कूड़ा बीनने वाले बच्चे ने कहा – ‘मैडम, आप गलत पढ़ा रही हैं’… और अगले पल जो हुआ, सब हैरान रह गए
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दीवार के उस पार
प्रस्तावना
कभी-कभी ज़िंदगी बच्चों के हाथों में खिलौने नहीं देती। बस एक फटा हुआ बोरा थमा देती है।
शिवनगर की गलियों में एक ऐसा ही बच्चा था—रामू।
उसकी कहानी सिर्फ गरीबी की नहीं, बल्कि सपनों, संघर्ष और चमत्कार की थी।
यह कहानी है उस दीवार की, जो ज्ञान और अज्ञान के बीच खड़ी थी; और उस बच्चे की, जिसने उस दीवार को अपनी लगन, हिम्मत और जिद से गिरा दिया।
अध्याय 1: शिवनगर की सुबह
सुबह के पाँच बजे थे।
शिवनगर की गलियाँ धीरे-धीरे जाग रही थीं।
कहीं चाय के बर्तन खनक रहे थे, कहीं दूध वाले की साइकिल की घंटी बज रही थी।
लेकिन उसी गली के कोने में, कूड़े के ढेर के पास एक दस साल का बच्चा झुका हुआ था।
नाम था—रामू।
फटे कपड़े, पैरों में टूटी चप्पलें, चेहरे पर मिट्टी की परत, पर आँखों में अजीब सी चमक।
रामू बोरा कंधे पर लटकाए हर सुबह निकल जाता।
क्योंकि उसी बोरे में छिपी थी उसकी रोटी की उम्मीद।
पिता का कोई पता नहीं था।
कहते हैं, कई साल पहले काम की तलाश में शहर गए थे और लौटे नहीं।
माँ बीमार और कमजोर।
कभी लोगों के घर बर्तन मांझती, कभी मंदिर के बाहर बैठ जाती कुछ भीख के लिए।
रामू ने अपनी उम्र से पहले जिम्मेदारी सीख ली थी।
हर सुबह गलियों से निकलते हुए वह एक जगह जरूर रुकता—
शिवनगर की सबसे बड़ी दीवार, जिसके उस पार था ‘ज्ञानदीप पब्लिक स्कूल’।
अध्याय 2: दीवार के उस पार
दीवार के पार से आती आवाजें रामू के लिए जैसे किसी और दुनिया का संगीत थीं।
बच्चों की हँसी, टीचर की आवाजें, घंटी की टनटन, कभी किसी कविता की गूंज—सब उसे अपनी ओर खींचता।
वह बोरा नीचे रखता, दीवार के नीचे की दरार से झांकता और कान लगा देता।
अंदर से टीचर की आवाज आती—
“बच्चों, पेज नंबर 25 खोलो।”
कोई बच्चा बोलता—”मैडम, मैं पढ़ूं?”
दूसरा हँसकर कहता—”नहीं, आज मेरी बारी है।”
रामू मुस्कुरा देता।
वो दीवार के इस पार था, लेकिन उसका दिल उस पार की दुनिया में।
धीरे-धीरे वह सुन-सुनकर सब याद करने लगा।
उसे हिंदी की कविताएँ याद हो गईं।
कुछ अंग्रेज़ी के शब्द भी।
कभी-कभी वह खुद से बड़बड़ाता—
“गुड मॉर्निंग। माय नेम इज़ रामू।”
फिर खुद हँस देता।
काश कोई जवाब देता!

एक दिन अंदर से टीचर ने कबीर का दोहा पढ़ाया—
“बुरा जो देखन मैं चला, बुरा ना मिलिया कोई।”
रामू ने धीरे से अपने होठों से दोहराया—
“जो दिल खोजा अपना, मुझसे बुरा ना कोई।”
उसे नहीं पता था कि उसने सही बोला है या नहीं,
पर उसके दिल में आवाज गूंजी—
“मैं भी पढ़ सकता हूँ।”
अध्याय 3: माँ की दुआ
शाम को घर लौटा तो माँ खांसी में डूबी चारपाई पर थी।
“क्या मिला आज रामू?”
वो बोरे से ₹2 और कुछ अखबार निकाल कर रख देता।
“इतना ही माँ।”
माँ के चेहरे पर दर्द था, पर आवाज में दुआ—
“बेटा, तू पढ़ लेता तो शायद आज ज़िंदगी आसान होती।”
रामू चुप रहा।
उसने माँ की हथेली पकड़ी और बोला—
“एक दिन मैं भी स्कूल जाऊंगा माँ, दीवार के उस पार।”
रात को झोपड़ी में अंधेरा था।
छत से बारिश टपक रही थी।
रामू फटे कंबल में सिमट कर सो गया।
आँखें बंद हुई और सपने में वही दीवार आई।
लेकिन इस बार वह दीवार नहीं थी, दरवाजा बन गई थी।
रामू स्कूल की क्लास में खड़ा था।
टीचर मुस्कुरा रही थी।
बच्चे ताली बजा रहे थे।
अध्याय 4: दीवार पर पहली दस्तक
वो दिन बाकी दिनों जैसा ही था।
सुबह की ठंडी हवा।
रामू के कंधे पर लटकता फटा बोरा।
कदम जो हमेशा उस दीवार के पास जाकर रुक जाते थे।
आज भी उसने बोरा नीचे रखा और कान दीवार की दरार से सटा दिए।
अंदर क्लास चल रही थी।
टीचर पढ़ा रही थी—”भारत के राज्य और उनकी राजधानियाँ।”
“बच्चों, उत्तर प्रदेश की राजधानी है इलाहाबाद।”
रामू का माथा सिकुड़ गया।
उसने कई बार अखबारों में पढ़ा था—लखनऊ राजधानी है।
वो हिचकिचाया।
कुछ पल चुप रहा।
फिर अचानक उसके होठों से निकल पड़ा—
“मैडम, आप गलत पढ़ा रही हैं!”
अंदर क्लास में सन्नाटा छा गया।
बच्चे एक-दूसरे को देखने लगे।
टीचर ने चौक गिरा दी और दरवाजे की ओर देखा।
“कौन बोला यह?”
किसी ने कुछ नहीं कहा।
फिर किसी बच्चे ने डरते-डरते उंगली दीवार की ओर की—
“मैडम, शायद बाहर से आवाज आई है।”
अध्याय 5: दीवार के उस पार से अंदर तक
टीचर बाहर आई।
दीवार के पास वही नन्हा बच्चा खड़ा था।
फटे कपड़े, हाथों में मिट्टी, आँखों में डर और सच्चाई दोनों।
टीचर बोली—”क्या कहा तुमने?”
रामू काँपती आवाज में बोला—
“मैडम, आपने गलत बताया। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ है, इलाहाबाद नहीं।”
टीचर कुछ पल उसे देखती रही।
फिर धीरे से बोली—
“तुम्हें यह कैसे पता?”
रामू बोला—
“मैं अखबार में पढ़ा था, जो मैं कूड़े से उठा लाया था।”
टीचर की आँखें भर आईं।
उन्होंने हाथ बढ़ाकर कहा—
“अंदर आओ।”
क्लास में सन्नाटा।
बच्चे उस गंदे कपड़ों वाले बच्चे को देख रहे थे,
जो शर्माते हुए दरवाजे के पास खड़ा था।
टीचर ने मुस्कुरा कर कहा—
“बच्चों, यह है रामू। दीवार के उस पार बैठकर हर दिन हमारी आवाजें सुनता है।”
बच्चों के चेहरे पर हैरानी थी।
टीचर ने ब्लैक बोर्ड पर सवाल लिखा—
“भारत की राजधानी कौन सी है?”
रामू ने झिझकते हुए जवाब दिया—
“नई दिल्ली।”
पूरा क्लास तालियों से गूंज उठा।
रामू के गालों पर हल्की मुस्कान थी।
और आँखों से दो आंसू ढुलक पड़े।
शायद उसने पहली बार महसूस किया था दीवार के इस पार की हवा।
अध्याय 6: पहली किताब
टीचर ने पूछा—
“तुम बाहर क्यों बैठते हो, अंदर क्यों नहीं आते?”
रामू बोला—
“मेरा बस्ता नहीं है, मैडम। किताबें नहीं हैं, बस यह बोरा है और कुछ अखबार।”
टीचर की आवाज भर गई।
उन्होंने पास जाकर उसके सिर पर हाथ रखा—
“बस्ता हम देंगे, किताबें भी। बस तुम रोजाना आना।”
उस दिन जब रामू स्कूल से बाहर निकला तो वो दीवार को देखकर मुस्कुराया—
“अब मैं इस दीवार के बाहर नहीं बैठूंगा।”
अगले ही दिन रामू पहली बार स्कूल के गेट के अंदर गया।
हाथ में पुराना टिफिन, कंधे पर टीचर की दी हुई फटी सी बस्ता,
और आँखों में चमक ऐसी जैसी किसी बच्चे की होती है जिसने ज़िंदगी में पहली बार सपना छुआ हो।
टीचर ने उसे क्लास में सबसे पीछे बैठाया।
वह बैठते ही ब्लैक बोर्ड को देखता रहा।
वह ब्लैक बोर्ड जो अब तक सिर्फ दीवार के पार से दिखता था, आज सामने था।
अध्याय 7: समाज की दीवारें
क्लास शुरू हुई।
टीचर बोली—
“बच्चों, आज से रामू भी हमारे साथ पढ़ेगा।”
कुछ बच्चे मुस्कुरा दिए।
लेकिन कुछ ने आपस में कानाफूसी शुरू कर दी।
एक ने धीरे से कहा—
“यह तो वही कूड़ा बिनने वाला है।”
दूसरा बोला—
“मैडम ने इसको क्यों बुला लिया?”
रामू ने सुना, पर कुछ कहा नहीं।
उसने सिर झुकाया और किताब में आँखें गड़ा ली।
टीचर ने उसे जवाब देने को कहा—
“रामू, बताओ 2 + 2 कितने होते हैं?”
रामू बोला—
“चार, मैडम।”
टीचर मुस्कुराई—
“वाह रे भिखारी, तू तो बड़ा होशियार निकला! किताब तो गंदी कर देगा।”
रामू ने कुछ नहीं कहा।
वो बस टीचर की तरफ देखने लगा।
शायद उसे उम्मीद थी कि कोई बोलेगा—”चुप रहो।”
लेकिन टीचर भी कुछ पल चुप रही।
अध्याय 8: लंच टाइम की तन्हाई
दोपहर में लंच टाइम हुआ।
बच्चे अपने टिफिन लेकर हँसते हुए खाने लगे।
रामू ने अपनी जेब से सूखी रोटी निकाली,
जिसे उसकी माँ ने सुबह दी थी।
लेकिन जैसे ही उसने खाना शुरू किया,
सामने वाले बच्चे ने कहा—
“उफ, कैसी बदबू है। चल, दूर जाकर खा।”
रामू का दिल काँप गया।
वो उठकर क्लास के बाहर चला गया।
और वही दीवार के नीचे बैठ गया।
वो दीवार जो कभी उसका सपना थी,
आज वही उसे अपमान का सहारा लग रही थी।
टीचर बाहर आई—
“रामू, तुम यहाँ क्यों बैठे हो?”
रामू की आँखों में आँसू थे।
धीरे से बोला—
“मैडम, मैं पढ़ना चाहता हूँ। पर सब कहते हैं मैं गंदा हूँ।”
टीचर के होंठ काँप गए।
उन्होंने कुछ नहीं कहा, बस उसका सिर सहलाया और कहा—
“कभी किसी की बातों से खुद को छोटा मत समझना।
जिस बच्चे के पास चाहत है, वह सबसे बड़ा होता है।”
रामू ने आँसू पोछे।
वह उठकर फिर क्लास में गया।
लेकिन इस बार उसके कदम भारी थे।
उसकी मुस्कान कहीं खो गई थी और दिल में सवाल था—
क्या गरीब होना गुनाह है?
अध्याय 9: माँ की सीख
उस रात रामू देर तक जागता रहा।
माँ ने पूछा—
“क्यों नहीं सोया बेटा?”
रामू बोला—
“माँ, मैं पढ़ना तो चाहता हूँ। पर लगता है यह दुनिया नहीं चाहती कि मैं पढ़ूं।”
माँ की आँखों से आँसू निकल पड़े।
उन्होंने बेटे को सीने से लगाया और बोली—
“बेटा, भगवान देर करता है, पर अंधेरा नहीं रहने देता।”
रामू की आँखें भर आईं।
पर उस रात उसने एक फैसला किया।
अब वह रोएगा नहीं।
अब वह कुछ बनकर दिखाएगा।
अध्याय 10: दीवार के पार की जीत
अगले दिन जब सूरज उगा,
शिवनगर के आसमान में एक नई चमक थी।
रामू आज भी उसी बोरे को कंधे पर लटकाए निकला।
लेकिन उसके कदमों में अब कोई झिझक नहीं थी।
उसके दिल में था एक निश्चय—
अब कोई मुझे दीवार के बाहर नहीं रख सकेगा।
वो स्कूल पहुंचा।
क्लास में सब बच्चे हँसी-मजाक में व्यस्त थे।
लेकिन रामू चुपचाप अपनी किताब खोलकर पढ़ने लगा।
वो अब किसी की बातों से नहीं टूटना चाहता था।
टीचर आई—
“आज हम टेस्ट लेंगे।”
कई बच्चे परेशान थे,
पर रामू के चेहरे पर शांति थी।
टीचर ने जब प्रश्न पूछे तो सबसे पहले रामू ने हाथ उठाया।
सवाल था—
“कबीर का प्रसिद्ध दोहा कौन सा है और उसका अर्थ बताओ।”
रामू खड़ा हुआ।
धीरे से बोला—
“बुरा जो देखन में चला, बुरा ना मिलिया कोई।
जो दिल खोजा अपना, मुझसे बुरा ना कोई।”
उसकी आवाज में आत्मविश्वास था।
फिर उसने आगे कहा—
“मैडम, इस दोहे का मतलब है कि हमें दूसरों में बुराई नहीं,
अपने अंदर की गलतियाँ देखनी चाहिए।”
क्लास चुप थी।
टीचर की आँखों में आँसू थे।
उन्होंने ताली बजाई और इस बार पूरी क्लास ने साथ दिया।
धीरे-धीरे रामू सबका ध्यान खींचने लगा।
वह हर सवाल का जवाब देने लगा।
हर किताब को ध्यान से पढ़ता।
टीचर रोज क्लास के बाद उसे थोड़ी देर और पढ़ाती।
अध्याय 11: मंच की ओर
एक दिन प्रिंसिपल मैडम ने कहा—
“अगले हफ्ते स्कूल में वार्षिक समारोह है, जिसमें एक बच्चा कविता सुनाएगा।”
सभी बच्चे चाहते थे उन्हें मौका मिले।
लेकिन टीचर बोली—
“इस बार रामू सुनाएगा।”
पूरे क्लास में सन्नाटा।
किसी ने मन ही मन कहा—
“भिखारी बच्चा स्टेज पर?”
लेकिन रामू के चेहरे पर बस एक हल्की सी मुस्कान थी।
घर जाकर उसने माँ को बताया—
“माँ, मैं स्कूल में कविता बोलने वाला हूँ।”
माँ की आँखों में चमक आ गई।
वो बोली—
“बेटा, तू तो पहले ही मेरा गर्व है। अब दुनिया भी देखेगी तेरा उजाला।”
अध्याय 12: दीवार का पतन
समारोह का दिन आया।
पूरा स्कूल सजा हुआ था।
रामू ने स्कूल की यूनिफॉर्म पहनी,
जो टीचर ने खुद दिलाई थी।
वह स्टेज के पीछे खड़ा था।
हाथ काँप रहे थे, पर दिल कह रहा था—
“आज दीवार टूटने वाली है।”
माइक पर उसका नाम पुकारा गया।
वो धीरे-धीरे स्टेज पर पहुंचा।
सामने सैकड़ों बच्चे, टीचर्स और मेहमान बैठे थे।
रामू ने गहरी सांस ली और बोला—
“मेरा नाम रामू है।
मैं पहले स्कूल के बाहर दीवार के पास बैठकर सुनता था।
आज उसी स्कूल के मंच पर बोल रहा हूँ।”
पूरे हाल में सन्नाटा छा गया।
उसने वही दोहा सुनाया जिससे उसकी कहानी शुरू हुई थी—
“बुरा जो देखन में चला, बुरा ना मिलिया कोई।”
उसकी आवाज थरथरा रही थी,
पर हर शब्द दिल में उतर रहा था।
आवाज खत्म होते ही पूरा स्कूल खड़ा हो गया।
तालियाँ बज रही थीं।
टीचर की आँखों से आँसू गिर रहे थे।
रामू के लिए अब वह दीवार टूट चुकी थी,
जिसने उसे हमेशा बाहर रखा था।
अध्याय 13: सपनों की उड़ान
साल बीत गए।
शिवनगर के उस छोटे से स्कूल की दीवार अब पुरानी पड़ चुकी थी।
दीवार पर बेलें चढ़ आई थीं।
लेकिन उसी दीवार के उस पार एक नया सपना उगा था—रामू का सपना।
वो छोटा बच्चा जो कभी कूड़ा बीनता था,
अब एक शिक्षक बन चुका था।
शहर के सरकारी स्कूल में पढ़ाता था,
गरीब बच्चों को—उन बच्चों को जिनकी कहानियाँ कभी उसके जैसी थी।
उसकी माँ अब बूढ़ी हो चुकी थी।
लेकिन जब भी कोई उससे पूछता—
“अम्मा, आपका बेटा क्या करता है?”
वो गर्व से मुस्कुरा कर कहती—
“वो बच्चों को सपने सिखाता है।”
अध्याय 14: सम्मान का दिन
एक दिन रामू को एक खत मिला।
खत था ‘ज्ञानदीप पब्लिक स्कूल’ से।
लिखा था—
“हमारे स्कूल की 25वीं वर्षगांठ पर आपको मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया जाता है।”
रामू कुछ देर तक उस कागज को देखता रहा।
आँखों में पुराने दिन घूम गए।
वो दीवार, वो दरार, वो दोहा, वो आँसू।
उसने धीरे से कहा—
“कभी दीवार के बाहर खड़ा था।
आज उसी स्कूल में मेहमान बनकर जाऊंगा।”
समारोह का दिन आया।
पूरा स्कूल सजा हुआ था।
गेट के पास फूलों की माला लिए बच्चे खड़े थे।
रामू ने जब गेट के अंदर कदम रखा तो वही पुराना एहसास लौटा।
पर इस बार भीतर जाने से डर नहीं था,
बल्कि अभिमान था।
टीचर नीलिमा मैडम अब बूढ़ी हो चुकी थीं।
पर जब उन्होंने रामू को देखा तो आँखों में आँसू आ गए।
वो बोलीं—
“मैं जानती थी, तुम एक दिन जरूर लौटोगे।”
रामू मुस्कुराया और उनके पैर छू लिए।
अध्याय 15: आखिरी दीवार
स्टेज पर प्रिंसिपल ने माइक पर कहा—
“आज हमारे बीच वह शख्स मौजूद है,
जो कभी इस स्कूल के बाहर दीवार के पास बैठा करता था
और आज उन्हीं दीवारों ने उसके नाम की मिसाल बाँधी है।”
तालियाँ गूंज उठीं।
रामू स्टेज पर पहुंचा।
माइक पकड़ा।
कुछ पल के लिए चुप रहा।
फिर बोला—
“कभी मैं इस स्कूल की दीवार के बाहर बैठा करता था।
आज उसी स्कूल के मंच पर खड़ा हूँ।
शायद यही असली पढ़ाई है कि दीवारें गिरा दो और दिलों तक पहुँचो।”
उसने वही दोहा दोहराया जिससे उसकी कहानी शुरू हुई थी—
“बुरा जो देखन में चला, बुरा ना मिलिया कोई।
जो दिल खोजा अपना, मुझसे बुरा ना कोई।”
पूरा हाल खामोश था।
फिर अचानक तालियाँ गूंज उठीं।
बच्चे खड़े थे।
टीचर की आँखें नम थीं।
रामू के चेहरे पर शांति थी।
वह मुस्कुरा रहा था।
शायद इसलिए नहीं कि लोग ताली बजा रहे थे,
बल्कि इसलिए कि अब कोई दीवार नहीं बची थी।
रामू ने नीचे देखा।
पहली कतार में कुछ छोटे बच्चे बैठे थे।
जिनके कपड़े मैले थे।
आँखों में सपने थे।
वो झुक कर बोला—
“तुम्हें किसी दीवार की जरूरत नहीं।
बस अपने अंदर भरोसा रखो।
ज़िंदगी बदल जाएगी।”
उस दिन पूरा स्कूल खड़ा था।
आँखों में आँसू और दिल में गर्व लिए।
और वह दीवार,
जहाँ कभी एक कूड़ा बिनने वाला बच्चा बैठता था,
अब वहाँ एक पट्टिका लगी थी—
“रामू—दीवार के उस पार से सपनों तक।”
समाप्ति और संदेश
दोस्तों,
यह कहानी सिर्फ रामू की नहीं,
हर उस बच्चे की है जो सपनों के लिए लड़ता है,
जो समाज की दीवारों को तोड़ता है।
अगर इस कहानी ने आपके दिल को छू लिया हो,
तो अपने सपनों के लिए कभी हार मत मानिए।
दीवारें सिर्फ ईंट-पत्थर की नहीं होतीं,
कभी-कभी वे समाज, गरीबी, भेदभाव और डर की भी होती हैं।
इन्हें तोड़िए,
अपने अंदर उजाला लाइए,
एक दिन पूरी दुनिया ताली बजाएगी।
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