बारिश की रात: इंसानियत की जीत
उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के कपिलेश्वर कस्बे में एक शाम तेज बारिश ने सबको घरों में कैद कर दिया था। गलियों में सन्नाटा था, लेकिन उसी बरसाती रात एक महिला अपने चार साल के बेटे के साथ ठंड और भूख से जूझ रही थी। उसका नाम अनीता था—महज 25-26 साल की, चेहरे पर थकान, कपड़े पूरी तरह भीगे हुए। बेटे प्रियांशु की आंखों में भूख और डर साफ झलक रहा था।
अनीता की जिंदगी कभी आसान नहीं थी। पति नरेश से प्यार किया, शादी की, लेकिन किस्मत ने साथ नहीं दिया। शादी के कुछ साल बाद नरेश बीमारी से चल बसा। मायके में मां पहले ही गुजर चुकी थी, पिता ने बेटी को बोझ समझकर दरवाजा बंद कर लिया। ससुराल वालों ने भी तिरस्कार किया—”हमारे बेटे को खा गई, अब यहां कोई जगह नहीं।” अनीता के पास बस गले की सोने की चैन थी, जिसे बेचकर कुछ दिन गुजारा किया, पर पैसे जल्दी खत्म हो गए।
अब अनीता छोटे-मोटे काम करती, किसी होटल में बर्तन मांजती, दुकान में सफाई करती, लेकिन कोई स्थायी काम नहीं मिला। रात को धर्मशाला या मंदिर की सीढ़ियों पर सोती। उस रात भी सुबह से दोनों ने कुछ नहीं खाया था। बेटे की भूख और ठंड ने अनीता को मजबूर कर दिया कि वह एक बड़े घर के दरवाजे पर जाकर मदद मांगे।
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बारिश में कांपती आवाज में उसने दरवाजा खटखटाया—”साहब, हमें बस एक रात की पनाह दे दीजिए। मेरा बेटा भीग गया है, बीमार पड़ जाएगा।” दरवाजा खुला, सामने खड़ा था अविनाश—गंभीर चेहरा, आंखों में थकान, लेकिन स्वभाव में कठोरता नहीं। उसने अनीता और उसके बेटे को अंदर बुलाया, खाना दिया, और कहा, “डरने की जरूरत नहीं, इस कमरे में आराम से सो जाओ।”
अगली सुबह सूरज की किरणों के साथ हवेली में हलचल थी। अनीता ने घर की सफाई कर दी थी, बर्तन मांज दिए थे। अविनाश ने पूछा, “तुम यह सब क्यों कर रही हो?” अनीता बोली, “आपने हमें आसरा दिया, बदले में घर थोड़ा व्यवस्थित कर दिया।” उसके शब्दों ने अविनाश को भीतर तक छू लिया—वही शब्द उसकी मृत पत्नी कहा करती थी।
अनीता ने अपनी कहानी सुनाई—पति की मौत, मायके-ससुराल से निकाली गई, सड़क पर भटकना, बेटे की भूख। अविनाश ने कहा, “अगर चाहो तो यहीं रहो, घर संभालो, बदले में छत और भोजन मिलेगा।” अनीता संकोच में थी, “गांव वाले क्या कहेंगे?” अविनाश ने दृढ़ता से जवाब दिया, “लोग तो बातें बनाएंगे ही, लेकिन तुम्हें छोड़ना इंसानियत की हार होगी।”
तीनों की जिंदगी धीरे-धीरे बदलने लगी। अनीता घर संभालती, प्रियांशु अविनाश को बाबा कहने लगा। लेकिन गांव की जुबान थमती नहीं। एक दिन कुछ बुजुर्गों ने अविनाश के दरवाजे पर आकर कहा, “जवान औरत को घर में रखना गांव की मर्यादा के खिलाफ है। या तो इसे बाहर करो, या गांव छोड़ो।” अविनाश ने पूजा घर से सिंदूर लाकर सबके सामने अनीता की मांग भर दी—”अब यह मेरी पत्नी है। किसी को ऐतराज है तो सामने आए।”
गांव वाले चुप हो गए। अनीता की आंखों में आंसू थे—इस बार दुख के नहीं, कृतज्ञता के। अब हवेली में रौनक थी। प्रियांशु अविनाश को पिता मानने लगा, अनीता ने परिवार पा लिया। धीरे-धीरे समाज भी बदल गया। लोग कहने लगे, “शायद यही अच्छा हुआ, वरना महिला और उसका बच्चा बर्बाद हो जाते।”
समय बीता, घर में खुशियां लौट आईं। अनीता और अविनाश ने मंदिर जाकर विधिवत विवाह किया। गांव के लोग भी शामिल हुए। सबकी आंखों में सवाल था—क्या इंसानियत रिश्तों से बड़ी हो सकती है? लेकिन जब उन्होंने अनीता के चेहरे पर संतोष और प्रियांशु के चेहरे पर पिता का साया देखा, तो सबने स्वीकार कर लिया कि यही सही था।
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