*कपड़ों से नहीं, सोच से पहचान बनती है
सुबह के करीब 10 बजे दिल्ली के एक बड़े कॉर्पोरेट ऑफिस की लॉबी में कई युवा इंटरव्यू के लिए लाइन में बैठे थे। सबके कपड़े ब्रांडेड, जूते चमकदार, हाथ में टैबलेट्स और मोबाइल—हर कोई खुद को सबसे बेहतरीन साबित करने की होड़ में था।
इसी भीड़ में अचानक एक बुजुर्ग व्यक्ति दाखिल हुए। उम्र करीब 65-70 साल, पुराने से कपड़े—हल्की भूरे रंग की शर्ट, सफेद पायजामा और घिसी हुई चप्पलें। हाथ में एक छोटा सा बैग और चेहरे पर गहरी शांति। वे चुपचाप एक खाली कुर्सी पर बैठ गए।
पास बैठे युवाओं ने आपस में फुसफुसाते हुए मजाक उड़ाया—“लगता है चपरासी की नौकरी के लिए आए हैं या किसी का पिता सिफारिश करने आया है।” रिसेप्शन पर बैठी लड़की ने बिना देखे ही पूछा, “आपको किससे मिलना है, बाबा?” बुजुर्ग मुस्कुराए, “मुझे HR से मिलना है, मैंने समय लिया था। मेरा नाम विजय वर्मा है।”
लड़की ने रजिस्टर में नाम देखा, फिर बोली, “ठीक है, बैठिए, बुलाया जाएगा।”
कुछ ही देर में HR हेड, जो खुद पूरी तरह फॉर्मल कपड़ों में थे, बाहर आए और सीधा बुजुर्ग की ओर बढ़े। उन्होंने सबके सामने कहा—“गुड मॉर्निंग सर, आप आ गए? मैंने आपको रिसीव करने कहा था। कृपया आइए, मीटिंग रूम तैयार है।”
पूरा माहौल सन्न हो गया। जिसे सबने मामूली समझा था, वही कंपनी के एमडी श्री विजय वर्मा निकले। जिनका सबने मजाक उड़ाया, अब उन्हीं के सामने HR हेड झुके खड़े थे।
विजय वर्मा ने मीटिंग रूम में पहुँचकर कहा, “शुरू करने से पहले मैं आज सुबह की एक छोटी सी घटना साझा करना चाहता हूं। मैं जानबूझकर पुराने कपड़ों में आया ताकि देख सकूं कि हमारी कंपनी के लोग दूसरों को कैसे देखते हैं। मुझे दुख हुआ कि हमारी डिग्री तो बड़ी है, लेकिन इंसानियत छोटी हो गई है। किसी ने मुझसे चाय लाने को कहा, किसी ने मजाक उड़ाया, लेकिन किसी ने नहीं पूछा कि मैं कौन हूं या मुझे किसी मदद की जरूरत है।”
कमरे में सन्नाटा था। कई युवाओं की गर्दनें शर्म से झुक गईं। तभी एक युवक बोला, “सर, मैं माफी चाहता हूं। मैंने आपका मजाक उड़ाया, मुझे अफसोस है।”
विजय वर्मा मुस्कुराए, “बेटा, गलती सोच में होती है, इंसान में नहीं। जब सोच बदलती है, तभी असली शिक्षा होती है।”
इसके बाद इंटरव्यू शुरू हुए, लेकिन अब सवालों से ज्यादा नजरिया, विनम्रता और जिम्मेदारी देखी जा रही थी। युवाओं ने खुद से पूछा—क्या मैं सिर्फ नौकरी पाने आया हूं या एक अच्छा इंसान बनने भी तैयार हूं?
अगले दिन ऑफिस की लॉबी में एक नया बोर्ड लगा था—
**“कपड़े धोए जा सकते हैं, पर सोच अगर मैली हो तो कंपनी भी गंदी हो जाती है।”**
— विजय वर्मा, संस्थापक व प्रबंध निदेशक
कंपनी में अब हर इंटरव्यू दो हिस्सों में बंट गया—तकनीकी योग्यता और सामाजिक व्यवहार। दीवारों पर “नो जजमेंट ज़ोन” के पोस्टर लग गए। हर महीने एक ऐसे कर्मचारी को चुना जाने लगा, जिसकी मेहनत भले ही रिपोर्ट में न दिखे, लेकिन उसका दिल कंपनी को जिंदा रखता हो।
विजय वर्मा की कहानी अब कंपनी की वेबसाइट और सोशल मीडिया पर वायरल हो गई। उन्होंने लिखा—
**“मैंने जानबूझकर पुराने कपड़े पहने, ताकि देख सकूं कि हमारी सफलता हमें कितना संवेदनशील बनाती है या कितना अंधा। मैं उन सबका शुक्रगुजार हूं, जिन्होंने मुझे चायवाला समझा, क्योंकि उन्होंने मेरी आंखें खोल दीं।”**
अब ऑफिस में माहौल बदल चुका था। लोग एक-दूसरे की इज्जत करने लगे थे। रिसेप्शन पर वही युवक, जिसने पहले मजाक उड़ाया था, अब सफाई कर्मचारी को पानी की बोतल देकर बोला—“भाई, आप मेरी सीट पर बैठिए, जब तक मैं आता हूं।” सफाई कर्मचारी मुस्कुराया—“अब तो लोग भी बदल गए हैं साहब। पहले हम नजरअंदाज थे, अब बात करने वाले मिलते हैं।”
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