भाई-बहन का ये बंधन: एक स्टेशन, एक मुलाकात, एक नई शुरुआत
दिल्ली के भीड़भाड़ वाले रेलवे स्टेशन के बाहर जनवरी की कड़कड़ाती ठंड ने शहर को जकड़ रखा था। चाय वालों की आवाज़, कुलियों की हड़बड़ाहट, टैक्सियों का शोर, और राहगीरों की भीड़-भाड़; इन सबसे परे, एक कोना था जहाँ वक्त जैसे थम सा गया था। वहीं, फटे पुराने कंबल में लिपटा रघुवीर बैठा था, उसकी आंखों में बेबसी, चेहरे पर थकावट और हाथ में एक टिन का कटोरा था, जिसमें लोग दया से कुछ सिक्के डाल देते थे। उसके सामने उसकी पत्नी सुमित्रा पड़ी थी—लगभग तीस की उम्र, पीला चेहरा, सूखी होंठ, और साँसें धीमी।
रघुवीर कभी गाँव में छोटा दर्जी था। उसका जीवन सामान्य था—माँ-पिता, एक बहन आरती, और सुदूर गाँव का सादा नन्हा सा घर। लेकिन एक बरसात की रात ने उसकी किस्मत बदल दी। गाँव में बाढ़ आई, मिट्टी की दीवार टूटी, परिवार बिखर गया। माँ और पिता सदमे में चल बसे, आरती का बहाव में हाथ छूट गया। कई महीने तलाश किया, ढूंढ-ढूंढकर थक गया, लेकिन बहन का कोई पता न चला।
समय बीतता गया। जवान होने के बाद रघुवीर ने अपनी दुनिया बसाने की कोशिश की, लेकिन उदासी और अकेलापन उसका साया बन गए। दर्जी का काम किया, शादी हो गई, पत्नी सुमित्रा से कुछ खुशियाँ मिलीं। पर किस्मत ने फिर दगा दिया—सुमित्रा गंभीर बीमारी की चपेट में आ गई। इलाज के लिए घर-बार, जेवर, गांव की जमीन, सब बेच डाला। कर्ज में डूब गए, फिर भी कुछ ना बदला और ये हालात दिल्ली स्टेशन के फुटपाथ तक ले आए।
रघुवीर पलट-पलटकर अपनी बेहोश पत्नी को देखता, पोटली में पड़ी पुरानी दवाई की पर्चियाँ देखकर सोचता—क्या सच में जिंदगी में कोई उम्मीद बची है? उसी वक्त, भीड़ को चीरती एक महिला—सफेद कोट, कंधे पर स्टेथोस्कोप और हाथ में दस्ताना—दिखी। डॉक्टर थी। तेज़ चाल में कहीं जा रही थी; अचानक उसकी नजर पड़े रघुवीर और सुमित्रा पर रुकी।
डॉक्टर झुकी, सुमित्रा की नब्ज़ देखी, तीस सेकंड में सारी स्थिति समझ गई। ‘‘तुरंत अस्पताल ले जाना होगा।’’
रघुवीर, जो मदद की भीख माँग-माँगकर हार चुका था, एक बार फिर आशा से डॉक्टर के चेहरे की ओर टकटकी लगाए देखने लगा। और तभी, डॉक्टर ने उसकी आँखों में देखा—कुछ पल देखने के बाद उसके चेहरे पर अजीब सी बेचैनी आ गई। उसने कहा, ‘‘तुम…रघु?’’
रघुवीर के दिल की धड़कन एक पल को रुक-सी गई। दिमाग में बीते बरसों की तमाम यादें, बाढ़, टूटा घर, माँ की चीख, बचपन की हँसी, सब घूम गया। ‘‘आरती…’’ उसकी आवाज भर्रा गई। डॉक्टर की आँखों में भी भावनाओं की झिलमिलाहट थी।
किन्तु तुरंत आरती ने अपने इमोशंस को संभाला—‘‘अभी बातों का वक्त नहीं भैया, पहले भाभी को अस्पताल ले चलते हैं।’’
पास खड़े ऑटो चालक को बुलाया; तीनों अस्पताल पहुँचे। आरती ने सुमित्रा को इमरजेंसी वार्ड में भर्ती कराया, ऑक्सीजन, दवाइयों और टेस्ट शुरू करा दिए। सुमित्रा की जान एक बार फिर बच गई।
अब आरती थकी लेकिन संतुष्ट थी। उसने खुद को भैया के सामने बैठा पाया। ‘‘भैया, आज इतने सालों बाद आपको देखकर यकीन ही नहीं हो रहा…’’
आंसू दोनों की आँखों में थे। रघुवीर बोला, ‘‘मैंने कभी प्रार्थना करना नहीं छोड़ा—भगवान से विनती करता था, मेरी बहन एक दिन फिर से मुझे मिल जाए…’’
आरती ने भी उसके हाथ थाम लिए—‘‘मैंने भी कभी सोचा था, मेरा कोई नहीं है। मगर आज लग रहा है, भगवान ने दोबारा हम दोनों को जोड़ दिया है।’’
पूरे अस्पताल में यह बात धीरे-धीरे फैल गई कि डॉक्टर अनामिका असल में अपने बचपन में बिछड़ी आरती थी, जो बरसों बाद अपने भाई से फुटपाथ पर मिली! स्टाफ, मरीज़, हर कोई स्तब्ध था।
अगले कुछ दिनों में सुमित्रा की सेहत में सुधार आया। अब आरती दिनभर हॉस्पिटल की ड्यूटी, और शाम को भाभी-भाई के पास। एक दिन, आरती ने रघुवीर से पूछा, ‘‘इतने साल कैसे बीते भैया?’’
रघुवीर ने बीते हुए दर्द को अपने शब्दों में पिरोया—‘‘माँ, पिता जी, सब कुछ खो दिया। अकेलेपन से जूझता रहा। शादी की, लगा जिंदगी लौट आएगी, मगर फिर… नियम बदलते रहे, खुशियाँ फिसलती रहीं।’’
आरती भी कम नहीं टूटी थी। उसे गोद लेने वाले गरीब दंपति ने बहुत प्यार दिया, नाम अनामिका रखा, लेकिन वो भी जल्दी चल बसे। जीवनभर संघर्ष किया, शिक्षा और जिद की वजह से मेडिकल कॉलेज तक पहुंची, और आखिरकार डॉक्टर बनी।
धीरे-धीरे, सारे रिश्तों की दूरियाँ, अजनबियत, बहुत गहरी बातों व आँसुओं के समुद्र में बह गईं।
रघुवीर को जैसे सहारा मिल गया—‘‘अब कभी तुमको खोने नहीं दूँगा।’’
आरती मुस्कुराई—‘‘अब तुम, सुमित्रा भाभी और मैं, हम तीनों साथ रहेंगे।’’
कुछ हफ्तों में सुमित्रा पूरी तरह स्वस्थ हो गई। डिस्चार्ज के दिन, आरती बोली, ‘‘अब आप दोनों मेरे घर चलेंगे। जब तक नया ठिकाना ना मिल जाए, यही साथ रहिए।’’
रघुवीर को जब इसका सबब समझ आया, तो उसने मना करना चाहा, ‘‘तुम्हारी ज़िंदगी है, तुम्हारे अपने सपने…’’
आरती बीच में बोल पड़ी: ‘‘भैया, जिंदगी में बहुत कुछ खोया है। अब जो मिला है, उसे हमेशा के लिए सँजोकर रखना है। ये भी मेरी खुशी है, मेरा सपना है—अब हमारा परिवार दोबारा पूरा है।’’
कुछ महीनों बाद, आरती ने एक नई पहल की—गांव के नीम के पेड़ के नीचे एक क्लीनिक खोल दिया। बोर्ड पर नाम था—‘‘डॉ. आरती-सेवा व समर्पण’’। रघुवीर अब दर्जी का काम फिर से करने लगा, सुमित्रा क्लीनिक में उसकी मदद करती। गाँव के बच्चे अक्सर शाम को उनके पास आ जाते, कोई पेंसिल माँगने, कोई पट्टी बंधवाने, तो कोई बस इस परिवार की खुशी देखने।
एक शाम, बारिश की फुहार के बीच तीनों साथ बैठकर चाय पी रहे थे। रघुवीर ने आसमान की तरफ देखकर मन ही मन कहा—‘‘मां-बाबुजी, आपकी आरती लौट आई है, और अब हमारा परिवार फिर से पूरा है।’’
इस कहानी की सबसे खूबसूरत बात यही है—रिश्ते टूट सकते हैं, जीवन में आँधियाँ आ सकती हैं, पर सच्ची नेमतें—बहन का प्यार, भाई का सहारा, सच्चा साथ—कभी नहीं छूटता।
आज, अगर आपको बचपन में बिछड़ा भाई या बहन इस तरह अचानक मिले, तो आप सबसे पहले क्या कहेंगे? क्या आप अपने परिवार के लिए सब कुछ छोड़ सकते हैं? कमेंट करके बताएँ, ये कहानी अपने दोस्तों के साथ बांटें, और याद रखें—रिश्ते कभी नहीं मरते, बस वक्त उनका इम्तिहान लेता है।
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