10 साल का अनाथ बच्चा एक करोड़पति की कार साफ करता था || उसे नहीं पता था कि आगे क्या होगा
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शहर के उस पुराने मोहल्ले में जहां संकरी गलियां एक दूसरे से मिलकर भूलभुलैया जैसा जाल बनाती थीं, वहीं एक टूटा-फूटा सा मकान खड़ा था। मकान की खिड़कियों पर जाले की तरह उगी बेलें झूल रही थीं, दीवारों पर सालों पुराने काले धब्बे किसी अधूरी कहानी की गवाही देते थे। इमारत के तीसरे तले पर, एक छोटे से अंधेरे कमरे में, अर्जुन एक टूटी कुर्सी पर बैठकर अपने कैनवास पर रंग बिखेर रहा था। कमरे की एकमात्र खिड़की टूटी शीशों और जाली से ढकी थी, जिससे बीच-बीच में धूप की हलकी किरणें आतीं और कमरे में धूल की लकीरों को नाचने के लिए बुलातीं। अर्जुन ने मन ही मन सोचा कि यह धूल ही तो उसके बचपन के गांव की मिट्टी की याद दिलाती है, जहां लंबे-लंबे आम के पेड़, पहाड़ी की ठंडी हवा और मिट्टी की सौंधी खुशबू हर सुबह उसे जगाया करती थी।
अर्जुन का जीवन रंगों और कल्पनाओं से भरा था, लेकिन उसकी आत्मा में एक खामोशी थी जो रंगों की चमक को फीका कर देती। तीन साल पहले जब उसकी सगाई टूट गई थी और दोस्त एक-एक करके शहर छोड़कर चले गए थे, तब से वह अकेला हो गया था। उसकी मां ने उसे वहीं छोड़ दिया था, जब वह मात्र बारह साल का था, और पिता की मौत ने परिवार की खुशहाली को चुपके से अपनी कौंधती सदा में बदल दिया। शहर के नामी आर्ट गैलरीयों ने एक बार उसका टैलेंट भांपा था, लेकिन व्यापार और रिश्तों की उलझनों ने उसे हाशिए पर पहुंचा दिया। अब वह दिन-रात बस एक उम्मीद बुनता रहता—कि कहीं से कोई उसे अपनी पेंटिंग के लिए बुला ले, उसकी कला को सराहे, उसकी अधूरी इच्छाओं को पूरा करे।
हर सुबह सात बजे, अर्जुन कम्बल ओढ़े बाहर निकलता, मकान के ठीक नीचे, एक बगीचे जैसी जगह थी—एक संकरा चौक जहाँ एक पेड़ की जड़ों से उठी फुटपाथ की सड़क ने रास्ता काट लिया था। पेड़ की जड़ों के बीच एक कुर्सी थी, जिसके पास हर रोज एक लड़की आती। लड़की को सब ‘राधा मैडम’ कहते, क्योंकि वह पुरानी राधा-कृष्ण की माला लिए अक्सर गाना गा जाती। उसके हाथ में गुलाबी जार का एक डिब्बा रहता और डिब्बे में मोतियों जैसे सफेद चावल। उसकी आंखों में ऐसा अँधेरा फैला था कि कोई सोच भी न सकता था कि भीतर कितना उजाला होगा। वह अँधी थी, पर आवाज उसकी तेज थी, सुर उसकी मधुर। हर कोई शोर-शराबे के बावजूद अचानक चुप हो जाता और सुनता चला जाता उस लड़की की नरम-सी आवाज को।

एक दिन अर्जुन ने देखा कि लड़की किस्मत तलाशती इधर-उधर देखने की कोशिश कर रही थी। उसे समझने में देर नहीं लगी कि वह राधा थी। राधा ने जैसे ही गाना शुरू किया, कुछ सुर अजीब-से झनझनाकर टूट रहे थे। उसने धीमे से गाल पर हाथ रखा, जैसे चश्मा टूट जाने पर आँख में कांटा चुभा हो। अर्जुन के दिल में बेचैनी हुई और वह खींचकर अपनी स्टूल ले आया, राधा के पास खड़ा हो गया। राधा गाना छोड़कर इधर-उधर देखती रही, फिर आश्चर्य से बोली, “आप कौन?” अर्जुन मुस्कुरा गया, “मैं अर्जुन, तुम्हारे सुरों का सच्चा श्रोता।” राधा चिरक उठी, “मैं यहां कोरा डब्बा भरने आई थी, गाने से मेरा क्या?” अर्जुन ने धीमी मुस्कान से कहा, “तेरे सुरों से लोगों के दिल भर आते हैं, मैं बस सुनना चाहता हूं।” राधा ने अविश्वास से देखा—एक अँधी के लिए कोई कुछ सुनना चाहता है, यह भी कोई बात हुई? फिर उसके होठों पर हल्की-सी मुस्कान आई, उसने गली की दीवार पर रखी मेज पर अपना जार रखा और फिर से सुरों का धागा गूंथने लगी।
दिन बीतते गए, अर्जुन रोज सुबह उसी वक्त वहां पहुंचता। राधा चेहरा उठाकर देखती, मुस्कुरा देती और फिर सुरों का ताना बुन देती। कभी-कभी उसकी आवाज़ में काँपन होती, कभी-कभी लहरें खनकती। अर्जुन चुपचाप सुनता और अपने कैनवास पर रंग भरता। पेंटिंग पर राधा की आवाज़ सचमुच खुद-ब-खुद उभर आती—सफेद चावल से भरा जार, लंबी पोशाक, अँधेरी आँखें और वो सुर जो दिलों को तोड़कर जोड़ देते। फिर शाम होते-होते दोनों बात करने लगते। अर्जुन पूछता, “राधा, तुम्हारा घर कहां है?” राधा हल्की-सी हँसी के साथ कहती, “घर… कभी शहर से बाहर था, नदी के पास, मां गाती थी, पापा मंदिर जाते थे। फिर एक दिन पापा नहीं आए, मां ने कहा चलो शहर चलते हैं, लेकिन रास्ते में उनकी बस पलट गई… बस हम पहुंच गए।” उसकी आवाज़ महानगर की भीड़ में खो गई पर अर्जुन के कानों से झटके की तरह गुज़री। उसने बोला, “क्या तुम फिर कभी ओल्ड टाउन गई?” राधा ने सिर हिलाया, “नहीं, पास की सड़क पर ही अटक गया हूं।” वह दिन-रात एक सूना घर तलाश रही थी, जो बस यादों में जीता था।
एक दिन अर्जुन ने अपनी पेंटिंग ले जाकर बड़े आर्ट गैलरी में दी। गैलरी मालिक ने पूछा, “यह कैनवास तुमने किसके सुरों से रंगा है?” अर्जुन ने कहा, “एक अँधी लड़की है, राधा नाम की, जो कभी सड़क किनारे बैठकर गाती है।” मालिक ने कटाक्ष किया, “अँधी कौन देखेगा, यहां तो लोग सुंदर चेहरों को पसंद करते हैं।” अर्जुन की आंखों में रोष चमका, लेकिन उसने कुछ न कहा। फिर भुगतान लेकर लौट आया। घर पहुंचकर उसने फैसला किया कि अब पेंटिंग की जगह वो राधा की कहानी रंग भरेगा। अगले दिन उसने बगीचे में खड़ी राधा को बुलाया और कहा, “मैं तुम्हारी दास्ताँ कैनवास पर उतारना चाहता हूं।” राधा ने अविश्वास से पूछा, “मैं कैसे दिखूंगी?” अर्जुन ने मुस्कान के साथ कहा, “तुम्हारे सुरों की चमक जैसी दिखेगी।” राधा ने धीरे-से हामी भरी।
तीन दिन तक अर्जुन ने दिन-रात पेंटिंग पर काम किया। उसने कैनवास बाँधकर बीच की रेखा पर राधा को खड़ा दिखाया, हाथ में पुराना जार, सिर थोड़ा झुका, पीछे दूर अँधेरे घर की परछाई, आगे सूरज की लौहर—जैसे अँधेरी यादों को उजाले के रँगौल में पिरोया गया हो। पेंटिंग तैयार हुई, लेकिन अर्जुन मन ही मन डरता रहा कि लोग इसे समझेंगे या नहीं? क्या कोई ध्यान देगा उन सुरों की गहराई पर, उन टूटी यादों की महिमा पर?
अगली सुबह अर्जुन ने पेंटिंग साइकिल की टोकरी में बांधी और गैलरी पहुँचा। मालिक ने देखते ही सवाल किया, “इसे बेचने आए हो या दिखाने?” अर्जुन ने कहा, “बस दिखाना चाहता हूं।” मालिक ने उँगली से पेंटिंग को कोने में लटकाया, “हर हफ्ते नया शो होता है, पब्लिक के सामने लटकाना मकसद नहीं, बिकनी चाहिए।” अर्जुन ने निश्चयभरे स्वर में कहा, “मैं इसे बिल्कुल यहाँ रखना चाहता हूं, ताकि लोग राधा को सुने, उसकी आवाज़ को महसूस करें।” बुजुर्ग मालिक ने आँखें चुराई, “यहाँ बातें कला की होती हैं, कथा-वृत्तांत की नहीं।” लेकिन अर्जुन ने हार नहीं मानी और दो दिन के भीतर गैलरी में खुद पोस्टर चिपकाए—“अँधी गीतिका: राधा की आवाज़”—पोस्टरों पर सिर्फ एक लड़की का चित्र और नीचे तारीख-समय लिखा। कुछ दिन बाद लोग पोस्टर देखकर आश्चर्य से पूछने लगे, “यह कौन है?” फिर शो की शाम आई। गैलरी दो मंजिलों तक भक्तिमान लोगों से खचाखच भर गई। लोग रंग-बिरंगे कपड़े, चमकदार गहने पहनकर जब अंदर आए, तो एक साधारण पोशाक में, हाथ में डब्बा लिए राधा बैठी थी। मंच पर दो माइक और उसकी सौम्य हँसी की हल्की-कि कड़क शुरू हुई। जब सुर लहराया, तब अश्क-धारा बह निकली। गोया दीवारों पर उसकी यादों की परछाइयाँ ठहरकर बोल रही थीं। लोगों ने राधा को पहली बार सुना, उसकी आत्मा की गहराई महसूस की।
अगले ही दिन अखबारों में खबर छप गई—“गैरप्रत्याशित कलाकृति: अँधी गीतिका ने सबको चौंका दिया।” सोशल मीडिया पर लोग लिखने लगे—“कला सिर्फ देखने-समझने का नाम नहीं, सुनने-समझने का भी नाम है।” गैलरी ने अर्जुन की पेंटिंग को खरीद लिया, लेकिन उम्मीद से भी बड़ी सराहना राधा को मिली। धन-दौलत की नहीं, आवाज़ की कदर ने उसे खुश कर दिया। राधा ने पहली बार महसूस किया कि उसके भीतर जो संगीत धड़कता था, वह किसी के दिल को छू सकता है। शहर के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय ने उसे संगीत में इंटरव्यू के लिए बुलाया। अर्जुन ने सर्वस्व न्योछावर करके उसके एडमिशन का खर्च उठाया, और राधा ने जार में कोई चावल भरकर स्कूल बैग बना लिया।
एक साल बाद जब राधा ने संगीत स्नातक की परीक्षा पास की, तब अर्जुन अपनी टूटी-फूटी कुर्सी पर नहीं, एक कुर्सी पर बैठकर गैलरी में अपनी नई प्रदर्शनी देखने पहुंचा। प्रदर्शनी का थीम था “अनदेखे आवाज़ों का सौंदर्य।” हर कैनवास पर एक अँधा, बहरा या गरीब कलाकार दिखाई दे रहा था, जिनकी कलाकृति सुनने वालों के दिलों में आवाज़ पैदा कर रही थी। बीच में राधा की पहली पेंटिंग और उसके सुरों की रिकॉर्डिंग लगी थी। अर्जुन ने देखा कि लोग संतुष्ट मुस्कान लिए दीवारों से चिपके खड़े थे, तेवर बदल चुके मालिक ने अर्जुन को गले लगाया और कहा, “बेटा, तुमने दिखा दिया कि कला की कोई सीमा नहीं, सुनना भी कला है।”
जनता की प्रशंसा ने अर्जुन के भीतर के अँधेरे को उजाले में बदल दिया। उस रात जब वह देर से अपने कमरे लौटा, तो राधा ने फोन पर कहा, “महोदय, धन्यवाद समझाने के लिए कि कला सिर्फ आंखों के लिए नहीं, दिल के लिए भी होती है।” अर्जुन के गले से आवाज़ निकली, “बिना तुम्हारे सुरों के मैं खामोश रहता।” दोनों के बीच एक अनकही समझ बनी—कि सबसे महत्वपूर्ण नहीं धन, न शोहरत, बल्कि वह प्रेम है जो अँधेरों में आशा की लौ जलाता है।
कुछ साल बाद अर्जुन ने मोहल्ले की संकरी गलियों में एक छोटा-सा “इंस्पायर आर्ट सेंटर” खोला। वहां मुफ्त क्लासेस होतीं, अँधेरे, बहरे, गरीब-समृद्ध, हर उम्र के लोग आते, रंग-बिरंगे सपने बनाते। राधा रोज सुबह सात बजे जार लिए आती, गाना गाती और इकट्ठे हुए कलाकारों के दिलों पर चावल की तरह सुर बिखेरती। आसपास के बच्चे, बूढ़े, व्यापारी, सब बैठकर सुनते, कभी ताली बजाते, कभी आँखों में चमक लिए होते। ऐसा लगता कि उस पुराने पेड़ की जड़ों ने एक जादुई बुनाई फैलाई हो, जहां हर धूल धब्बा एक धुन बनकर मुस्कुराता।

इंस्पायर आर्ट सेंटर ने कई प्रतिभाओं को पहचान दिया। एक बार एक बहरा लड़का, जो गीत न गा सकता था, ध्वनि की गहराई कंप्यूटर से निकालकर कविताएं सुनाने लगा। एक बार एक गरीब महिला, जिसे लिखना नहीं आता था, रंगों की मदद से अपनी आत्मकथा कैनवास पर उकेर गई। सेंटर में एक दीवार पर अर्जुन ने बड़ी अक्षरों में लिखा: “यहां आंखों की रोशनी नहीं, दिल की सुनहरा जगमग मायने रखता है।” राधा ने उस दीवार के सामने खड़े होकर हजारों बार मुस्कुराई थी।
वह दिन दूर नहीं जब अर्जुन के बुजुर्ग पिता आयेंगे, अपनी मेहनत और संघर्ष की कहानी सुनेंगे। तब अर्जुन उन जाले-सी उगी बेलों को काटकर खुली खिड़कियों से सूर्य को बुलाएगा, वही धूल की लकीरें मिटा देगा और कहेगा, “पापा, देखिए, अब मेरा मकान फिर से रोशन है—आंसुओं की नहीं, सपनों की धूप से।” राधा पीछे खड़ी होगी, हाथ में गुलाबी जार होगा, मुस्कुराएगी और कहेगी, “जी हां, यह दुनिया अब सुनने लगी है।” उनकी कहानी इस मोड़ पर खत्म नहीं होती; यह तो शुरुआत है एक ऐसे सफर की, जहां हर दिल अँधेरे में चमकने वाली एक लौ बनकर दुनिया को जगमगाएगा।
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