वेटर ने बिना पैसे लिए बुजुर्ग को खाना खिलाया, होटल से धक्के खाए, मगर अगले दिन जो हुआ, वो रोंगटे
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भोपाल की हल्की सर्द शाम धीरे-धीरे गहराने लगी थी। शहर की व्यस्त सड़कों से दूर एक तंग सी गली में छोटा सा कैफे ‘मुस्कान’ अपनी धीमी रोशनी के साथ जिंदगी की भागदौड़ से अलग सुकून की सांस ले रहा था। इसी कैफे में 25 वर्षीय आदित्य तेजी से टेबल साफ कर रहा था। उसके चेहरे पर थकान साफ थी, लेकिन उसकी आंखों में चमक और मुस्कान में मिठास आज भी बरकरार थी।
आदित्य का शरीर दुबला था, उसका पहनावा साधारण था, लेकिन दिल इतना बड़ा था कि सारी परेशानियां उसमें समा जातीं। हर एक दिन संघर्ष से शुरू होता और उम्मीद के साथ खत्म होता। आदित्य जानता था कि उसकी बीमार मां और कमजोर पिता की सारी जिम्मेदारी उसी के कंधों पर है। उसने कभी शिकायत नहीं की। वह बस यही सोचता कि इस महीने का वेतन ठीक-ठाक मिल जाए तो मां की दवा आ जाएगी, पापा का इलाज हो सकेगा और शायद घर में थोड़ा बहुत सुधार भी हो जाएगा।
तभी कैफे का दरवाजा धीरे से खुला और एक बूढ़े आदमी ने धीरे-धीरे अंदर कदम रखा। उसका चेहरा धूल मिट्टी से भरा, कपड़े पुराने और फटे हुए थे। आंखों में थकान और लाचारी की झलक थी। बूढ़े की हालत देखकर आदित्य का मन विचलित हुआ। वह तेजी से बूढ़े के पास पहुंचा और विनम्रता से पूछा,
“बाबा, मैं आपकी मदद कर सकता हूं?”
बूढ़े ने धीरे से सिर उठाया। आंखों में झिझक और आवाज में हल्की शर्मिंदगी के साथ कहा,
“बेटा, भूख लगी है। बस थोड़ा सा दाल-चावल मिल जाएगा।”
आदित्य ने तुरंत खाना लाकर बहुत प्यार से परोसा। बूढ़े की आंखों में आभार की चमक साफ दिख रही थी। खाना खाकर बूढ़े ने जेब से कुछ सिक्के निकाले, लेकिन उतने पैसे बिल के लिए काफी नहीं थे। आदित्य समझ गया और उसने धीरे से मुस्कुराते हुए कहा,
“बाबा, आज आप हमारे मेहमान हैं। पैसे की कोई जरूरत नहीं।”
अभी आदित्य के शब्द खत्म भी नहीं हुए थे कि पीछे से एक सख्त आवाज गूंजी,
“क्या तमाशा लगा रखा है आदित्य?”
कैफे का मैनेजर विक्रांत गुस्से से लाल था। उसने आग बबूला होते हुए कहा,
“मुफ्त में खाना बांटोगे तो कैफे कैसे चलेगा? आज के बाद तुम यहां नहीं दिखोगे।”
आदित्य अवाक खड़ा रहा। बूढ़ा परेशान हो उठा। आदित्य को नौकरी से निकाल दिया गया। उस शाम आदित्य खाली हाथ घर लौटा। उसकी आंखों में आंसू थे, पर दिल में एक आवाज थी कि उसने जो किया सही किया। पर आने वाला कल क्या आदित्य की इस अच्छाई का हिसाब रखेगा?
कैफे मुस्कान से बाहर कदम रखते ही आदित्य को ठंडी हवा ने छुआ। दिसंबर की सर्दी थी, पर आदित्य के दिल में उठी चिंता की गर्माहट ने उसे ठंड महसूस नहीं होने दी। उसकी आंखों में निराशा के साथ-साथ एक चिंता का भाव था कि आखिर अब वह अपने परिवार का ख्याल कैसे रख पाएगा। घर तक का रास्ता लंबा नहीं था, लेकिन आज यह रास्ता आदित्य के लिए अंतहीन लग रहा था। रास्ते भर उसकी आंखों में विक्रांत के कठोर शब्द गूंजते रहे।
“आज के बाद यहां नहीं दिखोगे।”
जैसे ही आदित्य घर पहुंचा, सामने ही उसकी मां गायत्री चारपाई पर बैठी खांस रही थी। पिता सुरेश जिनकी हालत दिन-ब-दिन बिगड़ रही थी, एक पुरानी कुर्सी पर आंखें मूंदे बैठे थे। मां ने दरवाजे की आहट सुनते ही पूछा,
“आ गया बेटा?”
आदित्य ने चेहरे पर एक मुस्कान ओढ़ते हुए कहा,
“हां मां, आ गया। तबीयत कैसी है आपकी?”
“ठीक हूं बेटा,” मां की आवाज में कमजोरी साफ झलक रही थी। सुरेश ने आंखें खोली और बेटे की ओर देख मुस्कुराए।
“थक गया होगा। चल हाथ-मुंह धो लें।”
गायत्री ने धीरे से उठने का प्रयास किया।
“नहीं मां, तुम बैठो, मैं ले लूंगा,” आदित्य ने जल्दी से मां को रोका और रसोई की तरफ बढ़ गया। रसोई में खाना कम था, लेकिन उससे भी कम आदित्य की भूख थी। आज जो कुछ हुआ, उसे वह परिवार के सामने लाना नहीं चाहता था। खाना लेकर जब वापस आया तो पिता सुरेश ने धीमी आवाज में पूछा,
“बेटा, इस महीने की दवा के पैसे जुट पाएंगे ना?”
आदित्य का हाथ अचानक रुक गया। गला भर आया, लेकिन उसने खुद को संभालते हुए कहा,
“हां पापा, इंतजाम कर लूंगा। आप फिक्र मत करो।”
वह जल्दी से खाना खाकर लेट तो गया, लेकिन सारी रात करवटें बदलता रहा। उसका मन अशांत था। उसे बार-बार उस बूढ़े की आंखें याद आ रही थीं। बूढ़े व्यक्ति का चेहरा जिसमें पहले भूख और फिर आभार के भाव साफ झलक रहे थे। उसने सही किया था या गलत? पर तुरंत ही उसका दिल जवाब देता,
“मैंने जो किया सही किया।”
अगली सुबह आदित्य उठा। उसकी आंखों में एक नया दृढ़ संकल्प था। उसने खुद से वादा किया कि चाहे कुछ भी हो जाए, वह अपने परिवार को यूं निराश नहीं होने देगा। उसने जल्दी से तैयार होकर बाहर कदम रखा। मन में योजना नहीं थी, लेकिन उसका संकल्प मजबूत था। वह न्यू मार्केट पहुंचा, जहां हमेशा चहल-पहल रहती थी। आसपास फल सब्जी बेचने वाले छोटी-छोटी दुकानों के साथ लाइन से खड़े थे।
आदित्य ने एक खाली कोना देखा और थोड़ी देर सोचने के बाद फैसला किया कि वह भी यहीं सब्जियां बेचेगा। उसके पास ज्यादा पैसे नहीं थे। जेब में बचे पैसों से उसने कुछ सब्जियां खरीदकर एक छोटी सी दुकान तैयार कर ली। सामने एक कपड़ा बिछाया और उस पर सब्जियां सजाई। थोड़ी ही देर में मार्केट खुल गई और लोग आना शुरू हो गए।
शुरू में किसी ने उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया। आदित्य कभी सब्जियों को ठीक करता, कभी आवाज लगाता। दिन चढ़ने लगा था, लेकिन बिक्री ना के बराबर थी। कुछ लोग जो कैफे में उसे जानते थे, उसे देखकर चौंकते, पर बिना कुछ कहे आगे बढ़ जाते। आदित्य का दिल बैठने लगा। पर उसने खुद को संभाला और जोर से आवाज लगाई,
“ताजा सब्जियां हैं। भाई साहब, बहन जी, एक बार देखिए तो सही।”
उसकी आवाज में आत्मविश्वास की कमी नहीं थी, लेकिन भाग्य आज शायद उसे आजमा रहा था। शाम होने तक आदित्य की दुकान में रखी ज्यादातर सब्जियां वैसी ही पड़ी रही। उसकी आंखें निराशा से भर गईं। तभी पास खड़े एक बुजुर्ग सब्जी वाले ने कहा,
“बेटा, पहले दिन में कभी निराश मत होना। यह बाजार ऐसा ही है। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।”
उसकी बात सुनकर आदित्य थोड़ा मुस्कुराया। बूढ़े की आवाज में अपनापन था। उसने आदित्य को अपनी पुरानी चटाई देते हुए कहा,
“ले बेटा, इसे रख। कल आना जरूर। यह दुनिया मेहनत वालों को आजमाती है, पर टूटने नहीं देती।”
घर पहुंचकर आदित्य ने जेब से आज की कमाई निकाली। कुछ सिक्के गिनती के नोट। उसने गहरी सांस ली और मन ही मन कहा,
“कोई बात नहीं, कल बेहतर होगा।”
अगले कुछ दिनों तक आदित्य का संघर्ष चलता रहा। कुछ ग्राहक अब उसे पहचानने लगे थे। ईमानदारी देखकर लोग उससे सब्जियां खरीदने भी लगे। मगर अभी भी परिवार की दवाइयों और जरूरतों के लिए पैसे पर्याप्त नहीं थे। एक सुबह जब आदित्य अपनी दुकान पर बैठा था, एक बड़ी सी कार न्यू मार्केट के किनारे रुकी। उसमें से एक बुजुर्ग आदमी उतरा और बाजार की तरफ बढ़ा। वह दुकानें देखते-देखते अचानक आदित्य की तरफ मुड़ा। आदित्य ने देखा और चौंक पड़ा। यह तो वही बुजुर्ग था जिसे उसने कैफे मुस्कान में मुफ्त में खाना दिया था। उसकी धड़कन तेज हो गई।
बूजुर्ग ने आदित्य को गौर से देखा। उसकी तरफ बढ़ते हुए पूछा,
“बेटा, तुम यहां कैसे?”
आदित्य थोड़ा झिझकते हुए बोला,
“बाबा, अब यही काम है मेरा।”
बूजुर्ग व्यक्ति ने गहरी सांस ली। उसकी आंखों में दर्द और पछतावे के भाव साफ थे। फिर उसने नरमी से कहा,
“तुम जैसे इंसान के साथ ऐसा नहीं होना चाहिए था। उस दिन तुम्हारी वजह से मुझे लगा था कि दुनिया में अच्छाई अभी बाकी है। तुम्हारा नाम क्या है बेटा?”
“आदित्य,” उसने हल्की मुस्कुराहट के साथ जवाब दिया। बूढ़े ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा,
“और मेरा नाम समर्थ है। तुम्हारे जैसे लोग हार नहीं सकते। तुम मेहनत करो बेटा, तुम्हें सफलता जरूर मिलेगी।”
यह कहते हुए समर्थ ने आदित्य को एक कार्ड थमाया और कहा,
“अगर कभी जरूरत पड़े तो निसंकोच फोन करना।”
समर्थ की कार दूर जाती देख आदित्य के मन में हल्की सी उम्मीद जाग उठी। उसने कार्ड को ध्यान से देखा। कार्ड पर केवल नाम और फोन नंबर था। कोई बड़ा पद नहीं लिखा था। पर समर्थ के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा था जिसने आदित्य के दिल को छुआ था। दिन बीतने लगे। आदित्य रोज समर्थ का कार्ड देखता और सोचता कि क्या उसे फोन करना चाहिए। वह अभी इंतजार करना चाहता था। उसे भरोसा था कि अभी उसका संघर्ष पूरा नहीं हुआ है। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। एक शाम अचानक उसकी मां की तबीयत बहुत बिगड़ गई। आदित्य घबरा उठा। उसके पास इलाज के पैसे नहीं थे। अब उसके सामने कोई रास्ता नहीं था। उसने हिम्मत जुटाई और समर्थ को फोन लगाने का फैसला किया।
उसने फोन उठाया और कांपते हाथों से नंबर डायल करने लगा। फोन की घंटी बज रही थी। आदित्य का दिल तेजी से धड़क रहा था। हर एक सेकंड मानो सदियों जैसा था। तभी अचानक फोन उठा लिया गया।
“हेलो।”
दूसरी ओर से समर्थ की गहरी शांत आवाज आई।
“जी बाबा, मैं आदित्य बोल रहा हूं।”
आदित्य की आवाज लड़खड़ा रही थी।
“हां बेटा आदित्य, बताओ क्या बात है? सब ठीक तो है ना?”
समर्थ की आवाज में फिक्र साफ झलक रही थी। आदित्य की आंखों में आंसू आ गए। उसने अपनी आवाज संभालते हुए कहा,
“बाबा, मां की तबीयत अचानक बिगड़ गई है। मेरे पास इलाज कराने के पैसे नहीं हैं। मैं शर्मिंदा हूं, लेकिन आपके अलावा किसी को नहीं जानता।”
कुछ पल की खामोशी के बाद समर्थ की आवाज आई,
“आदित्य, तुम बिल्कुल चिंता मत करो। तुरंत अपनी लोकेशन भेजो। मैं अभी गाड़ी भेज रहा हूं। तुम्हारी मां की जिम्मेदारी अब मेरी है।”
आदित्य का गला भर आया। उसने तुरंत अपना पता मैसेज किया। कुछ ही देर में समर्थ की गाड़ी उनके घर के बाहर पहुंच गई। अस्पताल पहुंचते ही गायत्री को तुरंत भर्ती किया गया। समर्थ ने अपनी निजी देखरेख में गायत्री का इलाज शुरू करवाया। अस्पताल के कमरे के बाहर आदित्य बेचैनी से टहल रहा था। उसका दिल घबरा रहा था। तभी समर्थ उसके पास आए और धीरे से कंधे पर हाथ रखते हुए कहा,
“चिंता मत करो बेटा, तुम्हारी मां ठीक हो जाएगी। डॉक्टरों ने कहा है कि वे जल्दी रिकवर करेंगी।”
आदित्य की आंखों में कृतज्ञता के आंसू छलक आए।
“बाबा, आपने आज जो किया है, मैं यह एहसान जिंदगी भर नहीं भूलूंगा।”
समर्थ ने मुस्कुराते हुए कहा,
“बेटा, यह एहसान नहीं है। यह तो वही इंसानियत है जो तुमने उस दिन मुझे दिखाई थी। मैं तुम्हें देखकर ही जान गया था कि तुम एक अच्छे दिल वाले इंसान हो।”
आदित्य को समर्थ की आंखों में अपने लिए सम्मान और विश्वास की चमक दिखाई दी। कुछ देर बाद डॉक्टर बाहर आए और बोले,
“अब खतरा टल गया है। आपकी मां की हालत स्थिर है। लेकिन उन्हें कुछ दिन अस्पताल में ही रहना होगा।”
सुनकर आदित्य के चेहरे पर राहत की सांस थी। समर्थ ने डॉक्टर से कहा,
“आप चिंता ना करें। जितना भी समय लगे इलाज में कोई कमी नहीं होनी चाहिए।”
अगले कुछ दिन अस्पताल में बीते। समर्थ हर दिन अस्पताल आते और आदित्य से लंबी-लंबी बातें करते। धीरे-धीरे आदित्य की मां की तबीयत सुधरने लगी। गायत्री की आंखों में बेटे के लिए गर्व झलकता क्योंकि उसने मुश्किलों से हार नहीं मानी थी। एक दिन अस्पताल के कैंटीन में चाय पीते हुए समर्थ ने आदित्य से पूछा,
“आगे क्या सोचा है बेटा? अब जिंदगी में क्या करने का इरादा है?”
आदित्य थोड़ा झिझकते हुए बोला,
“बाबा, मैंने सपने तो बड़े देखे थे, लेकिन जिंदगी की जिम्मेदारियों ने मेरे सपनों को हमेशा पीछे धकेला। अब बस यही चाहता हूं कि मां और पापा को खुश देख सकूं।”
समर्थ मुस्कुराए।
“तुम्हारे इरादे साफ हैं। एक काम करो, कल सुबह मेरे साथ चलना।”
“कहां?” आदित्य ने हैरानी से पूछा।
“चलो, यह कल ही पता चलेगा।”
समर्थ ने मुस्कुराते हुए रहस्य बनाए रखा। अगले दिन समर्थ ने आदित्य को अपनी कार में बैठाया और शहर के एक बड़े होटल ‘ब्लू स्काई’ के सामने गाड़ी रोकी। आदित्य को होटल देखकर थोड़ी हैरानी हुई।
“बाबा, हम यहां क्यों आए हैं?”
आदित्य ने हैरानी से पूछा।
समर्थ हंसते हुए बोले,
“आओ तो सही।”
दोनों होटल के भीतर गए। होटल के स्टाफ ने समर्थ का गर्मजोशी से स्वागत किया। आदित्य यह देखकर और भी हैरान हुआ। एक आलीशान ऑफिस में पहुंचकर समर्थ ने आदित्य से कहा,
“बैठो।”
आदित्य के चेहरे पर अब भी उलझन थी। समर्थ ने गंभीरता से कहा,
“बेटा, तुम नहीं जानते हो, लेकिन यह होटल मेरा है। सालों पहले मैं भी तुम्हारी तरह संघर्ष करता था। जब तुमने मेरी मदद की, उस दिन मैंने खुद से वादा किया था कि तुम्हारे लिए कुछ जरूर करूंगा।”
आदित्य हैरानी से समर्थ को देखता रहा। समर्थ ने अपनी बात जारी रखी,
“मैं चाहता हूं कि तुम इस होटल में मेरे साथ काम करो। तुम्हारी ईमानदारी और मेहनत यहां की पहचान बनेगी। तुम्हें एक अच्छे पद पर नौकरी मिलेगी। अपने परिवार की जिम्मेदारी पूरी करने का मौका मिलेगा।”
आदित्य की आंखें भर आईं।
“बाबा, मैं इस लायक नहीं हूं।”
समर्थ ने कहा,
“बिल्कुल हो। तुम्हारे अंदर मैंने वह जज्बा देखा है जो बहुत कम लोगों में होता है। क्या तुम तैयार हो?”
आदित्य ने पूरे विश्वास के साथ कहा,
“जी बाबा, मैं तैयार हूं।”
अगले ही दिन आदित्य ने होटल में मैनेजर पद पर काम करना शुरू किया। उसके जीवन का नया अध्याय शुरू हो चुका था। एक महीने के भीतर ही आदित्य ने अपने काम से होटल के सभी कर्मचारियों का दिल जीत लिया। लोग उसकी तारीफ करते नहीं थकते थे।
एक दिन समर्थ ने एक मीटिंग बुलाई जिसमें होटल के सारे कर्मचारी शामिल थे। उन्होंने कहा,
“आज से आदित्य होटल का नया जनरल मैनेजर होगा। उसकी मेहनत और ईमानदारी ने मुझे विश्वास दिलाया है कि वह इस पद के योग्य है।”
तालियों की गूंज से हॉल भर गया। आदित्य के दिल में गर्व था, पर उसकी आंखें विनम्रता से झुकी हुई थीं। उसी रात समर्थ ने आदित्य को अलग बुलाकर कहा,
“आदित्य, जिंदगी में जो भी तुम्हारे साथ हुआ, उसे कभी मत भूलना। हमेशा याद रखना कि ताकत, पैसा, शोहरत तो आती-जाती रहती है, लेकिन जो सच्चा इंसानियत का जज्बा तुम्हारे दिल में है, वही तुम्हें हमेशा सफल बनाएगा।”
आदित्य ने समर्थ के पैर छू लिए।
“बाबा, आपने मुझे नया जीवन दिया है। मैं वादा करता हूं आपकी उम्मीदों पर हमेशा खरा उतरूंगा।”
समर्थ की आंखें गर्व से चमक उठी।
“तुम्हारे लिए मेरी उम्मीदों से कहीं ज्यादा बड़ा आसमान इंतजार कर रहा है। बस मेहनत करते रहना।”
आदित्य की जिंदगी में अब उम्मीद का सूरज पूरी तरह चमक रहा था। लेकिन उसे नहीं पता था कि जल्द ही उसकी पुरानी जिंदगी का एक चेहरा फिर उसके सामने आने वाला था। वो चेहरा जिसने कभी उसे बेइज्जत करके कैफे से निकाला था। आदित्य के जीवन में अब एक नया उजाला था। होटल ब्लू स्काई में वह एक सफल मैनेजर के तौर पर अपनी जिम्मेदारी निभा रहा था। उसकी मां गायत्री और पिता सुरेश की तबीयत में सुधार हो चुका था। उनकी आंखों में बेटे के लिए जो सम्मान और खुशी थी, वह आदित्य के लिए किसी पुरस्कार से कम नहीं थी। होटल में आदित्य की छवि एक दयालु, ईमानदार और मेहनती मैनेजर के रूप में स्थापित हो चुकी थी। कर्मचारी और ग्राहक दोनों ही उसके व्यवहार और कार्यकुशलता के कायल थे। समर्थ की देखरेख और मार्गदर्शन में आदित्य ना सिर्फ होटल के काम को संभालता बल्कि अपने आसपास के लोगों की मदद करने में भी हमेशा आगे रहता था।
एक सुबह आदित्य होटल के ऑफिस में बैठा कुछ जरूरी काम निपटा रहा था। तभी उसके ऑफिस के फोन की घंटी बजी।
“हेलो, होटल ब्लू स्काई। आदित्य बोल रहा हूं।”
दूसरी तरफ से एक परिचित सी आवाज सुनाई दी।
“आदित्य बेटा, मैं समर्थ का बेटा विवेक बोल रहा हूं।”
“जी विवेक जी, नमस्ते। सब ठीक तो है?” आदित्य ने विनम्रता से पूछा।
“आदित्य, बाबा की तबीयत अचानक खराब हो गई है। वह तुम्हें याद कर रहे हैं। कृपया तुम तुरंत घर आ जाओ।”
सुनते ही आदित्य बेचैन हो उठा।
“जी, मैं तुरंत आ रहा हूं।”
आदित्य तुरंत समर्थ के घर पहुंचा। समर्थ बिस्तर पर लेटे थे। चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी लेकिन आंखों में दर्द की परछाइयां थीं। आदित्य ने धीरे से समर्थ का हाथ पकड़ कर कहा,
“बाबा, क्या हुआ आपको?”
समर्थ ने धीरे से आंखें खोली और आदित्य की ओर देखकर मुस्कुराए।
“कुछ नहीं बेटा। उम्र का असर है। शरीर अब साथ नहीं देता। तुम्हें देखकर अच्छा लगा।”
“बाबा, आपको कुछ नहीं होगा,” आदित्य की आवाज में चिंता थी।
समर्थ ने उसका हाथ पकड़ कर कहा,
“बेटा, जिंदगी कब तक चलेगी? यह तो ईश्वर तय करता है। लेकिन एक जिम्मेदारी मुझे तुम्हें सौंपनी है।”
“कहिए बाबा,” आदित्य ने गहरी सांस लेकर कहा।
समर्थ ने कहा,
“आदित्य, मैंने पूरी जिंदगी सिर्फ पैसा कमाने में नहीं बल्कि इंसानियत कमाने में लगाई है। मैं चाहता हूं कि मेरे बाद भी तुम मेरे सपनों को आगे बढ़ाओ। इस होटल की नहीं बल्कि गरीब और जरूरतमंद लोगों की देखभाल करो।”
आदित्य की आंखें भर आईं।
“बाबा, मैं आपकी सोच को जिंदा रखूंगा।”
समर्थ ने सुकून भरी सांस ली। उनकी आंखों में संतोष था। कुछ दिनों बाद समर्थ की तबीयत में सुधार होने लगा। समर्थ के स्वस्थ होने पर आदित्य ने राहत महसूस की। लेकिन उसे एहसास हो गया था कि अब उसे समर्थ की जिम्मेदारियां भी उठानी होंगी। होटल की नई शाखा का उद्घाटन करीब था। आदित्य चाहता था कि यह उद्घाटन समर्थ के हाथों ही हो। समर्थ मान गए, लेकिन नियति ने कुछ और ही सोच रखा था। उद्घाटन समारोह के ठीक एक दिन पहले समर्थ को हार्ट अटैक आया और उन्हें तुरंत अस्पताल ले जाना पड़ा। पूरा होटल परिवार घबरा उठा। अस्पताल के बाहर आदित्य बेचैन होकर टहल रहा था। विवेक उसके पास आकर बोला,
“आदित्य, बाबा तुम्हें अंदर बुला रहे हैं।”
आदित्य भागकर कमरे में पहुंचा। समर्थ ने कांपते हुए हाथों से आदित्य का हाथ पकड़ कर कहा,
“बेटा, उद्घाटन रुकना नहीं चाहिए। यह सपना मेरा नहीं, तुम्हारा है। इसे अधूरा मत छोड़ना।”
“बाबा, आपके बिना नहीं होगा,” आदित्य का गला भर आया।
“मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं बेटा,” समर्थ ने धीरे से कहा।
“अब जाओ और मेरे सपने पूरे करो।”
आदित्य ने मजबूरी में समर्थ की बात मान ली। समारोह वाले दिन वह स्टेज पर खड़ा था। लेकिन उसका दिल समर्थ के पास था। उसका मन बेचैन था। उद्घाटन समारोह सफल रहा। लेकिन आदित्य का दिल भारी था। समारोह खत्म होते ही वह तुरंत अस्पताल पहुंचा। लेकिन तब तक समर्थ ने अंतिम सांस ले ली थी। समर्थ के चले जाने से आदित्य टूट गया। लेकिन समर्थ के अंतिम शब्द उसके कानों में गूंज रहे थे,
“मेरे सपने अधूरे मत छोड़ना।”
समर्थ के अंतिम संस्कार के बाद आदित्य ने खुद को पूरी तरह समाज सेवा में झोंक दिया। उसने होटल की कमाई से गरीब और जरूरतमंद लोगों के लिए एक ट्रस्ट शुरू किया।
“समर्थ आशा केंद्र।”
यहां गरीबों को मुफ्त भोजन, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं दी जाती थीं। समय बीतता गया और आदित्य का नाम पूरे भोपाल में सम्मान से लिया जाने लगा। ब्लू स्काई होटल सफलता की नई ऊंचाइयों पर था। लेकिन आदित्य के लिए सबसे बड़ी खुशी थी लोगों के चेहरों पर मुस्कान देखना। एक दिन ट्रस्ट में भोजन वितरण करते हुए आदित्य ने देखा कि एक कमजोर वृद्ध महिला भोजन के लिए लाइन में खड़ी थी। उसकी हालत बेहद खराब थी। आदित्य उसके पास गया।
“माताजी, आइए यहां बैठिए।”
महिला ने धीरे से सिर उठाया। आदित्य उसे देखकर चौंक उठा। यह तो विक्रांत की मां थी। उन्होंने आदित्य को तुरंत पहचान लिया।
“बेटा आदित्य।”
“हां माता जी, मैं आदित्य हूं। आप यहां कैसे?” आदित्य ने घबराकर पूछा।
उन्होंने रोते हुए कहा,
“बेटा, विक्रांत बहुत बीमार है। उसके इलाज में घर बिक गया। पैसा खत्म हो गया। हमारे पास कुछ नहीं बचा।”
आदित्य तुरंत उनके घर पहुंचा। विक्रांत बिस्तर पर लेटा था। हालत नाजुक थी। आदित्य को देखकर वह रो पड़ा।
“आदित्य, मैं शर्मिंदा हूं। मुझसे गलती हुई। अब मेरा परिवार बर्बाद हो गया।”
आदित्य ने उसका हाथ पकड़ कर कहा,
“आप अकेले नहीं हैं विक्रांत जी, मैं हूं आपके साथ। आपको कुछ नहीं होगा।”
विक्रांत को तुरंत अस्पताल ले जाया गया। आदित्य ने इलाज का सारा खर्च खुद उठाया। कुछ दिनों बाद विक्रांत की हालत सुधरी। अस्पताल में विक्रांत ने कहा,
“आदित्य, तुमने मेरी जान बचाकर मुझे पूरी तरह बदल दिया।”
आदित्य ने मुस्कुराते हुए कहा,
“इंसानियत यही तो है, एक-दूसरे का सहारा बनना।”
विक्रांत ने भावुक होकर कहा,
“काश, मैं तुम्हारी तरह पहले ही सोच पाता।”
अब आदित्य की कहानी पूरे शहर के लिए एक मिसाल बन चुकी थी। वह समर्थ के सपनों को साकार कर रहा था। लेकिन उसकी मंजिल अब भी दूर थी। आदित्य ने फैसला किया कि वह पूरे शहर को एक संदेश देगा कि असली सफलता दूसरों के दुखों को दूर करने में ही है। लेकिन क्या आदित्य का यह सपना इतनी आसानी से पूरा हो पाएगा? या अभी और भी कठिन परीक्षा बाकी थी? आदित्य का जीवन अब उस मोड़ पर आ चुका था जहां उसकी पहचान सिर्फ एक सफल होटल मालिक की नहीं बल्कि समाज के एक सच्चे सेवक की बन गई थी। वह हर दिन समर्थ के दिखाए रास्ते पर चल रहा था। ब्लू स्काई होटल की सफलता के साथ-साथ समर्थ आशा केंद्र भी गरीबों, जरूरतमंदों और बेसहारा लोगों के लिए उम्मीद की एक मजबूत किरण बन चुका था। भोपाल शहर के लोग आदित्य को अब एक होटल मालिक से ज्यादा एक प्रेरणा और समाज सुधारक के तौर पर देखते थे। शहर के युवा उसकी कहानी सुनकर प्रेरित होते और उसके बताए रास्ते पर चलने की कोशिश करते। आदित्य के जीवन का उद्देश्य अब सिर्फ पैसा कमाना नहीं बल्कि दूसरों की जिंदगी में सकारात्मक बदलाव लाना था। समय के साथ-साथ विक्रांत भी पूरी तरह ठीक होकर आदित्य के इस मिशन में शामिल हो गया। वह अपने पुराने दिनों को याद कर अक्सर भावुक हो जाता और आदित्य को देखकर सोचता कि उसने कितनी गलतियां की थीं। लेकिन आदित्य की संगति ने उसे बदल दिया था और अब वह भी एक नेक और संवेदनशील इंसान बन चुका था। एक दिन शहर में भयंकर बाढ़ आई, जिसने सैकड़ों परिवारों को बेघर कर दिया। शहर में अफरातफरी मच गई। लोग अपनी जान बचाकर सुरक्षित जगहों की तरफ भाग रहे थे। आदित्य को जैसे ही खबर मिली, उसने तुरंत फैसला लिया कि वह इन पीड़ित परिवारों के लिए कुछ करेगा। ब्लू स्काई होटल के दरवाजे तुरंत जरूरतमंद लोगों के लिए खोल दिए गए। आदित्य ने होटल के कर्मचारियों और ट्रस्ट के सदस्यों के साथ मिलकर पीड़ित परिवारों के रहने, खाने-पीने और इलाज की व्यवस्था की। समर्थ आशा केंद्र भी राहत कार्यों का प्रमुख केंद्र बन गया। आदित्य दिन-रात राहत कार्य में लगा रहता। खुद लोगों के पास जाकर उनकी परेशानियां सुनता और उन्हें ढांढस बंधाता। बाढ़ की स्थिति सुधरने के बाद शहर में एक विशेष कार्यक्रम आयोजित किया गया। शहर की तरफ से आदित्य को सम्मानित करने का फैसला लिया गया था। उस दिन समारोह में हजारों लोग उपस्थित थे। मंच पर आदित्य के साथ विक्रांत, समर्थ के बेटे विवेक और ट्रस्ट के सारे सदस्य खड़े थे। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि ने आदित्य को पुरस्कार देते हुए कहा,
“आदित्य ने इस शहर को सिखाया कि एक आम इंसान अपने भीतर की अच्छाई और इंसानियत से किस तरह एक असाधारण बदलाव ला सकता है। इन्होंने साबित किया कि सिर्फ धन दौलत नहीं बल्कि लोगों की दुआएं और आशीर्वाद ही असली दौलत है।”
आदित्य ने विनम्रता से पुरस्कार स्वीकार किया और कहा,
“मुझे जीवन में यह सब कुछ मेरे गुरु समान समर्थ बाबा की वजह से मिला। उन्होंने मुझे सिखाया कि जीवन का असली सुख दूसरों की खुशी में छिपा है। मैं आज इस मंच से वादा करता हूं कि आखिरी सांस तक मैं अपने शहर के हर जरूरतमंद के लिए खड़ा रहूंगा।”
तालियों की गूंज से पूरा हॉल गूंज उठा। हर व्यक्ति की आंखों में आंसू थे। विक्रांत ने मंच पर आकर कहा,
“आदित्य सिर्फ मेरे ही नहीं बल्कि पूरे समाज के लिए प्रेरणा है। मैं इसका जीता जागता उदाहरण हूं कि कैसे एक इंसान की अच्छाई किसी को बदल सकती है। आज आदित्य की वजह से मैं इस मंच पर खड़ा हूं। मैं भी जीवन भर इनके दिखाए रास्ते पर चलने की कोशिश करूंगा।”
शहर के लोग आदित्य को लेकर भावुक हो गए। समारोह खत्म होने के बाद जब आदित्य होटल लौटा तो उसने महसूस किया कि समर्थ आज भी उसके दिल में जीवित थे। वह मन ही मन समर्थ को धन्यवाद दे रहा था कि उन्होंने उसे जीवन में सही दिशा दी। कुछ दिनों बाद एक शाम आदित्य अपने घर के आंगन में बैठा था। आसमान साफ था। सितारे जगमगा रहे थे। आदित्य के पिता सुरेश और मां गायत्री भी उसके पास बैठे थे। आदित्य ने मां का हाथ पकड़ कर कहा,
“मां, मुझे जिंदगी ने बहुत कुछ दिया है। लेकिन आप दोनों की मुस्कान से बड़ा कोई तोहफा नहीं हो सकता।”
गायत्री ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा,
“बेटा, तुमने जो रास्ता चुना है वही तुम्हारी असली सफलता है। आज तुमने ना सिर्फ हमारा बल्कि पूरे शहर का नाम रोशन कर दिया।”
सुरेश ने गर्व से कहा,
“तुमने साबित किया कि अच्छा इंसान कभी हार नहीं सकता। मुझे गर्व है तुम पर।”
आदित्य की आंखों में खुशी के आंसू थे। उसने आसमान की ओर देखकर मन ही मन समर्थ को याद किया और मुस्कुराया। अगले कुछ सालों में समर्थ आशा केंद्र की चर्चा पूरे देश में फैल गई। आदित्य अब सिर्फ भोपाल तक सीमित नहीं रहा बल्कि देश के कई शहरों में इसी तरह के ट्रस्ट खोल चुका था। लोग उसे सिर्फ होटल मालिक नहीं बल्कि एक समाज सुधारक और प्रेरणा स्रोत के तौर पर जानते थे। जीवन के एक पड़ाव पर पहुंचकर आदित्य ने युवा पीढ़ी को संदेश देते हुए कहा,
“जिंदगी में सफल होना अच्छी बात है। लेकिन उससे भी बड़ी बात है दूसरों की सफलता की वजह बनना। सच्ची सफलता वहीं है जहां आपका अस्तित्व दूसरों की मुस्कान का कारण बनता है।”
आदित्य की कहानी अब सिर्फ एक संघर्षशील नौजवान की नहीं रही थी। वह कहानी अब हजारों लाखों लोगों के दिलों तक पहुंच चुकी थी। हर जगह आदित्य के काम की मिसालें दी जाने लगी। उसने साबित कर दिया कि इंसानियत ही इस दुनिया में असली ताकत है।
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