, सह-अभिनेता और फिल्मी दुनिया के लोग स्तब्ध रह गए। लेकिन सबसे हैरान करने वाली बात यह रही कि उनके अंतिम संस्कार में न मीडिया पहुँची, न बड़ी हस्तियाँ। सिर्फ करीब बीस लोगों की मौजूदगी में उनकी अंतिम विदाई हुई।
आखिर क्यों सिर्फ 20 लोग पहुँचे असरानी के अंतिम संस्कार में?
यह प्रश्न हर किसी के मन में आया। क्या यह सिनेमा जगत की संवेदनहीनता थी? क्या लोगों ने उन्हें भुला दिया था? या फिर कोई और वजह थी?
वास्तविकता यह थी कि यह असरानी की अपनी इच्छा थी। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दिनों में अपनी पत्नी मंजू असरानी और मैनेजर से स्पष्ट कहा था कि वे अपने निधन को “शांत और निजी” रखना चाहते हैं। उन्होंने कहा था कि “जब मैं चला जाऊँ, तो किसी को परेशान मत करना, किसी को बुलाना मत।”
यह सुनकर परिवार ने उनकी इच्छा का सम्मान किया। इसलिए जब वे दिवंगत हुए, तो खबर तुरंत सार्वजनिक नहीं की गई। पहले परिवार और कुछ नज़दीकी मित्रों को सूचित किया गया। उनके अंतिम संस्कार की प्रक्रिया सांताक्रूज़ के श्मशान घाट में पूरी की गई — बिना किसी मीडिया कवरेज, बिना फोटोग्राफर, और बिना शोरगुल के।
कहा जाता है कि वहाँ सिर्फ उनकी पत्नी, बेटा, मैनेजर और कुछ करीबी रिश्तेदार मौजूद थे। कुल मिलाकर बीस से भी कम लोग। कोई तामझाम नहीं, कोई बैनर नहीं, बस कुछ फूल, एक दीपक और शांति।
असरानी ने गोपनीयता क्यों चुनी?
यह निर्णय गहराई में समझने योग्य है। असरानी हमेशा से भीड़भाड़ और दिखावे से दूर रहे। उन्होंने कई बार कहा था कि आजकल अंतिम संस्कार भी एक “इवेंट” की तरह बन गया है, जहाँ कैमरे ज्यादा होते हैं, भावनाएँ कम। शायद वे नहीं चाहते थे कि उनके जाने के बाद उनका चेहरा किसी अख़बार की हेडलाइन या वायरल क्लिप बने।
वे मानते थे कि इंसान की विदाई उतनी ही सच्ची होती है जितनी सादगी से दी जाए। यही कारण था कि उन्होंने पहले से अपनी इच्छा ज़ाहिर कर दी थी। उनके परिवार ने उस इच्छा को पूरा सम्मान दिया।
इसके पीछे एक और भावनात्मक कारण था — वे नहीं चाहते थे कि दिवाली जैसी खुशियों के दिन उनके प्रशंसक या मित्र दुख में डूब जाएँ। इसलिए परिवार ने अंतिम संस्कार भी उसी दिन शांतिपूर्वक कर दिया, ताकि किसी को परेशान न किया जाए।
बॉलीवुड की प्रतिक्रिया — मौन श्रद्धांजलि
हालाँकि असरानी का अंतिम संस्कार निजी रहा, पर उनके प्रति श्रद्धा और सम्मान की लहर पूरे देश में फैल गई। सोशल मीडिया पर तमाम कलाकारों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी।
अक्षय कुमार ने लिखा — “असरानी जी, आप जैसे कलाकार शायद सदियों में एक बार पैदा होते हैं। आपकी कॉमिक टाइमिंग और दिल की सादगी हमेशा याद रहेगी।”
अमिताभ बच्चन ने भी ब्लॉग में लिखा कि “असरानी एक ऐसे अभिनेता थे जिनके बिना 70 और 80 के दशक की फिल्मों की कल्पना अधूरी है।”
दर्शकों ने भी उनके संवाद, तस्वीरें और वीडियो साझा करके उन्हें याद किया।
भले ही उनके अंतिम संस्कार में सिर्फ बीस लोग मौजूद थे, लेकिन उनके चाहने वालों की संख्या करोड़ों में थी।
असरानी की कला — सिर्फ हँसी नहीं, जीवन का दर्शन
असरानी के अभिनय की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वे सिर्फ हँसाते नहीं थे, बल्कि सोचने पर मजबूर करते थे। उनके किरदारों में एक मानवीय गहराई होती थी। वे साधारण व्यक्ति के संघर्ष, उसकी बेबसी और उसकी छोटी-छोटी खुशियों को बड़े सहज ढंग से दिखाते थे।
उनके संवाद हमेशा जीवन से जुड़े रहते थे — “मुस्कान बाँटने से कोई गरीब नहीं होता”, “हँसी दिल से निकले तो आँसू भी मोती बन जाते हैं” — यह उनके पसंदीदा कथन थे।
उनके अभिनय में न ओवरएक्टिंग थी, न बनावटीपन। शायद इसलिए हर उम्र का दर्शक उन्हें अपने जैसा महसूस करता था।
एक मौन संदेश — प्रसिद्धि के बाद सादगी का महत्व
असरानी का जाना सिर्फ एक अभिनेता की मौत नहीं थी, बल्कि यह हमें एक गहरा संदेश देकर गया। उन्होंने यह सिखाया कि प्रसिद्धि के बाद भी सादगी छोड़ी नहीं जानी चाहिए।
आज के दौर में जब अभिनेता अपने जन्मदिन तक को मीडिया इवेंट बना देते हैं, असरानी ने अपनी मृत्यु तक को “निजी” रखा। यह उनकी विनम्रता और आत्मसम्मान का सबसे बड़ा उदाहरण है।
उन्होंने यह दिखाया कि किसी की महानता का माप उसकी लोकप्रियता से नहीं, बल्कि उसके व्यक्तित्व की गहराई से होता है।
असरानी की विरासत
आज भी जब पुरानी फिल्मों के चैनल पर उनकी हँसी गूँजती है, तो दर्शकों के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। उनकी कॉमिक टाइमिंग आज के कलाकारों के लिए पाठशाला है।
कई युवा अभिनेता उन्हें “कॉमेडी का गुरु” मानते हैं।
असरानी ने फिल्म इंडस्ट्री में लगभग 300 से अधिक फिल्मों में काम किया — और हर फिल्म में कुछ न कुछ नया किया। उन्होंने कभी खुद को दोहराया नहीं। यही वजह है कि वे भारतीय सिनेमा में हास्य अभिनय के प्रतीक बन गए।
उनकी मुस्कान हमेशा जीवित रहेगी — फिल्मों में, संवादों में, और दर्शकों के दिलों में।
निष्कर्ष
गोवर्धन असरानी का जीवन एक अद्भुत कथा है — संघर्ष से सफलता तक, और प्रसिद्धि से सादगी तक। उनका अंतिम संस्कार भले ही छोटे स्तर पर हुआ हो, लेकिन उनकी स्मृति अमर रहेगी।
उनके अंतिम संस्कार में सिर्फ बीस लोग पहुँचे, क्योंकि उन्होंने खुद ऐसा चाहा। वे चाहते थे कि उनकी विदाई उतनी ही सरल हो जितना उनका जीवन था।
यह घटना हमें यह सिखाती है कि आदर किसी भीड़ में नहीं, भावनाओं में होता है।
असरानी ने हमें हँसना सिखाया, और अपनी अंतिम विदाई से यह सिखाया कि मौन में भी गरिमा होती है।
उनकी आत्मा को शांति मिले — और उनकी मुस्कान हमेशा हमारे दिलों में जिंदा रहे।
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