रेलवे स्टेशन पर मिला गुमशुदा बच्चा कुली ने 4 दिन में उसके घर पहुँचाया तो उन्होंने जो किया वो देखकर आ
पूरी कहानी: श्यामू कुली – इंसानियत का असली हीरो
प्रस्तावना
क्या इंसानियत का कोई बिल्ला होता है?
क्या किसी की पहचान उसकी लाल वर्दी और सिर पर रखे बोझ से होती है?
या उसके दिल में धड़कती नेकी से?
एक ऐसी दुनिया में, जहां हर कोई अपनी मंजिल की ओर भाग रहा है,
क्या कोई रुककर एक भटकी हुई मासूम सी जिंदगी का हाथ थाम सकता है?
यह कहानी है श्यामू की—एक ऐसे कुली की, जिसके कंधों पर सिर्फ यात्रियों का बोझ नहीं
बल्कि अपने गरीब परिवार की जिम्मेदारियों का पहाड़ था।
उसने एक दिन रेलवे स्टेशन की अंतहीन भीड़ में एक ऐसा खोया हुआ खजाना पाया
जो सोने-चांदी का नहीं, बल्कि एक मासूम बच्चे की डरी हुई आंखों का था।
उसने अपनी कमाई, अपना सुकून, अपनी रातों की नींद सब कुछ दांव पर लगाकर
उस बच्चे को उसकी दुनिया तक पहुंचाने की ठानी।
चार दिनों के अथक संघर्ष के बाद जब वह उस बच्चे को लेकर उसके अमीर मां-बाप के सामने पहुंचा,
तो उन्हें श्यामू को इनाम में कुछ ऐसा देना पड़ा जिसकी कल्पना श्यामू ने कभी सपने में भी नहीं की थी।
यह कहानी है एक साधारण कुली के असाधारण जज्बे की,
जो आपको विश्वास दिलाएगी कि नेकी का कर्ज जब किस्मत चुकाती है तो दुनिया देखती रह जाती है।
हावड़ा स्टेशन – एक अलग ही दुनिया
कोलकाता का हावड़ा स्टेशन—यह सिर्फ एक रेलवे स्टेशन नहीं,
बल्कि एक चलता-फिरता सांस लेता हुआ शहर था।
यहां हर पल हजारों कहानियां जन्म लेती थीं और भीड़ में खो जाती थीं।
ट्रेनों की सीटी, कुलियों की पुकार, फेरीवालों की आवाजें,
और लाखों यात्रियों का शोर—यह सब मिलकर एक ऐसा संगीत रचते थे
जो इस शहर की धड़कन था।
इसी धड़कन का एक छोटा सा, लगभग अनसुना सिर था—श्यामू।
बिल्ला नंबर 671।
40 साल का श्यामू पिछले 15 सालों से इसी स्टेशन पर कुली का काम कर रहा था।
उसकी लाल वर्दी पसीने और मेहनत से अपना असली रंग खो चुकी थी।
उसके चौड़े कंधे यात्रियों का भारी भरकम सामान उठाते-उठाते थोड़े झुक गए थे,
और उसके पैरों की बिवाई स्टेशन के प्लेटफार्मों की हर दरार की कहानी कहती थी।
पर उसके सांवले चेहरे पर एक ऐसी ईमानदारी और आंखों में एक ऐसी नरमी थी
जो इस भीड़ भरे कठोर स्टेशन पर कम ही देखने को मिलती थी।
श्यामू की दुनिया हावड़ा स्टेशन से शुरू होकर पास की एक झुग्गी बस्ती की
एक तंग सी खोली में खत्म हो जाती थी।
उस 10×10 की खोली में उसके साथ उसकी पत्नी राधा और उसकी 8 साल की बेटी मुनिया रहती थी।
राधा लोगों के घरों में चौका-बर्तन करके पति का हाथ बंटाती थी,
पर उसकी अपनी सेहत अक्सर खराब रहती थी।
मुनिया तीसरी कक्षा में पढ़ती थी और पढ़ने में बहुत तेज थी।
श्यामू का सपना था कि उसकी मुनिया पढ़-लिखकर अफसर बने
और उसे इस कुली की जिंदगी से छुटकारा मिल जाए।
वह दिन-रात मेहनत करता, एक ट्रेन से उतरकर दूसरी ट्रेन की ओर भागता,
ताकि मुनिया की स्कूल की फीस और राधा की दवाइयों के पैसे इकट्ठे हो सकें।
कहानी की शुरुआत – स्टेशन पर खोया खजाना
उस दिन भी एक आम सा दिन था।
गर्मी अपने चरम पर थी।
दिल्ली से आई पूर्वा एक्सप्रेस प्लेटफार्म नंबर 9 पर आकर रुकी थी।
प्लेटफार्म पर यात्रियों का सैलाब उमड़ पड़ा था।
श्यामू भी अपनी रोजी-रोटी की तलाश में उसी भीड़ का हिस्सा था।
इसी भीड़ में उसकी नजर एक छह-सात साल के बच्चे पर पड़ी।
उसने महंगे कपड़े पहने थे, पैरों में ब्रांडेड जूते थे,
और उसकी आंखों में ऐसी घबराहट थी जैसे कोई नन्हा पंछी तूफान में अपना घोंसला खो बैठा हो।
वह रो भी नहीं रहा था, बस बड़ी-बड़ी डरी हुई आंखों से हर आते-जाते चेहरे को देख रहा था।
शायद अपनी मां या पिता को ढूंढ़ रहा था।
उसके छोटे से कंधे पर एक नीला बैग टंगा था जिस पर स्पाइडरमैन बना हुआ था।
श्यामू को उसे देखकर अपनी बेटी मुनिया की याद आ गई।
उसका दिल पसीज गया।
वह अपना काम छोड़कर उस बच्चे के पास गया।
बहुत ही नरमी से झुककर पूछा,
“क्या हुआ बेटा? तुम्हारा नाम क्या है? तुम यहां अकेले क्यों बैठे हो?”
बच्चा डरकर पीछे की ओर खिसक गया।
“डरो नहीं बेटा, मैं तुम्हें मारूंगा नहीं। देखो, मैं भी एक पापा हूं।”
श्यामू ने अपनी जेब से मुनिया की एक छोटी सी तस्वीर निकालकर उसे दिखाई।
बच्चे ने तस्वीर को देखा, फिर श्यामू के चेहरे को।
शायद उसे श्यामू की आंखों में थोड़ी सच्चाई नजर आई।
उसने धीरे से कांपती आवाज में कहा, “मम्मा-पापा…”
“कहां हैं तुम्हारे मम्मा-पापा?”
“वो… वो ट्रेन में थे… फिर भीड़ में हाथ छूट गया।”
बच्चे की आंखों में आंसू भरने लगे थे।
श्यामू ने चारों तरफ नजर दौड़ाई।
ट्रेन अब तक खाली हो चुकी थी और ज्यादातर यात्री स्टेशन से बाहर निकल गए थे।
उसने बच्चे का हाथ पकड़ा।
“चलो, हम उन्हें ढूंढते हैं। तुम्हारा नाम क्या है?”
बच्चे ने सिसकते हुए कहा, “रोहन।”
श्यामू रोहन को लेकर प्लेटफार्म पर इधर-उधर घूमता रहा।
दूसरे कुलियों, चाय वालों, बुक स्टॉल वालों से पूछा
कि क्या किसी ने ऐसे बच्चे को अकेले देखा है या किसी को अपने बच्चे को ढूंढते हुए देखा है?
पर किसी को कुछ नहीं पता था।
इस स्टेशन पर हर रोज इतने लोग आते-जाते थे, कौन किसका हिसाब रखता?
घंटा भर बीत गया।
श्यामू को अब चिंता होने लगी थी।
उसने फैसला किया कि वह बच्चे को रेलवे पुलिस (जीआरपी) के पास ले जाएगा।
पुलिस चौकी – सिस्टम का असली चेहरा
वह रोहन को लेकर जीआरपी चौकी पहुंचा।
वहां हवलदार पांडे चाय में बिस्कुट डुबोकर खा रहा था।
श्यामू ने उसे पूरी बात बताई।
हवलदार पांडे ने आलस से सिर उठाया,
“अच्छा, तो एक और खो गया। ठीक है, इसे यहीं बिठा दे।
जब इसके मां-बाप रिपोर्ट लिखाने आएंगे तो ले जाएंगे।”
“पर साहब, यह बहुत डरा हुआ है। इसके मां-बाप शायद इसे ढूंढ रहे होंगे। हमें कुछ करना चाहिए।”
“अरे, हमें मत सिखा कि क्या करना है। यहां रोज 10 बच्चे खोते हैं और मिल जाते हैं।
तू अपना काम कर।”
चौकी के कोने में पहले से ही दो और बच्चे बैठे थे
जो शायद सुबह से अपने मां-बाप का इंतजार कर रहे थे।
चौकी का माहौल और हवलदार का रूखा व्यवहार देखकर श्यामू का दिल बैठ गया।
उसे लगा कि अगर उसने रोहन को यहां छोड़ दिया तो यह बच्चा डर के मारे ही मर जाएगा।
उसने एक फैसला किया—एक ऐसा फैसला जो उसकी इंसानियत ले रही थी, उसका दिमाग नहीं।
“नहीं साहब, मैं इसे यहां नहीं छोड़ सकता। मैं इसे अपने साथ ले जा रहा हूं।
मैं खुद इसके मां-बाप को ढूंढने की कोशिश करूंगा।
कल सुबह मैं फिर आऊंगा, अगर कोई खबर हो तो बताइएगा।”
हवलदार पांडे हंसा,
“अरे बड़ा आया हीरो! खुद के खाने के लाले पड़े हैं और चला है दूसरे का बच्चा पालने।
ले जा, जब मुसीबत गले पड़ेगी तो खुद ही वापस आएगा।”
श्यामू ने हवलदार की बातों पर ध्यान नहीं दिया।
उसने रोहन का हाथ पकड़ा और चौकी से बाहर आ गया।
झुग्गी का प्यार – एक रात की नई उम्मीद
अब शाम ढल रही थी।
श्यामू का आज का पूरा दिन बर्बाद हो चुका था।
उसने एक रुपया भी नहीं कमाया था।
उसकी जेब में बस गिने-चुने कुछ सिक्के थे।
उसे अपनी पत्नी और बेटी की चिंता हुई।
वह घर क्या जवाब देगा?
पर जब उसने रोहन के मासूम डरे चेहरे को देखा,
तो उसकी सारी चिंताएं गायब हो गईं।
उसने फैसला कर लिया—जब तक वह इस बच्चे को उसके मां-बाप से नहीं मिला देता,
तब तक यह उसकी जिम्मेदारी है।
यह उसके बिल्ले नंबर 671 की नहीं, उसकी इंसानियत की जिम्मेदारी है।
उस शाम जब श्यामू रोहन का हाथ पकड़े अपनी झुग्गी की तंग गली में घुसा,
तो मोहल्ले वाले हैरानी से देखने लगे।
“यह किसका बच्चा उठा लाया रे श्यामू?” किसी ने ताना मारा।
श्यामू ने किसी को कोई जवाब नहीं दिया और सीधा अपनी खोली में चला गया।
राधा, जो दिनभर से अपने पति का इंतजार कर रही थी,
दरवाजे पर एक अनजान बच्चे को देखकर चौंक गई।
“यह कौन है?” उसने घबराई आवाज में पूछा।
श्यामू ने उसे अंदर ले जाकर धीरे-धीरे पूरी बात बताई।
राधा का चेहरा चिंता से भर गया।
“यह तुमने क्या किया? हम खुद मुश्किल से गुजारा करते हैं, एक और पेट कहां से पालेंगे?
और अगर कल को पुलिस ने हम पर ही बच्चा चोरी का इल्जाम लगा दिया तो?”
“राधा, यह बच्चा बहुत छोटा है। मैं इसे उस पुलिस चौकी में अकेला नहीं छोड़ सकता था।
तुम इसकी आंखों में देखो, कितना डरा हुआ है।”
तभी मुनिया स्कूल से लौटी।
उसने रोहन को देखा और उत्सुकता से पूछा,
“बाबा, यह कौन है? क्या यह मेरा भाई है?”
श्यामू मुस्कुराया, “हां बेटी, कुछ दिनों के लिए यह तेरा भाई ही है।”
मुनिया खुशी से उछल पड़ी।
वह दौड़कर रोहन के पास गई और अपना खिलौना उसे दे दिया।
रोहन, जो अब तक सहमा हुआ था, मुनिया को देखकर पहली बार हल्का सा मुस्कुराया।
उस एक मुस्कान को देखकर राधा का दिल भी पिघल गया।
उसकी सारी चिंता, सारा डर काफूर हो गया।
उसके अंदर की मां जाग गई थी।
“ठीक है,” उसने गहरी सांस लेकर कहा,
“जब तक इसके मां-बाप नहीं मिल जाते, यह हमारे साथ ही रहेगा। यह भी हमारा ही बच्चा है।”
उस रात राधा ने अपनी बची-खुची सब्जी से रोटियां बनाई।
उसने पहला निवाला रोहन को खिलाया।
रोहन ने कई घंटों बाद कुछ खाया था।
वह भूखा था, पर शायद उससे भी ज्यादा प्यार का भूखा था।
खाना खाने के बाद वह मुनिया के साथ खेलते-खेलते वहीं दरी पर सो गया।
श्यामू और राधा उसे देखते रहे।
उस छोटी सी सीलन भरी खोली में उस रात गरीबी नहीं,
बल्कि इंसानियत की चादर बिछी हुई थी।
संघर्ष – उम्मीद की डोर
अगली सुबह एक नई चुनौती के साथ शुरू हुई।
श्यामू को काम पर जाना था, पर वह रोहन को अकेला नहीं छोड़ सकता था।
उसने फैसला किया कि वह रोहन को अपने साथ स्टेशन ले जाएगा, शायद कोई उसे पहचान ले।
राधा ने रोहन को नहलाया, मुनिया के कुछ साफ कपड़े पहनाए और श्यामू के साथ भेज दिया।
पूरा दिन श्यामू रोहन को अपने साथ लेकर स्टेशन पर घूमता रहा।
एक हाथ से वह यात्रियों का सामान उठाता, दूसरे हाथ से रोहन का हाथ पकड़े रहता।
हर आने-जाने वाली ट्रेन के यात्रियों को गौर से देखता,
हर उस चेहरे को पढ़ता जिसमें अपने खोए हुए बच्चे की तलाश हो।
उसने स्टेशन मास्टर से लेकर हर ईटी तक से बात की,
रोहन की तस्वीर दिखाई, पर कहीं से कोई उम्मीद की किरण नजर नहीं आई।
इस चक्कर में उसका काम भी ठीक से नहीं हो पाया,
दूसरे कुली उससे तेज काम कर रहे थे और वह पिछड़ रहा था।
दिन भर में उसने आम दिनों से आधी भी कमाई नहीं की।
शाम को जब वह थका-हारा घर लौटा, राधा ने पूछा, “कुछ पता चला?”
श्यामू ने ना में सिर हिला दिया।
राधा का चेहरा उतर गया।
उसने अपनी पुरानी तीन की संदूक खोली और उसमें से चांदी की एक पतली सी पायल निकाली,
जो उसकी मां ने उसे दी थी।
“यह रख लो, कल इसे बेचकर कुछ पैसे आ जाएंगे। घर में राशन भी खत्म हो रहा है और बच्चे को भी तो कुछ खिलाना है।”
श्यामू का दिल भर आया, “नहीं राधा, यह तुम्हारी मां की आखिरी निशानी है, मैं इसे नहीं बेच सकता।”
राधा ने उसका हाथ पकड़ लिया,
“निशानी से बढ़कर इस वक्त इस बच्चे की मुस्कान है। हम इसे भूखा नहीं सुला सकते।”
आखिरी उम्मीद – मासूम ड्राइंग और पहचान
तीसरा दिन—श्यामू फिर रोहन को लेकर स्टेशन गया।
आज उसके मन में एक नई योजना थी।
कल रात उसने रोहन से बातों में पूछा था कि वह ट्रेन में चढ़ने से पहले कहां था।
रोहन ने कुछ देर सोचने के बाद बस एक शब्द कहा, “झूला, बड़ा वाला झूला।”
श्यामू को लगा कि शायद यह कोई सुराग हो सकता है।
कोलकाता में कुछ बड़े पार्क हैं जहां बड़े झूले हैं। शायद रोहन का परिवार वहां गया हो।
उसने फैसला किया कि आज वह काम नहीं करेगा, बल्कि रोहन को लेकर उन पार्कों में जाएगा।
यह एक बड़ा जुआ था।
उसने राधा की दी हुई पायल को पास के एक सुनार के पास गिरवी रख दिया।
जो कुछ ₹1000 मिले उससे उसने बस के टिकट खरीदे।
वह रोहन को लेकर पहले ईडन गार्डन्स के पास वाले पार्क गया, फिर निको पार्क, फिर साइंस सिटी।
हर जगह रोहन को लेकर घूमता रहा, लोगों से पूछता रहा,
पर हर जगह से उसे निराशा ही हाथ लगी।
रोहन भी थक गया था और बार-बार घर जाने की जिद कर रहा था।
शाम तक श्यामू की सारी हिम्मत जवाब दे गई।
पैसे खत्म हो चुके थे, शरीर थक कर चूर हो गया था,
और उम्मीद का धागा भी टूटने लगा था।
उसे लगा कि हवलदार पांडे सही कह रहा था—
वह एक गरीब कुली कहां एक अमीर बच्चे के मां-बाप को ढूंढ पाएगा।
उसने फैसला किया कि कल सुबह वह रोहन को वापस पुलिस चौकी में छोड़ आएगा।
उस रात घर में एक अजीब सा सन्नाटा था।
मुनिया भी चुप थी, शायद उसे लग रहा था कि उसका नया भाई अब चला जाएगा।
श्यामू चुपचाप लेटा हुआ था, छत को घूर रहा था।
उसे अपनी लाचारी पर गुस्सा आ रहा था।
तभी रोहन, जो उसके पास ही लेटा था, धीरे से उठा।
उसने अपने नीले स्पाइडरमैन वाले बैग की चैन खोली।
श्यामू ने पहली बार उस बैग के अंदर झांका।
अंदर कुछ खिलौने थे, एक चॉकलेट का खाली रैपर था और एक ड्राइंग बुक थी।
रोहन ने ड्राइंग बुक निकाली और उसका एक पन्ना पलट कर श्यामू को दिखाया।
“चाचा, देखो, यह मेरा घर है।”
श्यामू ने उस ड्राइंग को देखा—एक बच्चे के हाथ से बनी टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें थीं।
एक बड़ा सा घर था, घर के सामने एक लाल रंग की गाड़ी थी,
और घर के ऊपर एक अजीब सा निशान बना हुआ था। वह निशान एक पंख जैसा लग रहा था।
“यह क्या है बेटा?” श्यामू ने पूछा।
“पता नहीं, पापा के ऑफिस पर भी ऐसा ही है,” रोहन ने मासूमियत से कहा।
श्यामू के दिमाग में जैसे बिजली कौंधी—एक पंख जैसा निशान…
उसने ऐसा निशान कहीं देखा था—शहर के सबसे बड़े बिजनेस डिस्ट्रिक्ट पार्क स्ट्रीट में
एक बहुत ऊंची बिल्डिंग है जिसके ऊपर ऐसा ही एक पंख जैसा लोगो बना हुआ है—
फिनिक्स टावर्स!
क्या यह हो सकता है?
क्या रोहन का पिता इतनी बड़ी कंपनी से जुड़ा हो सकता है?
एक उम्मीद की बहुत ही पतली सी किरण श्यामू के दिल में जागी।
उसने फैसला किया कि वह कल आखिरी कोशिश करेगा।
वह रोहन को लेकर फिनिक्स टावर्स जाएगा।
क्लाइमेक्स – किस्मत का इनाम
चौथा दिन—यह श्यामू की आखिरी उम्मीद का दिन था।
सुबह-सुबह वह रोहन को लेकर पार्क स्ट्रीट के लिए निकल पड़ा।
जब वह फिनिक्स टावर्स की उस आलीशान शीशे की बनी इमारत के सामने पहुंचा,
तो एक पल के लिए उसकी हिम्मत जवाब दे गई।
कहां वह एक कुली, और कहां यह अमीरों की दुनिया!
सूट-बूट पहने लोग अंदर-बाहर आ जा रहे थे।
गेट पर खड़े सिक्योरिटी गार्ड्स उसे और रोहन के साधारण कपड़ों को देखकर ऐसे घूर रहे थे
जैसे वे कोई अजूबा हों।
उसने हिम्मत जुटाई और गेट की तरफ बढ़ा।
गार्ड ने उसे रोक लिया,
“ए, कहां जा रहा है? यह कोई धर्मशाला नहीं है।”
“साहब, मुझे अंदर जाना है। मुझे आपके मालिक से मिलना है। यह बच्चा…”
गार्ड हंसा,
“मालिक से मिलेगा? तुझे पता भी है हमारे मालिक कौन हैं? श्री अर्जुन खन्ना, देश के टॉप बिजनेसमैन में से एक! चल भाग यहां से!”
श्यामू ने उसे बहुत समझाने की कोशिश की,
रोहन की ड्राइंग भी दिखाई, पर गार्ड ने उसे धक्का देकर वहां से हटा दिया।
निराश होकर श्यामू सड़क के दूसरी तरफ एक बेंच पर बैठ गया।
अब क्या करें? वह सोच रहा था कि शायद उसकी किस्मत में हारना ही लिखा है।
वह घंटों वहीं बैठा रहा। दोपहर हो गई।
तभी उसने देखा, ऑफिस के बाहर हलचल हुई।
कई महंगी गाड़ियां आकर रुकीं।
एक गाड़ी से श्री अर्जुन खन्ना खुद उतरे—उनका चेहरा अखबारों और टीवी पर अक्सर आता रहता था।
करीब 50 साल के बेहद रोबदार और गंभीर दिखने वाले व्यक्ति थे,
चेहरे पर गहरी चिंता और थकान थी।
रोहन, जो अब तक श्यामू की गोद में लगभग सो गया था,
ने अर्जुन खन्ना को देखते ही अचानक चीख मारी,
“पापा!”
उस एक आवाज ने जैसे पूरे माहौल को थाम लिया।
अर्जुन खन्ना ने आवाज की दिशा में देखा।
उनकी आंखें सड़क के उस पार बैठे एक कुली और उसकी गोद में बैठे अपने बेटे पर पड़ीं।
एक पल के लिए उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ।
रोहन चीखते हुए ट्रैफिक की परवाह किए बिना सड़क की ओर भागा।
उनके बॉडीगार्ड्स और कर्मचारी भी उनके पीछे भागे।
श्यामू भी खड़ा हो गया था।
रोहन उसकी गोद से उतरकर अपने पिता की ओर दौड़ पड़ा,
“पापा!”
अर्जुन खन्ना ने दौड़कर अपने बेटे को उठाया और सीने से ऐसे लगा लिया
जैसे कोई अपनी खोई हुई जिंदगी को वापस पा लेता है।
बाप-बेटे दोनों की आंखों से आंसुओं का सैलाब बह रहा था।
यह एक ऐसा दृश्य था जिसे देखकर वहां मौजूद हर किसी की आंखें नम हो गईं।
कुछ देर बाद जब भावनाओं का ज्वार थोड़ा शांत हुआ,
अर्जुन खन्ना की नजर श्यामू पर पड़ी।
वह रोहन को गोद में लिए हुए उसके पास आए।
उनकी आंखों में कृतज्ञता के इतने गहरे भाव थे कि श्यामू उन्हें देख नहीं पा रहा था।
“तुम… तुम कौन हो भाई? और मेरा बेटा तुम्हारे पास कैसे?”
श्यामू ने कांपती आवाज में पिछले चार दिनों की पूरी कहानी सुना दी—
कैसे उसे रोहन स्टेशन पर मिला,
कैसे पुलिस ने मदद नहीं की,
कैसे वह उसे अपने घर ले गया,
कैसे उसने अपनी पत्नी के गहने गिरवी रखे,
कैसे उसने उसे पार्कों में ढूंढा और कैसे आज वह यहां तक पहुंचा।
पूरी कहानी सुनकर अर्जुन खन्ना निशब्द हो गए।
उन्होंने अपने आसपास खड़े अपने मैनेजरों, सुरक्षा अधिकारियों को देखा
जिनकी करोड़ों की तनख्वाह थी, पर वे उनके बेटे को ढूंढ नहीं पाए।
और एक यह गरीब कुली, जिसके पास शायद अगले वक्त की रोटी के भी पैसे नहीं थे,
उसने बिना किसी स्वार्थ के, सिर्फ इंसानियत के नाते,
उनके बेटे को ना सिर्फ संभाला, बल्कि उन्हें सौंपा भी।
अर्जुन खन्ना ने रोहन को अपनी पत्नी को सौंपा और आगे बढ़कर श्यामू को गले लगा लिया,
“भाई, मैं तुम्हारा यह एहसान सात जन्मों में भी नहीं चुका सकता।
तुमने मेरा बेटा नहीं, मेरी दुनिया लौटाई है।
बताओ, तुम क्या चाहते हो? तुम्हें क्या चाहिए? मुंह खोलो, जो मांगोगे वह मिलेगा।”
श्यामू ने हाथ जोड़ दिए,
“साहब, मुझे कुछ नहीं चाहिए। आपका बेटा मिल गया, मेरे लिए यही सबसे बड़ा इनाम है।
मैंने तो बस अपना फर्ज निभाया।”
अर्जुन खन्ना उसकी इस सादगी और ईमानदारी से और भी ज्यादा प्रभावित हुए।
उन्होंने अपने असिस्टेंट को बुलाया,
“इस आदमी के बारे में मुझे सब कुछ पता करके दो—नाम, पता, परिवार, सब कुछ।”
फिर वह श्यामू की ओर मुड़े,
“नहीं भाई, आज तुम खाली हाथ नहीं जाओगे।
तुमने जो किया है, उसकी कोई कीमत नहीं है,
पर मैं अपनी तरफ से तुम्हें कुछ देना चाहता हूं।”
उन्होंने अपनी चेक बुक निकाली और उस पर एक करोड़ रुपये का चेक भरकर श्यामू की ओर बढ़ाया,
“यह लो, यह तुम्हारी ईमानदारी का एक छोटा सा तोहफा है।”
एक करोड़!
यह रकम सुनकर वहां मौजूद हर किसी के होश उड़ गए।
श्यामू की आंखें फटी की फटी रह गईं।
उसने अपनी जिंदगी में इतने शून्य एक साथ कभी नहीं देखे थे।
उसने कांपते हाथों से चेक लेने से मना कर दिया,
“नहीं साहब, इतना… इतना मैं नहीं ले सकता। यह ठीक नहीं है।”
अर्जुन खन्ना मुस्कुराए,
“ठीक है, अगर तुम्हें यह इनाम लग रहा है, तो मत लो।
इसे अपनी बेटी मुनिया की पढ़ाई के लिए एक पिता का दिया हुआ आशीर्वाद समझकर रख लो।”
यह सुनकर श्यामू की आंखों से आंसू बह निकले।
उसने वह चेक ले लिया, पर अर्जुन खन्ना यहीं नहीं रुके।
“श्यामू, आज से तुम कुली का काम नहीं करोगे।
तुम आज से मेरी कंपनी फिनिक्स ग्रुप में काम करोगे।
हमारे कोलकाता ऑफिस के एडमिनिस्ट्रेशन डिपार्टमेंट में तुम्हें एक सम्मानजनक पद और अच्छी तनख्वाह मिलेगी।
और हां, तुम अब उस झुग्गी में भी नहीं रहोगे।
कोलकाता के एक अच्छे इलाके में एक 3BHK का फ्लैट आज से तुम्हारे परिवार के नाम।
तुम्हारी पत्नी का इलाज शहर के सबसे अच्छे डॉक्टर करेंगे
और तुम्हारी बेटी मुनिया की पढ़ाई की पूरी जिम्मेदारी आज से मेरी।”
श्यामू को लगा जैसे वह कोई सपना देख रहा है।
वह कुछ बोल नहीं पा रहा था, बस हाथ जोड़े खड़ा था।
अर्जुन खन्ना ने उसके कंधे पर हाथ रखा,
“और एक आखिरी चीज, श्यामू—मैं तुम्हारी इस नेकी को सिर्फ तुम तक सीमित नहीं रखना चाहता।
मैं आज ऐलान करता हूं कि फिनिक्स ग्रुप तुम्हारे नाम पर ‘श्यामू सहारा फाउंडेशन’ की स्थापना करेगा।
यह फाउंडेशन देश के सभी बड़े रेलवे स्टेशनों पर हेल्प डेस्क बनाएगा
जो खोए हुए बच्चों को उनके मां-बाप से मिलाने का काम करेगा
और इस फाउंडेशन के पहले अध्यक्ष तुम होगे, श्यामू।”
अंत – नेकी का इनाम
उस दिन के बाद श्यामू की जिंदगी एक खूबसूरत सपने की तरह बदल गई।
वह अपनी झुग्गी की खोली से निकलकर एक सुंदर से फ्लैट में आ गया।
राधा का अच्छा इलाज हुआ और वह स्वस्थ हो गई।
मुनिया शहर के सबसे अच्छे स्कूल में पढ़ने लगी।
और श्यामू—एक कुली से एक बड़े फाउंडेशन का अध्यक्ष बन गया
जिसका काम हजारों और रोहन जैसे बच्चों को उनके परिवारों से मिलाना था।
सीख
यह कहानी हमें सिखाती है कि इंसानियत का कोई पद या पहचान नहीं होती।
एक साधारण सा कुली भी अपने कर्मों से असाधारण बन सकता है।
और जब नेकी की जाती है, तो वह कभी बेकार नहीं जाती—
वह लौटकर आती है, और जब आती है, तो ऐसे आती है कि दुनिया देखती रह जाती है।
अगर श्यामू की इस निस्वार्थ सेवा और इंसानियत ने आपके दिल को छुआ है,
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