💥 वसीयत का ‘अग्नि परीक्षा’ क्लॉज़: ₹850 करोड़ का दांव और देओल परिवार का ‘अहंकार’

 

प्रकरण 1: जुहू में छाई ‘धीमी’ खामोशी

 

धर्मेंद्र जी के निधन को 72 घंटे से भी ज़्यादा का वक़्त बीत चुका था। मुंबई में जुहू स्थित उनके घर की हवा में एक अजीब सा सन्नाटा छाया था—एक ऐसा सन्नाटा जैसे किसी ने पूरे परिवार की धड़कनों को पकड़कर धीमा कर दिया हो। पूरा देओल परिवार गहरे शोक में डूबा था।

लेकिन आज, घर में कुछ और होने वाला था। आज वह दस्तावेज़ आने वाला था जिसे धर्मेंद्र ने अपने आख़िरी दिनों में तैयार किया था—उनकी वसीयत

तभी, घर के दरवाज़े पर एक गाड़ी आकर रुकी। एक वकील की एंट्री हुई, जो देओल परिवार के सभी महत्वपूर्ण दस्तावेज़ों को संभालते थे। उनके हाथ में एक पुरानी, भारी-भरकम फ़ाइल थी। घर में सबकी नज़रें उसी फ़ाइल पर टिक गईं।

कमरे में प्रकाश कौर, सनी देओल, बॉबी देओल, हेमा मालिनी, और ईशा देओल—आज ये सभी पहली बार एक छत के नीचे, एक ही कमरे में मौजूद थे। वर्षों की दूरियाँ और अनकहे गिले-शिकवे हवा में घुले हुए थे।

वकील ने धीरे से कहा, “यह धरम जी की आख़िरी वसीयत है। उन्होंने इसमें वो सब लिखा है जो वह अपने जाने से पहले करना चाहते थे।”

प्रकरण 2: ₹850 करोड़ का दांव और ‘एकता’ की शर्त

वकील ने वसीयत पढ़नी शुरू की, और पहले ही पैराग्राफ़ में जो सच सामने आया, उसने पूरे देओल परिवार को हिलाकर रख दिया।

धर्मेंद्र जी की कुल जायदाद ₹850 करोड़ की थी, जिसमें उनका घर, प्रॉपर्टीज़, रेस्तरां, जेवर और होटल बिज़नेस सब कुछ शामिल था। यह जायदाद इतनी बड़ी थी कि इसके लिए लड़ाई होना तय था।

लेकिन धर्मेंद्र जी, जिन्हें अपने बच्चों की प्रकृति का पूरा ज्ञान था, उन्होंने एक ऐसा ‘क्लॉज़’ (Clause) डाल दिया, जिसने सारे समीकरण पलट दिए। वकील ने ज़ोर देकर वह हिस्सा पढ़ा:

“मेरी पूरी जायदाद (दो घर छोड़कर) तभी मेरे बच्चों में—मेरे छह बच्चों में—बराबर-बराबर बटेगी जब वे सभी एक साथ रहेंगे। और अगर मेरी दोनों पत्नियाँ (प्रकाश कौर और हेमा मालिनी) और सभी बच्चे मेरे जाने के बाद एक साथ, एक परिवार के रूप में नहीं रहेंगे, तो जायदाद का एक पैसा भी किसी को नहीं मिलेगा।”

वसीयत में आगे स्पष्ट किया गया था:

“मेरे पैसे, मेरी प्रॉपर्टीज़, मेरा होटल का बिज़नेस सब कुछ मेरे जाने के बाद, अगर यह लोग (परिवार) साथ में नहीं रहे, तो उसे पूरी तरह से एक चैरिटेबल ट्रस्ट (धर्मेंद्र नाम के) को दे दिया जाए।”

और इस फ़ैसले पर अमल करने के लिए परिवार को सिर्फ़ 15 दिन का समय दिया गया था।

प्रकरण 3: सनी और बॉबी का ‘अहंकार’ टूटा

 

यह ‘क्लॉज़’ सुनकर पूरे कमरे में सन्नाटा छा गया। अगर छह बच्चे एक साथ रहते हैं, तो एक बच्चे के हिस्से में तक़रीबन ₹141 करोड़ (850/6) रुपए आते हैं। यह कोई छोटी रकम नहीं थी।

इस ‘क्लॉज़’ ने सबसे ज़्यादा झटका सनी देओल और बॉबी देओल को दिया।

वे दोनों, जिन्होंने हमेशा हेमा मालिनी, ईशा और अहाना को परिवार का हिस्सा नहीं माना, जिन्होंने अंतिम संस्कार के वक़्त भी हेमा को अपमानित किया और उन्हें दूर रखा, आज अपने पिता के लिखे शब्दों के सामने असहाय थे। उनका सारा अहंकार चूर-चूर हो गया।

उन्हें पता था कि अगर उन्हें अपने पैसे, अपनी विरासत, अपने पिता की कमाई का इस्तेमाल करना है, तो उन्हें वह करना होगा जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी:

उन्हें हेमा मालिनी को स्वीकार करना होगा। उन्हें हेमा मालिनी को ‘घर’ के अंदर एंट्री देनी होगी।

वकील के पढ़ने के दौरान, हेमा मालिनी की आँखें भर आईं। यह उनके लिए पैसे की जीत नहीं थी; यह इंसाफ़ की जीत थी। धर्मेंद्र जी जानते थे कि उनके जीते-जी तो ये बच्चे हेमा को गले नहीं लगाएँगे, इसलिए उन्होंने पैसे का सहारा लेकर परिवार को एक होने पर मजबूर कर दिया।

प्रकरण 4: 46 साल का दरवाज़ा खुला

 

सनी और बॉबी की आँखें नीचे थीं। 46 साल से, हेमा मालिनी धर्मेंद्र जी के घर में नहीं आ पाई थीं, क्योंकि वहाँ प्रकाश कौर रहती थीं। अब सवाल यह था कि क्या पैसों के लिए ये लोग हेमा जी को घर में आने देंगे?

धर्मेंद्र जी ने अपनी वसीयत में हेमा मालिनी के लिए एक भावनात्मक संदेश भी दिया था:

“हेमा, तुमने मेरे बाद आधी दुनिया संभालनी है। और सनी, मेरे जाने के बाद तुझे परिवार को संभालना है, और यह मेरा आशीर्वाद है।”

धर्मेंद्र ने सनी को सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी सौंपी थी: दोनों दुनियाओं को एक बनाए रखना।

सनी ने हल्का सा सिर झुकाया। उन्हें एहसास हुआ कि यह सिर्फ़ पैसों का मामला नहीं है, यह पिता के सपनों को पूरा करने का ‘अग्नि परीक्षा’ है। अगर वे आज भी हेमा को स्वीकार नहीं करते हैं, तो उनकी पूरी प्रॉपर्टी एक ट्रस्ट को चली जाएगी, और समाज में उनकी बड़ी बदनामी होगी।

प्रकरण 5: एकता या ट्रस्ट? 15 दिन की चुनौती

 

धर्मेंद्र जी ने कमाल कर दिया था। उन्होंने जिस तरीक़े से विल बनाई थी, उससे एक चीज़ साबित थी कि वह तहे दिल से चाहते थे कि दोनों परिवार एक हो जाएँ।

अब देओल परिवार के सामने एक कठिन विकल्प था:

    अहंकार छोड़ो और एक हो जाओ: हेमा मालिनी को घर में स्वीकार करो, उन्हें वह सम्मान दो जो एक पत्नी और माँ को मिलना चाहिए, और ₹850 करोड़ की विरासत को बचाओ।

    नफ़रत चुनो: अगर वे हेमा मालिनी को स्वीकार नहीं करते हैं, तो पूरी प्रॉपर्टी ट्रस्ट को चली जाएगी, और उनके हिस्से में कुछ नहीं आएगा।

वसीयत ने वह कर दिखाया जो कोई अदालत या समाज नहीं कर सकता था—उसने सनी देओल और बॉबी देओल को उनकी सौतेली माँ हेमा मालिनी के सामने झुकने पर मजबूर कर दिया था।

अब इन 15 दिनों के अंदर उन्हें फ़ैसला लेना था। क्या वे अपने ढाई किलो के हाथ का गुस्सा, अपने पिता की विरासत और अपनी माँ (प्रकाश कौर) के त्याग से बड़ा समझेंगे?

यह सिर्फ़ पैसों की कहानी नहीं थी, यह प्यार, नफ़रत, इंसाफ़, और वफ़ादारी की उस कसौटी की कहानी थी, जिसे धर्मेंद्र जी ने अपने जाने के बाद भी परिवार के सामने खड़ा कर दिया था।