माँ के गुजरने के बाद बेटे ने पिता को वृद्धाश्रम छोड़ दिया, मगर भगवान का खेल देख रूह काँप गई
बूढ़े पिता और टूटते रिश्ते: एक सच्ची कहानी
गोपीनाथ जी और उनकी पत्नी कावेरी देवी ने अपने जीवन के अधिकांश वर्ष अपने बच्चों की खुशहाली के लिए समर्पित कर दिए। राजेश और मोहित, उनके दो बेटे, उनके जीवन का केंद्र थे। उन्होंने अपने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया, हर सुख-सुविधा प्रदान की, ताकि वे एक सफल और सम्मानित जीवन जी सकें। मां-बाप के लिए बच्चे ही पूरी दुनिया होते हैं, लेकिन समय के साथ रिश्तों की परख बदल जाती है।
कावेरी देवी की तबीयत लंबे समय से खराब थी। महीनों तक इलाज और दवाइयों के बाद एक दिन उन्होंने अंतिम सांस ली। उस दिन पूरा घर शोक में डूब गया। बेटे आंसू बहाए, लेकिन मां के जाने के साथ घर का संतुलन भी टूट गया। बहुओं की जुबान खुल गई। रूपा कहती, “बाबूजी दिन भर बैठे रहते हैं, कोई काम नहीं करते।” मनीषा ताना कसती, “घर का खर्चा कौन उठाएगा? अब इनकी देखभाल कौन करेगा?”
धीरे-धीरे राजेश और मोहित भी यही सोचने लगे कि बूढ़े पिता अब बोझ हैं। गोपीनाथ जी के लिए यह सब सुनना किसी जहर से कम नहीं था। पत्नी का सहारा छिन चुका था और अब बेटे भी पराए लगने लगे थे। वे हर रात सोचते, “क्या मैंने यही दिन देखने के लिए अपने बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा किया था?”
अंततः बहुओं के दबाव और बेटों की सहमति से एक दिन वह फैसला हुआ जिसने गोपीनाथ जी की दुनिया बदल दी। राजेश और मोहित ने ठान लिया कि पिता को वृद्धाश्रम भेज दिया जाए।
जब वह गाड़ी आंगन से निकली, तो गोपीनाथ जी चुपचाप खिड़की से बाहर देखते रहे। वही रास्ते थे जिन पर कभी वे बेटों को कंधे पर बैठाकर मेले दिखाने ले जाते थे। वही गलियां थीं जिनमें बेटों की हंसी गूंजती थी। लेकिन आज उन रास्तों पर उनके आंसू गिर रहे थे।
थोड़ी देर में गाड़ी सुखधाम वृद्धाश्रम के गेट पर रुकी। बेटों ने पिता का हाथ पकड़कर कहा, “बाबूजी, यहां आपकी अच्छी देखभाल होगी।” गोपीनाथ जी की आंखों से आंसू छलक आए। उन्होंने धीमी आवाज में कहा, “बेटा, देखभाल तो हो जाएगी, लेकिन जब दिल टूटेगा तब मेरे आंसू कौन पोंछेगा?”
बेटे चुप रहे। उन्होंने नजरें चुराईं और पिता को वहीं छोड़कर लौट गए।
दरवाजे के भीतर कदम रखते ही गोपीनाथ जी ने महसूस किया कि अब जिंदगी का यह पड़ाव बिल्कुल अलग है। चारों ओर अनजाने चेहरे थे, जिनकी आंखों में वही खालीपन झलक रहा था जो उनकी अपनी आंखों में था। कोई खिड़की के पास बैठा अपने अतीत में खोया था, तो कोई चुपचाप दीवार निहार रहा था। हर किसी की कहानी अलग थी, लेकिन दर्द एक जैसा।
मैट्रन ने उन्हें एक कमरे में ले जाकर कहा, “यहां आपकी चारपाई होगी। पास में अलमारी है। जो भी सामान है रख दीजिए।” गोपीनाथ जी चुपचाप सिर हिलाकर बैठ गए। उनकी आंखें बार-बार दरवाजे की ओर उठ रही थीं, मानो अभी बेटे लौट कर आएंगे और कहेंगे, “बाबूजी, हम मजाक कर रहे थे, चलिए घर।”
लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
धीरे-धीरे दिनचर्या शुरू हुई। सुबह योग, दोपहर में साधारण दाल-रोटी, शाम को सब मिलकर भजन-कीर्तन। लेकिन गोपीनाथ जी का मन वहां टिक नहीं पा रहा था। वे हर पल कावेरी देवी को याद करते और सोचते, “काश वह होती तो यह दिन देखने न पड़ते।”
फिर भी समय इंसान को ढाल देता है।
वहां उनकी मुलाकात रघुनाथ जी से हुई, जो कभी स्कूल में मास्टर थे। रघुनाथ जी मुस्कुरा कर बोले, “भाई साहब, यहां सब दुखी आकर रहते हैं, लेकिन धीरे-धीरे आदत हो जाती है। कम से कम यहां कोई अपमान तो नहीं करता।”
गोपीनाथ जी ने उनकी ओर देखा और हल्की मुस्कान दी, मगर भीतर का घाव गहरा था।
रातें सबसे कठिन होती थीं। चारपाई पर लेटते ही पत्नी की यादें आघेरतीं। वह कोना याद आता जहां कावेरी बैठकर सब्जी काटा करती थी। वह आंगन याद आता जहां पोते खेलते थे। और अब वही बेटे, जिनके लिए उन्होंने सब सहा, उन्हें अकेला छोड़कर चले गए थे।
एक दिन अचानक वृद्धाश्रम में सूचना मिली कि कुछ लोग मिलने आए हैं। गोपीनाथ जी का दिल धड़क उठा। बाहर जाकर देखा तो राजेश और मोहित खड़े थे। दोनों ने चरण स्पर्श किया और औपचारिक बातें कीं।
गोपीनाथ जी ने उम्मीद भरी आवाज में कहा, “बेटा, घर में सब ठीक है ना?”
बहुएं और बेटे नजरें चुराते हुए बोले, “हाँ बाबूजी, सब ठीक है। आप यहां अच्छे से रह रहे हैं ना?”
गोपीनाथ जी ने गहरी सांस ली, “रह तो रहा हूं बेटा, पर घर जैसा सुकून कहाँ?”
मोहित ने जल्दी से कहा, “आप चिंता मत कीजिए बाबूजी, हम अक्सर मिलने आते रहेंगे।” लेकिन दोनों जल्दी में उठ खड़े हुए और चले गए।
उनकी पीठ देखते हुए गोपीनाथ जी का दिल भर आया। आंखें नम थीं, होंठ कांप रहे थे। उन्होंने मन ही मन कहा, “यह वही बेटे हैं जिनके लिए मैंने अपनी जवानी कुर्बान कर दी, और आज इन्हें मुझसे मिलने की फुर्सत भी नहीं।”
समय गुजरता गया। धीरे-धीरे गोपीनाथ जी अन्य बुजुर्गों के साथ घुलने लगे। किसी के साथ शतरंज खेलते, तो किसी के साथ भजन गाते। लेकिन भीतर का खालीपन हर वक्त उन्हें कुरेदता रहा।
एक रात खिड़की से आसमान की ओर देखते हुए वे फुसफुसाए, “कावेरी, देख रही हो ना? तुम्हारे बिना मैं कितना अकेला हो गया हूं। पर अब मैं टूटूंगा नहीं। अब यह दर्द सबक बनेगा मेरे बेटों के लिए।”
उन्हें नहीं पता था कि उनका यह निश्चय आने वाले दिनों में उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा मोड़ बनने वाला है।
दिन बीतते बीतते अब गोपीनाथ जी वृद्धाश्रम की दिनचर्या में रमने लगे थे, लेकिन अंदर ही अंदर उनका मन हर रोज टूटता जा रहा था। बाहर से वे मुस्कुरा देते, साथियों के बीच बातचीत कर लेते, लेकिन अकेले में जब चारपाई पर बैठते तो कलेजा फटने लगता।
कावेरी देवी के बिना जीवन अधूरा हो चुका था और बेटों की बेरुखी ने बाकी हिम्मत भी छीन ली थी। कई बार सोचते, “क्या मैंने सच में कोई गलती की थी जो मुझे यह दिन देखना पड़ रहा है?”
वृद्धाश्रम के साथी बुजुर्ग उनका सहारा बनते। रघुनाथ जी कहते, “भाई, दुख बांटने से हल्का होता है। जब बेटे-बहू हमें नहीं समझते तो हमें खुद ही अपने दुख को ताकत बनाना सीखना होगा।”
गोपीनाथ जी चुपचाप सिर हिलाते, मगर भीतर कहीं उम्मीद बाकी थी कि शायद एक दिन उनके बेटे लौटेंगे और कहेंगे, “बाबूजी, अब घर चलिए।”
लेकिन हकीकत उल्टी निकली।
एक दिन गोपीनाथ जी की तबीयत अचानक बिगड़ गई। वृद्धाश्रम प्रशासन ने तुरंत डॉक्टर को बुलाया। दवा दी गई। कुछ घंटे बाद हालत संभली।
उसी रात उन्होंने राजेश को फोन किया। घंटी जाती रही, मगर कॉल रिसीव नहीं हुई। फिर मोहित को मिलाया। वहां से भी वही हाल।
कांपते हाथों से मोबाइल नीचे रखते हुए उन्होंने बुदबुदाया, “यह वही बेटे हैं जिनके लिए मैंने अपना सब कुछ दे दिया, और आज इन्हें मेरी हालत जानने की फुर्सत भी नहीं।”
इस घटना ने उनके भीतर गहरी चोट कर दी। अब वे समझ चुके थे कि बेटे और बहुएं उन्हें सिर्फ बोझ समझते हैं।
इसी बीच वृद्धाश्रम में एक सामाजिक संस्था के लोग आए। वे वहां बुजुर्गों की सेवा के लिए दवाइयां और कपड़े बांट रहे थे। उन्होंने गोपीनाथ जी से भी हालचाल पूछा।
बातचीत में जब उन्हें पता चला कि गोपीनाथ जी के पास जमीन-जायदाद है, तो उन्होंने चौंक कर कहा, “बाबूजी, इतना सब होने के बाद भी आपको यहां रहना पड़ रहा है? यह तो अन्याय है।”
गोपीनाथ जी चुप रहे, लेकिन उस रात उन्होंने बहुत देर तक सोचा।
जायदाद के लिए ही तो बेटों ने बंटवारा किया था, और उसी जायदाद ने उन्हें लालची बना दिया था। अगर यही जायदाद उनके हाथ लग गई, तो शायद और भी बुजुर्ग ऐसे हालात में पहुंचेंगे।
उस रात उन्होंने एक निर्णय लिया। एक ऐसा निर्णय जो आने वाले वक्त में उनके बेटों की आंखें खोल देगा।
अगले ही दिन उन्होंने वृद्धाश्रम के प्रबंधक से कहा, “मुझे वकील से मिलना है।”
वकील आया। सारे कागज सामने रखे गए।
गोपीनाथ जी ने साफ आवाज में कहा, “मैं अपनी सारी संपत्ति, जमीन-जायदाद और घर इस वृद्धाश्रम को दान करता हूं। क्योंकि जब अपनों ने मुझे ठुकराया, तो इन्हीं अनजान लोगों ने मुझे सहारा दिया।”
वकील ने कागज तैयार किए और गोपीनाथ जी ने कांपते हाथों से दस्तखत कर दिए। उस पल उनकी आंखों से आंसू जरूर बहे, मगर मन हल्का हो गया।
“अब मैंने सब कुछ भगवान को सौंप दिया। बेटों को अब सिर्फ सबक मिलेगा।”
कुछ दिनों बाद यह खबर पूरे गांव में फैल गई। लोग ताने फूंसी करने लगे।
गोपीनाथ जी ने अपनी सारी संपत्ति वृद्धाश्रम को दान कर दी।
यह सुनकर राजेश और मोहित के पैरों तले जमीन खिसक गई। वे तुरंत वृद्धाश्रम पहुंचे।
उनके चेहरे पर चिंता थी, मगर दिल में डर और पछतावा भी।
उन्होंने दरवाजे के भीतर कदम रखा और पहली बार अपने पिता को ऐसे देखा—शांत, दृढ़ और आत्मविश्वासी।
गोपीनाथ जी ने उनकी ओर देखा और कहा, “आ गए बेटा, अब किस लिए आए हो? संपत्ति के लिए या अपने पिता के लिए?”
उनकी आवाज में ऐसा ठहराव और दर्द था कि राजेश और मोहित दोनों सकपका गए।
राजेश हकलाते हुए बोला, “नन्ही बाबूजी, हम तो बस आपको देखने आए थे। आप यहां कैसे हैं, यही जानना चाहते थे।”
मोहित ने बात संभालने की कोशिश की, “हाँ बाबूजी, संपत्ति की हमें क्या जरूरत? आप ही तो हमारी असली पूंजी हैं।”
गोपीनाथ जी हल्की मुस्कुराए, लेकिन वह मुस्कान व्यंग में डूबी थी।
उन्होंने कहा, “बेटा, जब मुझे सचमुच तुम्हारी जरूरत थी, जब तुम्हारी मां अस्पताल में अपनी आखिरी सांसे गिन रही थी, तब तुम कहां थे? जब मैं अकेले आंसुओं में डूबा तुम्हें पुकारता था, तब तुम्हें काम और बहाने याद थे।”
आज जब सुना कि जायदाद दान कर दी गई है, तभी अचानक पिता की याद आ गई।
यह सुनकर दोनों बेटे निरुत्तर हो गए। उनके होंठ कांप रहे थे, आंखें झुक गईं।
इतने में बहुएं रूपा और मनीषा भी वृद्धाश्रम पहुंच गईं। दोनों ने भी वही रट लगाई, “बाबूजी, हमें माफ कर दीजिए। हमसे गलती हो गई। आप चलिए, घर चलिए। वहां आपको किसी चीज की कमी नहीं होने देंगे।”
गोपीनाथ जी का चेहरा गंभीर था। उन्होंने शांत स्वर में कहा, “कमी, बेटा, मुझे खाने-पीने की नहीं, अपनेपन की कमी थी। और वह कमी तुम सबने मिलकर दी। तुमने मुझे और मेरी पत्नी को सामान की तरह बांट दिया। कभी इधर, कभी उधर, कभी जिम्मेदारी से भागे, कभी अपमान से लाद दिया।”
“अगर मैं आज भी तुम्हारे साथ चला जाऊं, तो कल फिर वही हाल होगा। अब यह बूढ़ा दिल और ठोकरें नहीं सह सकता।”
सारा हॉल खामोश था। अन्य बुजुर्ग भी सब कुछ सुन रहे थे। किसी की आंखें भर आईं, किसी का दिल कांप उठा।
राजेश रोते हुए बोला, “बाबूजी, हमने गलती की, लेकिन इंसान से गलती हो जाती है। हमें एक मौका और दे दीजिए।”
मोहित ने हाथ जोड़ते हुए कहा, “हाँ बाबूजी, हम आपको लेकर घर चलेंगे। अब हम आपकी सेवा करेंगे, आपकी जरूरतों का ध्यान रखेंगे।”
गोपीनाथ जी की आंखों से आंसू छलक आए, लेकिन उनकी आवाज दृढ़ थी।
“सेवा तब होती है जब दिल से की जाए, मजबूरी या दिखावे से नहीं। जिस पिता को तुमने बोझ समझकर छोड़ा, अब उसी पिता को तुम विरासत का ताला समझकर वापस ले जाना चाहते हो।”
“बेटा, मां-बाप का प्यार कोई सौदा नहीं होता कि जब चाहे खरीद लिया, जब चाहे फेंक दिया। वे वो जड़े होते हैं जिनसे पूरा पेड़ हराभरा रहता है। अगर वही जड़े सूख जाएं तो पेड़ कभी फल-फूल नहीं देता।”
उनकी आवाज कांप रही थी, लेकिन उसमें ऐसी ताकत थी कि वहां मौजूद हर दिल पिघल गया।
राजेश और मोहित दोनों हाथ जोड़कर वहीं खड़े रह गए। उनके गाल आंसुओं से भीगे थे, पर अब बहुत देर हो चुकी थी।
गोपीनाथ जी धीरे-धीरे बाहर बगीचे की ओर चले गए। उनके कदम लड़खड़ा रहे थे, लेकिन आत्मा मजबूत थी। अब वे टूटे नहीं थे। अब उन्होंने अपने दर्द को सबक में बदल दिया था।
पीछे खड़े बेटों ने देखा वह बूढ़ा पिता जिसे उन्होंने बोझ समझकर छोड़ दिया था, आज सबसे बड़ा आईना बनकर खड़ा था।
कहानी का संदेश
यह कहानी हमें यही सिखाती है कि मां-बाप हमारे जीवन का सबसे बड़ा सहारा होते हैं। जब वे जवान होते हैं, तो हमें संभालते हैं, और जब बूढ़े हो जाते हैं, तो उनकी जिम्मेदारी हमारी होती है। लेकिन अगर हम उन्हें बोझ समझकर ठुकरा दें, तो याद रखना वक्त हमें भी वही आईना दिखाएगा।
क्या हम अपने मां-बाप को वह सम्मान दे पा रहे हैं जिसके वे हकदार हैं, या केवल अपने मतलब तक सीमित हो गए हैं?
यह सोचने का विषय है।
अगर यह कहानी आपके दिल को छू गई हो, तो इसे अपने परिवार और मित्रों के साथ जरूर साझा करें। मां-बाप की कदर करें और रिश्तों की कीमत समझें।
जय हिंद, जय परिवार।
(समाप्त)
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