बकरियाँ चराते हुए रास्ता भूली लड़की भारत की सरहद पार आ गयी , फिर सेना के जवानों ने जो किया जानकर

सरहद के उस पार – सलमा की कहानी

प्रस्तावना

क्या होता है जब नफरत की खींची हुई लकीरें एक मासूम की भोली-भाली आंखों के सामने धुंधली पड़ जाती हैं? क्या इंसानियत किसी कंटीली तार, किसी सरहद या किसी देश की मोहताज होती है?
यह कहानी एक 15 साल की पाकिस्तानी लड़की सलमा की है, जो अपनी बकरियों के पीछे भागते-भागते अनजाने में उस सरहद को पार कर गई जिसे दुनिया नियंत्रण रेखा कहती है।
यह कहानी उन भारतीय सेना के जवानों की भी है जिनकी वर्दी का रंग और जिनका धर्म सिर्फ और सिर्फ हिंदुस्तान की हिफाजत करना है।
जब उन जवानों ने दुश्मन देश की एक भूखी-प्यासी, डरी-सहमी बच्ची को अपनी जमीन पर पाया, तो उन्होंने अपनी बंदूकें नहीं बल्कि अपने दिल के दरवाजे खोल दिए।
उन्होंने इंसानियत का वह पाठ पढ़ाया जिसे देखकर न सिर्फ उस बच्ची के घरवाले बल्कि सरहद के उस पार खड़े दुश्मन देश के सैनिक भी उन्हें सलाम करने पर मजबूर हो गए।
यह कहानी असाधारण इंसानियत और अविश्वसनीय बहादुरी की है, जो साबित करती है कि असली सरहदें जमीन पर नहीं, दिलों में होती हैं।

सलमा – एक मासूम लड़की

नियंत्रण रेखा जमीन पर खींची गई एक ऐसी लकीर है जो सिर्फ दो देशों को ही नहीं, बल्कि लाखों जिंदगियों, हजारों सपनों और सदियों के साझा इतिहास को बांटती है।
इस लकीर के दोनों तरफ पहाड़ वहीं हैं, हवा वही है, आसमान का रंग भी वही है।
फर्क है तो सिर्फ झंडों के रंगों का और बंदूक की नालों की दिशाओं का।

इसी नियंत्रण रेखा के उस पार, पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के एक छोटे से गुमनाम गांव चकोठी में सलमा का परिवार रहता था।
सलमा 15 साल की एक लड़की थी जिसकी दुनिया इन ऊंचे-ऊंचे हरे-भरे पहाड़ों, झरनों के मीठे संगीत और अपनी बकरियों की घंटियों की आवाज तक ही सीमित थी।
उसकी आंखें पहाड़ों की झील जैसी गहरी और साफ थीं, और उसकी मुस्कान सुबह की पहली किरण की तरह पाक और मासूम।

सलमा का परिवार बहुत गरीब था। उसके अब्बू बशीर अहमद मामूली किसान थे, जिनकी छोटी सी जमीन पर उगाई मक्कई से बमुश्किल साल भर का गुजारा होता था।
अम्मी फातिमा घर का काम करती और शॉल पर कढ़ाई करके कुछ पैसे कमा लेती थीं।
सलमा का छोटा भाई जुनैद, सिर्फ सात साल का, उसकी छोटी सी दुनिया का हिस्सा था।
गरीबी थी, लेकिन प्यार और अपनापन भरपूर था।

सलमा स्कूल नहीं जाती थी। गांव में लड़कियों के लिए स्कूल था ही नहीं।
उसका सारा दिन घर के काम और अपनी बकरियों की देखभाल में गुजरता था।
करीब 10-12 बकरियां थीं जो परिवार की आमदनी का छोटा लेकिन जरूरी हिस्सा थीं।
सलमा के लिए वे सिर्फ जानवर नहीं, दोस्त और सहेलियां थीं।
खासकर एक सफेद रंग की बकरी – नूरी, सलमा की जान थी।
नूरी सबसे शरारती और तेज थी। अक्सर झुंड से अलग होकर कहीं दूर निकल जाती और सलमा को उसे ढूंढने के लिए घंटों भटकना पड़ता।

सरहद के पास – चेतावनी और डर

सलमा रोज सुबह अपनी बकरियों को लेकर पास के पहाड़ों की ढलानों पर चराने जाती।
यह इलाका गांव से दूर और सरहद के बहुत करीब था।
अब्बू ने सौ बार हिदायत दी थी – “बेटी, कभी उस काली पहाड़ी से आगे मत जाना। वो सरहद है, वहां फौजी होते हैं, खतरा होता है।”

सलमा अपने अब्बू की बात गांठ बांधकर रखती थी।
वो जानती थी सरहद का मतलब क्या होता है।
रात में दूर से गोलियों की आवाजें सुनती थी।
गांव के लोगों को हिंदुस्तान के बारे में नफरत भरी बातें करते हुए सुना था।
उसके भोले मन में भी सरहद के उस पार के लिए एक अनजाना डर और धुंधली सी नफरत की तस्वीर बनी थी।

नूरी का पीछा – सरहद पार

सितंबर के आखिरी दिनों की बात थी। मौसम में हल्की ठंडक घुलने लगी थी।
उस दिन सलमा अपनी बकरियों को चराते-चराते काली पहाड़ी के पास वाले मैदान में पहुंच गई।
बकरियां आराम से घास चर रही थीं, सलमा एक बड़े पत्थर पर बैठी नूरी की घंटी की आवाज सुन रही थी।
अचानक नूरी उछलती-कूदती झुंड से अलग होकर काली पहाड़ी की तरफ भागने लगी।

सलमा ने आवाज दी – “नूरी रुक जा, कहां जा रही है?”
नूरी किसी की सुनने के मूड में नहीं थी।
वो और तेजी से पहाड़ी की ढलान पर चढ़ने लगी।
सलमा घबरा गई। अगर नूरी खो गई तो अब्बू बहुत नाराज होंगे।
वो लाठी उठाकर नूरी के पीछे-पीछे भागने लगी।
भागते-भागते सलमा को एहसास ही नहीं हुआ कि वह कब उस काली पहाड़ी को पार कर गई, जिसके आगे जाने से अब्बू ने मना किया था।

तभी मौसम ने करवट बदल ली।
चारों तरफ घनी सफेद धुंध ने पहाड़ों को अपनी आगोश में ले लिया।
कुछ ही पलों में आलम यह हो गया कि हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था।
सलमा जहां थी वहीं रुक गई।
दिल जोर-जोर से धड़कने लगा।
उसने नूरी को आवाज दी, लेकिन आवाज धुंध में खो गई।
बाकी बकरियों की भी कोई आवाज नहीं आ रही थी।
वह पूरी तरह अकेली थी।
भूख, प्यास और डर से बेहाल।
सूरज ढलने लगा, अंधेरा घिरने लगा।
वह एक पेड़ के नीचे बैठकर फूट-फूटकर रोने लगी।
अब्बू, अम्मी और छोटे भाई की याद आ रही थी।
लग रहा था अब कभी घर नहीं पहुंच पाएगी।
वह रोते-रोते वहीं सो गई।

भारतीय सेना की चौकी – टाइगर हिल पोस्ट

नियंत्रण रेखा के इस पार, भारतीय सेना की टाइगर हिल पोस्ट ऊंचाई पर स्थित थी।
यहां जाट रेजीमेंट के कुछ जांबाज जवान देश की सरहदों की निगरानी करते थे।
पोस्ट के कमांडर थे – मेजर विक्रम सिंह, करीब 35 साल के अफसर।
चेहरे पर सख्ती, आंखों में रहमदिली।
ड्यूटी ही उनका धर्म था।

अगली सुबह सूरज की किरणें बर्फीली चोटियों पर पड़ीं।
मेजर विक्रम अपने दो जवानों – हवलदार राम सिंह और सिपाही पवन के साथ रोज की तरह गश्त पर निकले।
यह इलाका हर पल घुसपैठ का खतरा रहता था।

वे पोस्ट से करीब एक किलोमीटर दूर ही पहुंचे थे कि हवलदार राम सिंह ने अपनी दूरबीन से देखा –
“सर, वो देखिए, उस पेड़ के नीचे कोई है!”

मेजर विक्रम ने दूरबीन लगाई –
एक लड़की, शायद कश्मीरी, पेड़ के नीचे सो रही थी।
कपड़े फटे हुए, ठंड से कांप रही थी।

तीनों जवान सतर्क हो गए, बंदूकें तैयार।
इलाके में इस तरह किसी का मिलना असामान्य और खतरनाक हो सकता था।
मेजर विक्रम ने इशारा किया, तीनों खामोशी से पेड़ की तरफ बढ़े।

करीब पहुंचे तो लड़की की नींद खुल गई।
उसने भारतीय सेना की वर्दी में, हाथों में बंदूक लिए जवानों को देखा।
वर्दी पर तिरंगा देखा – हलक से चीख निकल गई।
वो हिंदुस्तानी फौजी थे, जिनके बारे में उसने डर और नफरत की कहानियां सुनी थीं।
पूरा शरीर डर से कांपने लगा।
हाथ जोड़कर रोते हुए बोली – “अब्बू, अम्मी, मुझे घर जाना है, मैंने कुछ नहीं किया।”

मेजर विक्रम ने उसकी आंखों में मौत का खौफ देख लिया।
उन्होंने तुरंत बंदूक नीचे कर ली, जवानों को भी इशारा किया।
बहुत नरम आवाज में कश्मीरी में ही पूछा – “डरो मत बेटी, हम तुम्हें कुछ नहीं करेंगे। तुम कौन हो? यहां अकेली क्या कर रही हो?”

सलमा ने उनकी आवाज में अपनापन महसूस किया।
रोते-बिलखते अपनी टूटी-फूटी जुबान में पूरी कहानी बता दी – कैसे बकरी नूरी के पीछे भागते-भागते धुंध में रास्ता भटक गई।

मेजर विक्रम समझ गए – ये कोई घुसपैठिया नहीं, मासूम बच्ची है जो अनजाने में सरहद पार कर आई है।
उन्होंने देखा – भूख-प्यास से बेहाल है।
बैग से पानी की बोतल निकाली, दी।
सलमा ने डरते-डरते पानी पिया।
सिपाही पवन ने जेब से चॉकलेट निकाली – सलमा ने पहली बार चॉकलेट देखी, मीठे स्वाद के साथ इंसानियत की मिठास भी घुल गई।

पोस्ट पर इंसानियत

मेजर विक्रम ने वायरलेस सेट पर पोस्ट से संपर्क किया –
“हम बच्ची को लेकर पोस्ट पर आ रहे हैं।”

पोस्ट पर पहुंचे, बाकी जवान भी हैरान।
सलमा को गर्म कमरे में बिठाया।
रसोइए लंगर सिंह ने गरम-गरम आलू के पराठे और चाय बनाई।
सलमा ने कई घंटों की भूख के बाद खाना खाया – लगा, जिंदगी का सबसे लजीज खाना है।

जवानों ने मोटी जैकेट और कंबल दिया।
सब उससे प्यार से बात कर रहे थे – कोई गांव के बारे में पूछता, कोई छोटे भाई के बारे में।
सलमा हैरान थी – ये वो हिंदुस्तानी फौजी नहीं थे जिनकी डरावनी कहानियां उसने सुनी थीं।
ये बहुत अच्छे, नेकदिल इंसान थे।
वह भूल गई थी कि दुश्मन देश में है – उसे लग रहा था जैसे अपने घर में भाइयों के बीच बैठी है।

फैसला – कानून या इंसानियत?

अब मेजर विक्रम सिंह के सामने बड़ी चुनौती थी।
प्रोटोकॉल के मुताबिक लड़की को उच्च अधिकारियों को सौंपना था।
फिर लंबी कानूनी और डिप्लोमेटिक प्रक्रिया शुरू होती – जिसमें महीनों, शायद साल भी लग सकते थे।
उस दौरान बच्ची को पूछताछ और मानसिक पीड़ाओं से गुजरना पड़ता।

मेजर विक्रम का जमीर यह मानने को तैयार नहीं था।
उसने बच्ची की आंखों में घर जाने की तड़प देखी थी।
मां-बाप के दर्द का अंदाजा लगा लिया था – जो अपनी बेटी को मरा हुआ समझकर मातम मना रहे होंगे।

उन्होंने ऐसा फैसला किया जो नौकरी और करियर के लिए जोखिम भरा था –
वह बच्ची को उसी रास्ते से चुपचाप वापस उसके घर पहुंचाएंगे।
यह इंसानियत का प्रोटोकॉल था, जो देश के कानून से ऊपर था।

सरहद पर अमन का पल

मेजर विक्रम ने कमांडिंग ऑफिसर कर्नल वर्मा से हॉटलाइन पर संपर्क किया।
पूरी स्थिति बताई, अपना इरादा जाहिर किया।
कर्नल वर्मा कुछ देर चुप रहे –
“विक्रम, तुम जो करने जा रहे हो, वह जोखिम भरा है। अगर जरा सी भी चूक हुई तो दोनों देशों के बीच बड़ा मुद्दा खड़ा हो सकता है।”

“सर, मैं इस बच्ची की जिंदगी को फाइलों में बर्बाद होते नहीं देख सकता।”

“ठीक है, मुझे तुम पर और तुम्हारी जजमेंट पर भरोसा है। ऊपर बात करता हूं, तैयारी करो। लेकिन सुरक्षा सबसे पहले।”

मेजर विक्रम ने पाकिस्तानी रेंजर्स के समकक्ष अधिकारी कैप्टन बिलाल से संपर्क साधा।
बहुत कोशिशों के बाद संपर्क जुड़ा।

मेजर विक्रम ने पूरी बात बताई।
कैप्टन बिलाल को पहले यकीन नहीं हुआ – लगा, कोई चाल हो सकती है।
लेकिन मेजर विक्रम की आवाज में सच्चाई और ईमानदारी ने बिलाल को सोचने पर मजबूर कर दिया।

आखिरकार कैप्टन बिलाल मान गया।
तय हुआ – अगले दिन सुबह 10 बजे, दोनों सेनाएं अमन सेतु के पास नो मैनस लैंड में मिलेंगी और बच्ची को सौंपा जाएगा।

सलमा की वापसी – भावुक मंजर

अगली सुबह भारतीय सेना की जीप, सफेद झंडा लगा हुआ, सलमा को लेकर अमन सेतु की तरफ बढ़ी।
जीप में मेजर विक्रम खुद थे।
सलमा को ढेर सारी चॉकलेट्स और छोटे भाई के लिए खिलौने दिए।

सलमा की आंखों में आंसू थे – वो इन फरिश्ता जैसे इंसानों को छोड़कर जाना नहीं चाहती थी।

तयशुदा जगह पहुंचे –
सरहद के पार पाकिस्तानी रेंजर्स की टुकड़ी, कैप्टन बिलाल के नेतृत्व में खड़ी थी।
उनके साथ रोता-बिलखता जोड़ा – सलमा के अब्बू और अम्मी।

सलमा ने मां-बाप को देखा –
“अम्मी! अब्बू!” चिल्लाती हुई दौड़ी, तीनों एक-दूसरे से लिपटकर ऐसे रो रहे थे जैसे खोई हुई कायनात वापस मिल गई हो।

दोनों तरफ के सख्त फौजियों की आंखें भी नम हो गईं।

बशीर अहमद और फातिमा, बेटी को सही-सलामत देखकर मेजर विक्रम के पैरों में गिर पड़े –
“आप हमारे लिए फरिश्ता बनकर आए हैं। हम तो सोच बैठे थे कि हमने अपनी बच्ची को हमेशा के लिए खो दिया।”

मेजर विक्रम ने गले से लगा लिया –
“यह हमारा फर्ज था भाई साहब। बेटी चाहे हिंदुस्तान की हो या पाकिस्तान की, बेटी तो बेटी होती है।”

कैप्टन बिलाल, जो अब तक खामोशी से देख रहा था, धीरे-धीरे मेजर विक्रम के पास आया।
आंखों में नफरत नहीं, गहरा सम्मान था।
पूरी ताकत से एक सख्त फौजी की तरह सैल्यूट किया।
यह सैल्यूट सिर्फ एक पाकिस्तानी अफसर का, एक हिंदुस्तानी अफसर को नहीं था –
यह एक इंसान का दूसरे इंसान की इंसानियत को सलाम था।

मेजर विक्रम ने भी मुस्कुराकर उतने ही सम्मान के साथ सैल्यूट का जवाब दिया।

उस दिन उस सरहद पर कुछ देर के लिए बंदूकों का शोर नहीं, इंसानियत का संगीत गूंज रहा था।

समापन – संदेश

यह कहानी हमें सिखाती है कि इंसानियत ही दुनिया का सबसे बड़ा मजहब है।
यह किसी सरहद, किसी धर्म या किसी वर्दी की मोहताज नहीं होती।
भारतीय सेना के जवानों ने साबित कर दिया कि वे सिर्फ देश की जमीन के ही नहीं, इंसानियत के भी सच्चे रक्षक हैं।
उन्होंने नफरत की आग में मोहब्बत और रहमदिली का एक ऐसा पुल बनाया जिस पर चलकर इंसानियत खुद को गौरवान्वित महसूस कर रही थी।

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