स्कूल बस ड्राइवर ने अपनी सूझ बूझ से 50 बच्चों की जिंदगी बचाई फिर स्कूल में जो हुआ वो हैरान कर देगा

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बहादुर सिंह: एक स्कूल बस ड्राइवर की बहादुरी की कहानी

नैनीताल की खूबसूरत और खतरनाक पहाड़ियों के बीच बसा था ज्ञानोदय इंटरनेशनल स्कूल। यह स्कूल अपनी शानदार इमारतों, अनुशासन और अमीर घरों के बच्चों के लिए जाना जाता था। इसी स्कूल की पीली बस नंबर सात के ड्राइवर थे बहादुर सिंह। पचास वर्षीय बहादुर सिंह, नाम के जैसे ही बहादुर और अनुशासनप्रिय थे। वे एक पूर्व सैनिक थे, जिन्होंने बीस साल देश की सीमा पर सेवा दी थी। रिटायरमेंट के बाद वे अपनी इकलौती बेटी प्रीति के साथ छोटे से किराए के मकान में रहते थे। पत्नी की मौत के बाद प्रीति ही बहादुर सिंह की पूरी दुनिया थी। प्रीति का सपना था डॉक्टर बनना, और बहादुर सिंह अपनी मामूली तनख्वाह में उसकी पढ़ाई और घर का खर्चा किसी तरह चला रहे थे।

स्कूल के प्रिंसिपल मिस्टर शर्मा थे, जो अनुशासन और स्कूल की प्रतिष्ठा को सबसे ऊपर मानते थे। उनके लिए स्कूल का मतलब था अच्छे नतीजे, ट्रॉफियां और अमीर अभिभावकों से संबंध। वे हर चीज को स्कूल की इमेज के तराजू पर तौलते थे।

एक दिन मानसून की तेज बारिश के बाद पहाड़ों में मौसम बहुत खराब था। सड़कों पर फिसलन थी और जगह-जगह भूस्खलन का खतरा था। छुट्टी के बाद बहादुर सिंह बस में 50 बच्चों को लेकर हॉस्टल की ओर चले। रास्ता बेहद खतरनाक था—एक तरफ ऊंचा पहाड़, दूसरी तरफ गहरी खाई। बहादुर सिंह पूरी सतर्कता से बस चला रहे थे। बच्चे अपनी मस्ती में थे—कोई गा रहा था, कोई हंस रहा था।

तभी एक तीखे ढलान वाले मोड़ पर बहादुर सिंह ने ब्रेक लगाया, लेकिन ब्रेक पूरी तरह फेल हो गए। बस की रफ्तार बढ़ती जा रही थी। बच्चों को जब इसका एहसास हुआ तो बस में चीख-पुकार मच गई। सब बच्चे डर से रोने-चिल्लाने लगे। बहादुर सिंह का चेहरा पसीने से भीग गया, लेकिन अगले ही पल उनके अंदर का फौजी जाग गया। उन्होंने अपनी पूरी ताकत से स्टीयरिंग व्हील पकड़ा। उन्होंने बस को खाई की तरफ मोड़ने के बजाय सीधा पहाड़ की तरफ मोड़ दिया। बच्चों से चिल्लाकर कहा, “सब लोग कसकर पकड़ लो, नीचे झुक जाओ!”

एक जोरदार धमाके के साथ बस पहाड़ की चट्टानों से टकराई। शीशे टूट गए, बस अंदर से तबाह हो गई, लेकिन रफ्तार धीरे-धीरे कम हुई और आखिरकार एक बड़ी चट्टान से टकराकर बस रुक गई। बस में एक भयानक खामोशी छा गई। बहादुर सिंह का सिर स्टीयरिंग से टकरा गया था, खून बह रहा था, हाथ भी टूट गया था, लेकिन उन्हें अपने दर्द की कोई परवाह नहीं थी। उन्होंने लड़खड़ाते हुए पीछे देखा, सारे बच्चे सुरक्षित थे, किसी को मामूली चोटें आई थीं, लेकिन हर एक की जान बच गई थी। यह देखकर उनके आंसू निकल आए और वे बेहोश होकर गिर पड़े।

कुछ ही देर में मदद पहुंच गई। बच्चों को सुरक्षित बाहर निकाला गया, बहादुर सिंह को अस्पताल में भर्ती कराया गया। जब बच्चों के अमीर और प्रभावशाली मां-बाप को यह खबर मिली, वे स्कूल पहुंचे। शुरू में सबने बहादुर सिंह की बहादुरी की तारीफ की। लेकिन कहानी ने एक नया मोड़ लिया। दो दिन बाद जब बहादुर सिंह अस्पताल से पट्टी बंधवा कर लौटे, प्रिंसिपल शर्मा ने उन्हें अपने ऑफिस में बुलाया। उनके चेहरे पर तारीफ का कोई भाव नहीं था, सिर्फ गुस्सा था।

“बहादुर सिंह, तुमने क्या किया? तुम्हारी वजह से स्कूल की बस कबाड़ हो गई, 20 लाख का नुकसान हुआ है।” बहादुर सिंह हैरान थे, “साहब, मैंने बच्चों की जान बचाई।” शर्मा जी चिल्लाए, “जान बचाई या अपनी लापरवाही से सबकी जान खतरे में डाली? जांच में पता चला है कि तुम बस तेज चला रहे थे। तुम्हारी वजह से यह हादसा हुआ। तुम्हें तत्काल प्रभाव से सस्पेंड किया जाता है और बस के नुकसान की भरपाई भी तुम्हारी तनख्वाह से काटी जाएगी।”

समय बीतता गया। एक महीना गुजर गया। स्कूल में वार्षिक दिवस की तैयारियां जोरों पर थीं। इस बार फंक्शन के मुख्य अतिथि थे भारतीय सेना के रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल विक्रम सिन्हा। वे राष्ट्रीय नायक थे, उनकी बहादुरी के किस्से देशभर में मशहूर थे। संयोग से उनका पोता आरव उसी बस नंबर सात में था, जिस दिन हादसा हुआ था।

समारोह शुरू हुआ। प्रिंसिपल शर्मा ने मंच पर भाषण दिया, स्कूल की उपलब्धियों का गुणगान किया और बस हादसे को “छोटा सा हादसा” बताते हुए कहा, “हमने उस लापरवाह ड्राइवर को तुरंत नौकरी से निकालकर कड़ा संदेश दिया है कि हम अनुशासन से कोई समझौता नहीं करते।”

जनरल सिन्हा मंच पर आए। उन्होंने कहा, “मैं आज यहां भाषण देने नहीं, एक सच्चे हीरो को सलाम करने आया हूं।” पूरे ऑडिटोरियम में सन्नाटा छा गया। उन्होंने अपने सहायक को इशारा किया, स्क्रीन पर बस के डैश कैम का वीडियो चलने लगा। सबने देखा कि बस सामान्य गति से चल रही थी, अचानक ब्रेक फेल हुए, बच्चों की चीख-पुकार, और बहादुर सिंह का चेहरा—डर के साथ फौलादी इरादा। उन्होंने देखा कैसे बहादुर सिंह ने एक पल में फैसला लिया और बस को खाई में गिराने के बजाय पहाड़ से टकरा दिया। वीडियो खत्म हुआ, ऑडिटोरियम में मौत जैसा सन्नाटा था। सबकी आंखों में आंसू थे। प्रिंसिपल शर्मा शर्म से सफेद पड़ गए।

जनरल सिन्हा बोले, “यह है वह लापरवाह ड्राइवर? यह वो इंसान है जिसने अपनी जान की परवाह किए बिना हमारे 50 बच्चों की जान बचाई। और हम उसे सम्मान देने के बजाय सजा दे रहे थे। शर्म आनी चाहिए हमें।” उन्होंने बहादुर सिंह को मंच पर बुलाया। बहादुर सिंह समारोह में एक कोने में बैठे थे, शायद आखिरी बार स्कूल देखने आए थे। वे कांपते हुए मंच की तरफ बढ़े। जनरल सिन्हा ने फौजी की तरह तनकर उन्हें सैल्यूट किया। ऑडिटोरियम में मौजूद हर इंसान, हर मां-बाप, हर बच्चा अपनी जगह पर खड़ा हो गया और तालियों की गड़गड़ाहट गूंजी।

कहानी का सबसे हैरतंगेज मोड़ आया जब जनरल सिन्हा ने बहादुर सिंह की बेटी प्रीति को मंच पर बुलाया। उन्होंने प्रीति के सिर पर हाथ रखा, “बेटा, तुम्हारे पिता एक हीरो हैं और एक हीरो की बेटी के सपने कभी अधूरे नहीं रहते। आज मैं और इस बस में बैठे सभी 50 बच्चों के मां-बाप मिलकर प्रण लेते हैं कि प्रीति की पढ़ाई डॉक्टर बनने तक की सारी जिम्मेदारी हमारी होगी।”

यह सुनकर बहादुर सिंह और प्रीति फूट-फूटकर रो पड़े। जनरल सिन्हा ने आगे घोषणा की, “बहादुर सिंह अब इस स्कूल के ट्रांसपोर्ट डिपार्टमेंट के हेड होंगे और इनकी तनख्वाह प्रिंसिपल के बराबर होगी।” यह ऐसा सम्मान था जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। एक मामूली बस ड्राइवर, जिसने अपनी सूझबूझ से 50 बच्चों की जान बचाई थी, आज किस्मत ने उसे वह सम्मान दिया जो दुनिया की हर दौलत से बढ़कर था।

उसने सिर्फ एक बस को खाई में गिरने से नहीं बचाया था, उसने इंसानियत और शर्मसार होने से बचाया था। बहादुर सिंह की यह कहानी हमें सिखाती है कि सच्ची बहादुरी और फर्ज का कोई पद या वर्दी नहीं होती। वह हमारे दिल, हमारे कर्मों में होती है।

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