बारिश की वो रात: दया की छोटी सी रौशनी
मुंबई की उस बरसाती रात में आधी दुनिया अपने घरों में सिमट गई थी, लेकिन विजय के लिए ऐसी रातें न रोज़ बस आती थीं, न कभी जाती थी। धारावी की अंधेरी गलियों में, उसकी सीलन भरी झोपड़ी के दरवाजे पर बारिश हर कोने से टपक रही थी। मां माया की खांसी, बहन प्रिया की किताबें, और जेब में खनखनाते बस कुछ सिक्के उसकी दुनिया के दो रंग थे—एक ओर धुंधलका, दूसरी ओर उम्मीद।
विजय 18 बरस का दुबला-पतला लेकिन जिम्मेदार लड़का था। जिसके पिता मिल मजदूर थे और तीन साल पहले एक हादसे में दुनिया छोड़ गए थे। मां अब घर-घर बर्तन मांजने जाती, लेकिन गठिया ने उसे तोड़ दिया था। छोटी बहन प्रिया पढ़ने-लिखने में होशियार थी—उसकी आंखों में टीचर बनने का सपना था, और विजय की चाहत थी कि वह किसी भी हाल में स्कूल ना छोड़े।
विजय दिनभर बाजार की एक चाय दुकान पर कप-प्लेट धोता, किराया-बिजली-मां की दवा और बहन की किताबों के लिए मेहनत करता। कई बार तीनों ने सिर्फ पानी पीकर रात गुजारी, लेकिन माया ने उसे हमेशा सिखाया, “बेटा, गरीब हो सकते हैं, पर ईमान और दया कभी मत छोड़ना।”
दर्द की बारिश, दया का दरवाजा
वो जुलाई का महीना था। मुंबई पर बारिश अम्बार बनकर आया था। उस रात दुकान से लौटते वक्त विजय के जेब में बस 50 रुपये थे। मां की दवा खरीदनी थी, आटा भी खत्म था। मन भारी था, और बारिश में भीगना मजबूरी थी।
इन्हीं विचारों में खोया, उसे कोई कचरे के ढेर के पास पड़ी चीज दिखी। पास जाकर देखा तो वह एक गोल्डन रिट्रीवर था—भीगा, कांपता, घायल। उसके पैर में कांच घुसा था, खून बह रहा था। लोग बगल से निकलते रहे, किसी ने परवाह नहीं की। विजय का मन डोल गया—”मेरे पास खुद खाने को नहीं, इसे कैसे पालूं?” लेकिन फिर मां की सीख याद आई, “हर जीव में भगवान का वास है।” वह सड़क पार कर कुत्ते के पास गया और धीरे से सहलाया।
कुत्ते की आंखों में डर व पीड़ा थी, लेकिन जैसे विजय की दया का अहसास होते ही शांत हो गया। विजय ने हिम्मत कर उसे गोद में उठाया और अपनी झोपड़ी ले आया। मां हैरान थी, लेकिन विजय बोला, “डरिए मत, ये बेचारा है…चोटिल है।”
रात की पनाह, सुबह की उम्मीद
विजय ने गीले कुत्ते के बदन को पोंछा, उसके पैर से कांच निकाला, हल्दी लगाई। खाने को बस दो रोटियां थीं, विजय ने एक रोटी कुत्ते के आगे रख दी, और बची एक मां-बेटी ने आपस में बांट ली।
सुबह बारिश थम गई थी। कुत्ता पहले से बेहतर महसूस कर रहा था—पूंछ हिला रहा था। विजय ने तय किया, आज काम पर नहीं जाएगा, पहले कुत्ते के मालिक को ढूंढ़ेगा।
कुत्ते के गले में एक महंगे लेदर का पट्टा था, जिस पर बस “चैंप” नाम लिखा था। लेकिन जब पट्टे की सिलाई देखी तो विजय को अजीब सा एहसास हुआ—भीतर एक छोटी सी व्हॉटरप्रूफ थैली टिकी थी। विजय ने उसे खोला—अंदर एक पेनड्राइव थी।
एक अनसुनी अमानत
विजय पास के इंटरनेट कैफे में गया, मालिक को 20 रुपये दिए और कंप्यूटर खोला। पेनड्राइव में दो फाइलें थीं—”वसीयत” (PDF) और “मेरे बेटे के लिए” (वीडियो)। वीडियो पर क्लिक किया तो एक सम्मानजनक वृद्ध का चेहरा सामने आया, उसकी गोद में वही चैंप था।
“अगर तुम यह देख रहे हो तो मैं अब इस दुनिया में नहीं। बेटा आकाश, मुझे माफ करना… मैंने अपनी आधी दौलत ‘आशा की किरण’ ट्रस्ट के नाम कर दी है। मेरे पार्टनर वर्मा-देशाई इसे दबाने की कोशिश करेंगे, इसलिए वसीयत की असली कॉपी इस चैंप के गले में छिपा दी…”
विजय के रोंगटे खड़े हो गए—ये जयप्रकाश गोयनका थे, देश के बड़े औद्योगिक घरानों में से एक। उसकी वसीयत में लिखा था—”बेटा, इस ट्रस्ट को अब तुम्हें संभालना है…”
सच्चाई बनाम लालच
विजय कॉपी पर देखता रहा—कानूनी दस्तखत, वकीलों की मोहर। वह खुद को रोक नहीं पाया—”क्या मैं इस अमानत को गलत हाथों से छुपाऊं? मैं मां की दवा, बहन की पढ़ाई… करोड़ों का लालच सामने था। पर मां की सिखाई ईमानदारी भारी पड़ी।
इंटरनेट पर आकाश गोयनका (जयप्रकाश का बेटा) के बारे में पता किया। सुना, वह ऋषिकेश के एक आश्रम में सम में खोया रहता है। विजय ने पैसों का इंतजाम किया, मां को सब बताया, और चैंप के साथ ऋषिकेश की ट्रेन पकड़ ली।
हवाओं में नियति की रौशनी
ऋषिकेश की गलियों, घाटों, आश्रम-आश्रम भटका। पैसे खत्म, भूखा—पर हिम्मत नहीं हारी। आखिर एक दिन गंगा तट पर एक उदास युवक बैठा था—चैंप उसे देखते ही दौड़ा। वह था आकाश गोयनका। विजय ने उसे पेनड्राइव, और पूरी कहानी सुनाई।
आकाश ने विजय को गले लगा लिया—”भाई, तुमने सिर्फ वसीयत नहीं लौटाई, मुझे मेरे पिता, मेरे सपनों से भी मिला दिया।” आकाश ने न्यायालय में वसीयत पेश की, सच्चाई की जीत हुई। वह ‘गोयनका इंडस्ट्रीज’ और ‘आशा की किरण’ ट्रस्ट का मालिक बना।
नई सुबह, नए सपने
एक दिन आकाश अपनी शानदार कार लेकर विजय की झोपड़ी आया—”मांजी, आज से आप भी मेरी मां है। विजय, आज तुम ट्रस्ट के वाइस चेयरमैन हो। यह जूहू का बंगला है—आज से इसे अपना घर मानो। प्रिया के लिए लॉ कॉलेज में दाखिला और माया जी के इलाज के लिए दुनिया के बेस्ट डॉक्टर्स।”
विजय की आंखों में खुशी के आंसू थे। कल तक चाय की दुकान का बच्चा, आज लाखों-करोड़ों बच्चों की तकदीर संवार रहा था। और यह सब मुमकिन था—एक बरसाती रात दिखाए मानवीय दया और एक बेजुबान जानवर की वजह से।
अंत में
हर जीव के लिए दया, करुणा—यही है इंसानियत का असली मोल। कौन जानता है, किसी एक छोटी-सी भलाई से किस्मत कब, कहां, कैसे बदल जाए!
अगर आपको यह कहानी छू गई हो, इसे सभी के साथ जरूर साझा करें। – क्योंकि दया की एक बूंद, कई जिंदगियों का समंदर बदल सकती है।
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