🌸 बेटी – वरदान या बोझ? मीरा की कहानी 🌸

रात के दो बजे थे। अस्पताल के कमरे में गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था। बस एक मासूम रोने की आवाज़ उस खामोशी को चीर रही थी। मीरा ने पसीने से भीगे माथे पर हाथ रखा और थकी हुई आँखों से देखा — नर्स उसकी गोद में एक नन्हीं सी बच्ची रख रही थी।

वो मुस्कुराई। आंखों में आँसू भी थे और संतोष भी। उसने बच्ची को सीने से लगाया —
“मेरी बिटिया… तू आ गई ना? अब सब ठीक हो जाएगा।”

दरवाजे पर खड़ा उसका पति अरुण ठिठक गया। नर्स ने मुस्कुराकर कहा —
“बधाई हो सर, बेटी हुई है।”
अरुण के चेहरे पर मुस्कान नहीं आई। उसकी आँखों में जैसे अंधेरा उतर आया। उसने धीरे से बुदबुदाया —
“तीसरी बार भी…”

उसकी आवाज़ में ऐसी ठंडक थी कि कमरे का सारा सुकून जम गया। मीरा का दिल कांप उठा। उसने बच्ची को और कसकर सीने से लगाया।

कुछ देर बाद अरुण अंदर आया। चेहरा कठोर, आँखों में शिकायतें।
“तू जानती है मुझे क्या चाहिए था?”
मीरा ने हकला कर कहा, “क्या चाहिए था, अरुण?”
“बेटा, मीरा! बेटा जो मेरा नाम आगे बढ़ाए, जो मेरा सहारा बने।”

मीरा की आँखें भर आईं —
“भगवान ने जो दिया वही हमारा है। देखो ना, कितनी प्यारी है।”
अरुण कड़वी हंसी हंसा —
“प्यारी? अब तक तीन-तीन प्यारी बेटियाँ हो चुकी हैं। कभी सोचा है उनका खर्च? स्कूल, कपड़े, शादी? और आखिर में… किसी और के घर चली जाएंगी। मुझे अपना वंश चाहिए, मीरा, बेटी नहीं।”

मीरा के गालों पर आँसू फिसल पड़े —
“अरुण, ये तेरी ही संतान है, तेरे ही खून का अंश!”
“नहीं, मीरा। ये मेरी किस्मत का अभिशाप है।”

कमरे में सन्नाटा छा गया। बस नन्हीं बच्ची की सिसकियाँ गूंज रहीं थीं। मीरा ने उसे गोद में झुलाते हुए फुसफुसाया —
“जिसे आज उसने सजा कहा है, कल वही उसकी पहचान बनेगी।”


तीन दिन बाद अस्पताल से छुट्टी मिली। मीरा बच्ची को लेकर घर लौटी। दरवाजे पर सास सरला देवी खड़ी थीं।
“सब ठीक है ना बेटा?” उन्होंने पूछा।
अरुण ने थकी आवाज़ में कहा, “ठीक है, माँ… फिर वही हुआ — तीसरी बार भी बेटी।”

सरला बोलीं, “बेटी भी तो लक्ष्मी का रूप होती है।”
अरुण झल्ला उठा —
“लक्ष्मी नहीं माँ, ये बोझ हैं। बेटियाँ घर बसाने नहीं, उजाड़ने आती हैं।”

मीरा की आँखें नम थीं लेकिन चेहरा शांत। उसने कहा —
“अरुण, तेरे लहजे का ज़हर एक दिन तुझे ही जलाएगा।”
“बस मीरा! अब फैसला हो चुका है — या बेटा, या ये रिश्ता।”

मीरा की साँस थम गई।
“अरुण… ऐसा मत कहो।”
“कह दिया मैंने। अब तू और तेरी बेटियाँ मेरे लिए पराई हैं।”

सरला देवी रो पड़ीं —
“पागल मत बन बेटा, बेटियाँ घर उजाड़ती नहीं, बसाती हैं।”
पर अरुण का दिल पत्थर बना रहा।

मीरा ने गहरी सांस ली। “ठीक है, अरुण। अगर तुझे लगता है मैं बोझ हूँ… तो मैं जा रही हूँ।”
उसने नवजात को गोद में लिया, तीनों बेटियों का हाथ पकड़ा, सास के पैर छुए —
“माँ, आशीर्वाद दीजिए। मैं हारने नहीं जा रही… बस अपनी पहचान खोजने जा रही हूँ।”

और वो निकल पड़ी — रात के अंधेरे में, हल्की बारिश में भीगती हुई, अपने नए सफर पर।


बारिश में भीगी साड़ी और कांपते बच्चे… पर उसके कदम मजबूत थे।
मंदिर के बरामदे में उसने शरण ली। तीनों बेटियाँ उसके आंचल में सिमटी हुई थीं।
मीरा ने आसमान की ओर देखा —
“हे भगवान, तू ही इन बच्चियों का सहारा है। मुझे बेटे की नहीं, बस रोटी कमाने की ताकत दे देना।”

सुबह की पहली किरण पड़ी तो मंदिर के पुजारी ने देखा —
“बेटी, कहां से आई हो?”
मीरा ने धीमी आवाज़ में कहा, “घर से निकाली गई हूँ। अब यही मेरा घर है।”

पंडित बोले — “माँ दुर्गा सब ठीक करेंगी। यहाँ रहो, लेकिन कुछ काम करना होगा।”
मीरा मुस्कुरा दी — “काम से ही तो जिंदगी चलती है।”

वो मंदिर की सफाई करने लगी। झाड़ू-पोछा, फूल माला बनाना, दिया सजाना। हर काम में श्रद्धा। हर रात आरती के समय वह बस यही प्रार्थना करती —
“भगवान, मुझे बेटे की नहीं, बेटियों के लिए हिम्मत दे।”

दिन बीतते गए। दिया, नैना और अनवी बड़ी होने लगीं। मीरा ने उन्हें सरकारी स्कूल में दाखिल कराया।
मुख्य अध्यापक ने पूछा, “तीन-तीन बेटियाँ संभाल लोगी?”
मीरा ने दृढ़ता से कहा, “माँ हूँ मैं। संभाल लूंगी।”

पहले दिन जब तीनों नंगे पांव स्कूल गईं, मीरा की आँखों से खुशी के आँसू बहे।
वो बोली — “अरुण, तूने जिन्हें बोझ कहा था, देखना, यही एक दिन तेरी इज्जत बनेंगी।”


मीरा दिन में मंदिर में काम करती, शाम को घरों में बर्तन मांजती, और रात को दीपक की लौ में बच्चियों को पढ़ाती।
एक रात दिया ने पूछा —
“मां, पापा हमें लेने क्यों नहीं आते?”
मीरा मुस्कुराई — “क्योंकि भगवान ने हमें खुद पर भरोसा करना सिखाया है।”

कभी जब अनवी भूख से रोती, मीरा अपनी थाली उसे दे देती और खुद मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ जाती। ठंडी हवा उसके आँसू सुखा देती, लेकिन हौसला कभी नहीं डिगा।

साल बीतते गए। बेटियाँ जवान हुईं, और मीरा बूढ़ी लगने लगी।
दिया पुलिस अधिकारी बनी। फोन पर बोली —
“माँ, तेरी मेहनत रंग लाई। तेरी बेटी अब अफसर बन गई।”
मीरा फूट-फूटकर रो पड़ी। “भगवान, अब मुझे और क्या चाहिए?”

नैना डॉक्टर बनी। गांव में क्लिनिक खोला। कहती —
“दवा से पहले दुआ मांग लो, मेरी मां ने यही सिखाया है।”
अनवी अध्यापिका बनी, बच्चों को पढ़ाते हुए कहती —
“पढ़ाई ही वह चाबी है जो जिंदगी के दरवाजे खोलती है।”

अब मीरा उसी मंदिर के पास बने छोटे से बंगले में रहती थी — मेहनत की दीवारों वाला घर।
हर सुबह बेटियाँ काम पर जातीं, शाम को लौटतीं तो मीरा आरती की थाली लेकर दरवाजे पर खड़ी होती —
“आ गई मेरी लक्ष्मियाँ!”
तीनों हँसतीं — “हाँ माँ, तेरी पूजा ही तो सबका सहारा है।”


एक दिन, जब सूर्य अस्त हो रहा था, नैना अस्पताल से लौट रही थी। बंगले के बाहर उसने देखा — एक दुबला, झुका हुआ बूढ़ा आदमी दरवाजे पर बैठा है। कपड़े फटे हुए, आँखों में थकान और पछतावा।

ड्राइवर बोला — “मैडम, ये रोज़ आता है। कुछ मांगता नहीं, बस बैठा रहता है।”
नैना कार से उतरी। पास गई। चेहरा देखा… और जड़ हो गई।
वो उसका पिता — अरुण था।

दिल काँप गया। वो घर की ओर भागी —
“माँ… बाहर कोई बैठा है… शायद पापा।”

मीरा ने उसकी आँखों में देखा। कुछ पल बाद दरवाज़ा खुला।
बाहर वही अरुण, झुकी कमर, सफेद दाढ़ी, काँपते हाथ।
वो बोला — “मीरा…”

मीरा ठिठक गई। सालों का दर्द आँखों में तैर गया।
“किस्मत… तू सच में खेल खेलती है,” उसने कहा।

अरुण कांपती आवाज़ में बोला —
“मीरा, तू अब भी उतनी ही दयालु लगती है। तूने मुझे पहचान लिया?”
“कैसे भूल सकती हूँ वो चेहरा जिसने मेरी दुनिया उजाड़ दी थी।”

अरुण की आँखों से आँसू बहे —
“मीरा, जब तू गई थी, मैंने सोचा जिंदगी आसान है। दूसरी शादी की, दो बेटे हुए। सब कुछ उन पर लुटा दिया — घर, ज़मीन, बैंक। सोचा, अब सहारा मिल गया। पर एक दिन उन्होंने ही मुझे निकाल दिया। अब कोई नहीं है। मैं अकेला हूँ।”

मीरा की आँखें भीग गईं। सोचने लगी — जिस आदमी ने बेटियों को बोझ कहा था, आज वही भगवान की दया पर टिका है।

अरुण ने हाथ जोड़ दिए —
“मीरा, मुझे माफ कर दे। मैंने बहुत अन्याय किया। अब समझ आया — बेटा वारिस नहीं होता, जो मां-बाप का मान रखे वही सच्चा संतान होता है।”

तीनों बेटियाँ पीछे खड़ी थीं। उनकी आँखों में आँसू थे, पर नफरत नहीं — बस दया।
दिया आगे बढ़ी —
“माँ, चाहे जैसा भी हो, आखिर यह हमारे पिता हैं।”

मीरा ने गहरी सांस ली। मन टूटा, पर चेहरे पर शांति थी।
“अरुण, मैं तुझे माफ नहीं कर सकती, क्योंकि तूने सिर्फ मुझे नहीं — इन तीन देवियों को भी ठुकराया था।”

अनवी ने मां का हाथ पकड़कर कहा —
“माँ, अगर तू हमें भगवान का रूप मानती है, तो हमें भी भगवान जैसी करुणा दिखाने दे।”

मीरा ने बेटियों की ओर देखा — वही सच्चाई, वही करुणा जो उसने उन्हें सिखाई थी।
कुछ पल सोचकर बोली —
“ठीक है, तेरे पिता हैं। पिता चाहे जैसे हों, पिता रहते हैं। पर जो तूने खोया है, वो कभी नहीं मिलेगा। तू इस घर में रह सकता है, मगर रिश्तों की तरह नहीं — बस इंसान की तरह।”

अरुण की आँखें नम थीं —
“मीरा, तू देवी है।”
मीरा ने कहा — “नहीं, मैं बस एक माँ हूँ, जिसने अपने बच्चों से इंसानियत सीखी है।”


अब अरुण बंगले के पीछे वाले हिस्से में रहता था। वही माली बन गया।
सुबह पौधों में पानी डालता, शाम को दूर से बेटियों को देखता — गर्व के आँसू उसकी आंखों में छलक आते।
मीरा रोज़ मंदिर की घंटी बजाती और कहती —
“जिसे मेरे पति ने बोझ समझा था, वही अब मेरी ताकत हैं।”

एक दिन मीरा ने देखा — अरुण मंदिर के पास बैठा भगवान की मूर्ति के सामने पानी का लोटा रखे कुछ बुदबुदा रहा था।
“मीरा… अब मैं थक गया हूँ,” उसने कहा।
“सारी उम्र जिस बेटे का सहारा ढूंढा, वही मुझे छोड़ गया। और जिन बेटियों को मैंने बोझ कहा, उन्हीं के घर में आज मुझे छाँव मिली है।”

मीरा की आँखों से आँसू बह निकले —
“भगवान ने तुझे वही सिखाया, जो तू कभी समझ नहीं पाया — बेटी जिम्मेदारी नहीं, दौलत होती है।”

अरुण ने सिर झुका लिया —
“मीरा, अगर मैं उस दिन तुझे घर से ना निकालता, तो शायद आज हमारी दुनिया कुछ और होती। लेकिन शायद भगवान को यही मंजूर था… ताकि तू और तेरी बेटियाँ उस आसमान तक पहुंच सको जहाँ तक मेरी सोच कभी नहीं पहुंची।”

मीरा बोली —
“हर इंसान का अपना समय होता है समझने का, अरुण… तूने बस बहुत देर कर दी।”


शाम ढल रही थी। मीरा जब मंदिर से लौटी तो देखा — अरुण चारपाई पर लेटा है। चेहरा शांत, आँखें बंद, होंठों पर हल्की मुस्कान।
मीरा पास गई, माथे पर हाथ रखा — शरीर ठंडा था।
आँसू अपने आप निकल पड़े।
“भगवान, तूने जो किया, शायद वही न्याय था,” उसने फुसफुसाया।

तीनों बेटियाँ दौड़ीं, पिता के पास आईं।
नैना ने माँ को थामा, अनवी ने भगवान के आगे दीप रखा।
तीनों ने एक साथ कहा —
“माँ, अब उन्हें शांति मिल गई।”
मीरा बोली —
“हाँ बेटियों, अब उन्हें शांति मिल गई। जिसने बेटियों को ठुकराया, वही अब उन्हीं की दया से स्वर्ग गया है।”


अगले दिन बंगले के आंगन में अंतिम संस्कार हुआ।
मीरा की आँखें आसमान की ओर थीं।
“हे भगवान,” उसने कहा,
“तूने जो किया, वो न्याय था। उसने हमें छोड़ा, तूने हमें संभाला। और अब वो तेरे पास लौट गया। धन्यवाद, प्रभु, तूने सिखाया कि बेटी कभी बोझ नहीं होती।”

उस रात मीरा ने भगवान के सामने दीप जलाया —
“अब मेरा कर्तव्य पूरा हुआ। तूने अपमान दिया ताकि मैं ताकत सीख सकूँ। बेटियाँ दी ताकि मैं तेरा चमत्कार देख सकूँ। अब इन्हें सदा खुश रखना — यही मेरी आखिरी प्रार्थना है।”

दीपक की लौ झिलमिलाई।
हवा में शांति घुल गई।
मीरा ने आंखें बंद कीं — मुस्कान उसके होठों पर थी।

उसकी कहानी खत्म हो गई थी, लेकिन उसकी सीख हमेशा ज़िंदा रहेगी —

बेटी बोझ नहीं, वरदान है।

वंश नाम से नहीं, संस्कार और कर्म से बढ़ता है।
देर हो सकती है, पर न्याय कभी हारता नहीं।
रिश्ते खून से नहीं, व्यवहार से बनते हैं।

जय हिंद। जय भारत।