Bhiwani Manisha Death Case: दादा ने Haryana Police और मेडिकल कॉलेज पर अब क्या नए आरोप लगा दिए?

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भिवानी की मनीषा: अधूरे सपनों और न्याय की गूँज

हरियाणा के भिवानी ज़िले का एक छोटा-सा गाँव। खेतों के बीच खड़ा वह घर, जहाँ एक 18 साल की लड़की अपने सपनों को सँजोए हर सुबह निकलती थी। उसका नाम था मनीषा। गाँव के लोग उसे सीधी-सादी, मेहनती और शालीन लड़की के रूप में जानते थे। सपनों की गठरी बड़ी थी, लेकिन हालात छोटे। पिता की कमाई सीमित थी, परिवार आर्थिक तंगी से जूझ रहा था। फिर भी, मनीषा ने हार नहीं मानी।

वह पास के एक छोटे स्कूल में तीसरी कक्षा के बच्चों को पढ़ाती थी। महीने के छह हज़ार रुपए की तनख्वाह ही उसके घर का सहारा थी। मगर असली ख्वाहिश उसकी यह थी कि वह बीएससी नर्सिंग पढ़े, नर्स बने, और अस्पताल में लोगों की सेवा करे।

वह सोमवार… जो लौटकर नहीं आया

11 तारीख की सुबह थी। सोमवार। मनीषा ने मंदिर जाकर माथा टेका, दादा से आशीर्वाद लिया और हमेशा की तरह बस पकड़ने चली गई। दादा जी बताते हैं,
“बेटी ने कहा था— दादा, आज मैं देर से लौटूँगी। कॉलेज जाकर एडमिशन की जानकारी लेनी है।”

दोपहर को वह स्कूल से निकली और सीधे एटीएम मेडिकल कॉलेज की ओर बढ़ी। बस ड्राइवर को भी कह दिया था,
“अंकल, मेरा इंतजार मत करना, आज मैं देर से आऊँगी।”

लेकिन उस दिन का देर… हमेशा की देर बन गया।

शाम तक जब वह घर नहीं लौटी, तो परिवार बेचैन हो उठा। बार-बार कॉल करने की कोशिश की गई, आख़िरी बार 6:20 बजे घंटी बजी, पर दूसरी तरफ़ से कोई जवाब नहीं आया।

पुलिस का रवैया— ‘लड़की भाग गई होगी’

परिवार घबराकर ढ़गांव थाने पहुँचा। मनीषा का भाई संजय कॉलेज भी गया, CCTV कैमरे चेक करने की गुहार लगाई। लेकिन पुलिस ने हाथ खड़े कर दिए।
112 पर तैनात जवानों ने कहा, “लड़की भाग गई होगी, चिंता मत करो।”

पर दादा जी का दिल कह रहा था— “मेरी पोती भाग नहीं सकती। वह यहाँ एडमिशन के लिए आई थी।”

कॉलेज के गेट पर दो युवक नशे में धुत्त बैठे थे। पूछने पर उन्होंने कहा, “कोई लड़की आई ही नहीं।” पुलिस ने वही बात मान ली। ना कैमरे चेक हुए, ना कॉलेज में तलाशी।

परिवार की शिकायत को भी गंभीरता से नहीं लिया गया।

13 तारीख की सुबह— लाश नहर के किनारे

दो दिन की बेचैनी और तलाश के बाद, 13 तारीख की सुबह गाँव में यह खबर पहुँची कि पास की नहर में एक युवती की लाश मिली है।

संजय जब वहाँ पहुँचा, तो उसने कपड़ों और हाथों से पहचान लिया—
“यह मेरी बहन है… मेरी मनीषा।”

लाश की हालत देखकर सब सन्न रह गए। शरीर पर गहरे ज़ख्म थे। परिवार का आरोप है कि उसके साथ बर्बरता की गई, यहाँ तक कि अंग भी निकाले गए।

पोस्टमार्टम की पहेली और उठते सवाल

पहले पोस्टमार्टम में रिपोर्ट आई कि मनीषा ने ज़हर खाया था, यानी उसने आत्महत्या की। फिर यह अफवाह भी फैलाई गई कि “उसकी लाश कुत्ते खा गए।”

पर दादा जी सवाल उठाते हैं—
“अगर ज़हर खाया था, तो गला क्यों कटा? अगर कुत्ते खा गए, तो शरीर पर रसायन क्यों गिरा? हमारी बेटी कॉलेज के अंदर से गायब हुई थी। ये सब कॉलेज वालों का काम है।”

परिवार का आरोप और भी गंभीर है—
“उसकी किडनी और आँखें तक निकाल दी गईं।”

हालाँकि प्रशासन का कहना है कि दूसरे पोस्टमार्टम में शरीर के हिस्से जांच के लिए अलग किए गए थे। लेकिन गाँव वाले इसे सच मानने को तैयार नहीं।

जनता बनाम सिस्टम

गाँव और आसपास के दर्जनों लोग सड़क पर उतर आए। धरना शुरू हो गया। टेंट लगाए गए। लेकिन अफवाह फैला दी गई कि परिवार ने अंतिम संस्कार का फैसला कर लिया है।

दादा जी ने गुस्से और टूटे दिल से कहा,
“यह झूठ है। हम जब तक न्याय नहीं पाएँगे, अंतिम संस्कार नहीं करेंगे। हमें न नौकरी चाहिए, न पैसे। बस न्याय चाहिए।”

परिवार का आरोप साफ है— बड़े नेताओं और रसूखदार लोगों के बेटों का हाथ इस पूरे मामले में है। इसीलिए पुलिस और प्रशासन टालमटोल कर रहा है।

मुख्यमंत्री की नज़र, लेकिन इंसाफ अब भी दूर

हरियाणा के मुख्यमंत्री ने बयान दिया कि वह केस की “सीधी मॉनिटरिंग” कर रहे हैं। लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि 19 तारीख तक न मनीषा का अंतिम संस्कार हुआ, न परिवार की माँगें पूरी हुईं।

लोगों की मांग है—

    सीबीआई जांच हो।

    तीसरा पोस्टमार्टम दिल्ली एम्स में हो।

    कॉलेज प्रशासन और पुलिस की भूमिका पर सख्त कार्रवाई हो।

एक दादा का टूटा दिल, अधूरे सपने

इंटरव्यू के दौरान दादा जी कई बार रो पड़े। उनका गला रुंध गया।
“मेरी पोती ने कहा था— दादा, मैं नर्स बनूँगी। गरीबों का इलाज करूँगी। पर उसके सपने अधूरे रह गए। अगर न्याय मिल जाए, तो मेरी बेटी अमर हो जाएगी।”

मनीषा घर में दो बहनों में बड़ी थी। 13 साल बाद उसकी छोटी बहन पैदा हुई थी। अब वह छोटी बहन रो-रोकर यही कहती है—
“दीदी क्यों नहीं लौटी?”

गाँव की पुकार

गाँव के लोग कहते हैं—
“मनीषा जैसे बच्चे हमारे सपनों का चेहरा हैं। अगर उसके लिए इंसाफ नहीं मिला, तो किसी बेटी के लिए नहीं मिलेगा।”

गाँव आज भी आंदोलन पर बैठा है। परिवार ने खाना-पीना तक छोड़ दिया। सबकी आँखों में सिर्फ़ एक ही सवाल है—
“क्या सचमुच गरीब की बेटी को इंसाफ मिलेगा?”


समापन

मनीषा की मौत सिर्फ़ एक लड़की की मौत नहीं है। यह एक पूरे गाँव की उम्मीद का टूटना है। यह सवाल है उस व्यवस्था से, जो हर बार गरीब की आवाज़ को दबा देती है।

वह नर्स बनना चाहती थी। मरीजों की सेवा करना चाहती थी। लेकिन सिस्टम की बेरुख़ी और शायद कुछ ताक़तवर लोगों की साज़िश ने उसे ऐसी मौत दी, जिसकी कल्पना भी किसी ने नहीं की थी।

आज उसकी लाश घर में पड़ी है। परिवार इंतज़ार कर रहा है—
इंसाफ़ का।

क्योंकि जब इंसाफ़ मिलेगा, तभी मनीषा अमर होगी।