कंडक्टर ने बूढ़े भिखारी को बस से उतार दिया लेकिन पास में बैठी महिला ने जो बुजुर्ग के साथ

इंसानियत की सीट

दोपहर के 2:00 बज रहे थे। जून की तपती गर्मी में दिल्ली की सड़कों पर चलती बसें भाप छोड़ती मशीनों जैसी लग रही थीं। सरोजनी नगर से कश्मीरी गेट जा रही एक सरकारी बस पूरी तरह खचाखच भरी हुई थी। लोग एक-दूसरे पर झुके हुए, पसीने से तर-बतर, मोबाइल पकड़े कोई नींद में झूलता तो कोई खिड़की से बाहर धूल झांकता।

बस के अगले दरवाजे से एक बुजुर्ग व्यक्ति चढ़ा। उम्र करीब 70 साल रही होगी। चेहरे पर गहरी झुर्रियां, आंखें अंदर धंसी हुई, कपड़े एक पुरानी धुल चुकी सफेद कमीज और मैला सा पायजामा। उनके पैर में चप्पल की एक पट्टी भी टूटी हुई थी। जैसे ही उन्होंने बस में पहला कदम रखा, कुछ लोगों ने नाक सिकोड़ ली। किसी ने बुदबुदाते हुए कहा, “सारे भिखारी अब बसों में ही चढ़ते हैं।”
बुजुर्ग ने किसी की तरफ नहीं देखा। चुपचाप एक कोने में जाकर सीट के नीचे बैठ गए, जहां ज्यादा भीड़ नहीं थी। उनकी सांसे तेज चल रही थीं। ऐसा लग रहा था जैसे उन्हें चढ़ते हुए बहुत मेहनत लगी हो।

कुछ मिनट बाद कंडक्टर आया। वह करीब 35 साल का नौजवान था, थक कर चिढ़ा हुआ। हर किसी से पैसे मांगता हुआ, “टिकट! टिकट दिखाओ! सरोजनी से कहां जाना है?”
जब वह बुजुर्ग के पास पहुंचा, उसने हाथ मारते हुए कहा, “हे बाबा, तुम कहां से चढ़े? टिकट निकालो!”
बुजुर्ग ने धीमे स्वर में कहा, “बेटा, मेरे पास पैसे नहीं हैं, लेकिन मुझे अस्पताल जाना है, बहुत जरूरी है मेरी दवा…”
कंडक्टर का चेहरा तमतमा गया, “बहाना मत बना! सब यही ड्रामा करते हैं, अस्पताल जाना है, बच्चा बीमार है, मां मर रही है… उतर जा चुपचाप! मुफ्तखोरी की आदत है तुम्हें!”

बस में सन्नाटा था। लेकिन कोई नहीं बोला। बुजुर्ग कुछ बोलना चाहते थे, लेकिन कंडक्टर ने उनका हाथ पकड़ा और चिल्लाकर ड्राइवर से कहा, “अगले स्टॉप पर रोक देना, इसे बाहर फेंकना है!”
ड्राइवर ने कुछ नहीं कहा। बस धीरे से अगला ब्रेक पकड़ लिया। बस रुकी। कंडक्टर ने बुजुर्ग का हाथ पकड़कर लगभग घसीटते हुए बाहर उतार दिया। उनका बैग गिरा, दवाइयों का पुराना पर्चा उड़ा और सड़क पर गिर गया। बुजुर्ग वहीं फुटपाथ पर बैठ गए—थक कर, शर्म से और शायद पेट की पीड़ा से भी।

बस फिर से चलने लगी। कोई कुछ नहीं बोला। कुछ ने मोबाइल देखा, कुछ ने खिड़की से मुंह मोड़ लिया। लेकिन सीट के पास खड़ी एक महिला अब भी उसी जगह देख रही थी जहां बुजुर्ग को उतारा गया था। उसकी उम्र करीब 30 साल रही होगी। गहरे नीले रंग की सूती साड़ी, साधारण लुक, लेकिन आंखों में एक अलग चमक।

उसने ड्राइवर से तेज आवाज में कहा, “स्टॉप कीजिए बस अभी!”
ड्राइवर चौंका, “मैडम, बीच में कहां रुकेंगे?”
“मैं कह रही हूं, स्टॉप कीजिए!”
उसकी आवाज में वो अथॉरिटी थी जिससे बस सचमुच रुक गई। अब सबकी नजरें उसकी ओर थीं। वह तेजी से नीचे उतरी और चल पड़ी उसी ओर जहां वह बुजुर्ग अभी भी बैठे थे। बस रुक चुकी थी। गर्मी और भीड़ से परेशान यात्री अब उस महिला को हैरानी से देख रहे थे। कोई आंखों से तौल रहा था, कोई कानों में बुदबुदा रहा था, “ड्रामा करने निकली है लगता है, क्यों पड़ रही है दूसरों के चक्कर में?”

लेकिन उस महिला की नजरें अब सिर्फ उस बुजुर्ग पर थीं। वो तेजी से कदम बढ़ाते हुए उनके पास पहुंची।
“बाबा, ठीक है अब?”
बुजुर्ग ने सिर उठाया। चेहरे पर अजीब सी थकान थी और आंखों में आंसू, “बेटी, कुछ नहीं चाहिए अब। बैठने दिया होता बस में तो ठीक था, अब यहीं बैठ जाऊंगा।”
वो महिला वहीं सड़क के किनारे बैठ गई। उनके पास हाथों से उनका थैला उठाया, उसमें रखी दवाइयों की गीली पर्चियां सीधी की। फिर धीरे से बोली, “आपको किस अस्पताल जाना था?”
“राम मनोहर लोहिया।”
“क्यों?”
“ब्लड प्रेशर बहुत बढ़ गया है। डॉक्टर ने आज बुलाया था, लेकिन पैसे नहीं थे तो सोचा बस में चुपचाप चला जाऊं।”

महिला ने गहरी सांस ली। जेब से फोन निकाला, किसी को कॉल किया, “हां जी, तुरंत एक कार भेजिए मेरे पास। हां, वही जहां कंडक्टर ने मुझे बस से उतरवाया। जल्दी!”
बुजुर्ग कुछ समझ नहीं पाए, “बेटी, तुम कौन हो?”
वो मुस्कुराई, “एक इंसान, जो चुप रहना नहीं जानती।”

कुछ ही मिनटों में एक चमचमाती कार आकर रुकी। कांच पर टैग था—जन कल्याण ट्रांसपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड। बुजुर्ग की आंखें फैल गईं, “यह तो वही कंपनी है जो शहर की 50 से ज्यादा बसें चलाती है!”
महिला ने कार का दरवाजा खोला, बुजुर्ग को सहारा देकर बिठाया, खुद पीछे बैठी और ड्राइवर से कहा, “सीधा आरएमएल हॉस्पिटल, वाईपी इमरजेंसी से एंट्री।”

बस अब भी थोड़ी दूर पर रुकी थी। कंडक्टर और यात्री खड़े होकर खिड़की से सब देख रहे थे। कंडक्टर हक्का-बक्का, “यह… यह तो मेन कंपनी की डायरेक्टर है!”

अस्पताल पहुंचने पर बुजुर्ग को व्हीलचेयर में अंदर लाया गया। महिला ने रिसेप्शन पर जाते हुए कहा, “इनके सारे इलाज का खर्च मेरी कंपनी उठाएगी। और हां, अगली बार जब कोई बुजुर्ग बस में बैठे और टिकट ना हो, तो पहले उसके हालात समझने की ट्रेनिंग दीजिए।”

डॉक्टरों ने बुजुर्ग का इलाज शुरू किया। महिला चुपचाप एक कोने में बैठ गई। उधर बस में बैठे लोग अब सिर्फ एक दूसरे का चेहरा देख रहे थे। वो महिला जिसकी साड़ी साधारण थी, जुड़े में पिन ढीला था, वो इतनी बड़ी कंपनी की मालकिन निकली। कंडक्टर अब भी गेट के पास खड़ा था, पसीने में भीगा हुआ, शर्म से सिर झुकाए।

अस्पताल की इमरजेंसी वार्ड में बुजुर्ग को तुरंत भर्ती कर लिया गया। डॉक्टरों ने उनकी ब्लड प्रेशर रिपोर्ट देखी और सिर हिलाते हुए बोले, “अगर आधा घंटा और देर होती तो हार्ट अटैक का खतरा था।”
महिला चुपचाप सब सुन रही थी। उसकी आंखों में ना कोई घबराहट थी, ना घमंड। बस एक सुकून था कि समय रहते मदद पहुंच गई।

डॉक्टर ने पूछा, “पर आप कौन हैं? कोई रिश्तेदार?”
महिला ने सिर्फ इतना कहा, “नहीं, एक अजनबी जिसने देर से नहीं, समय पर इंसानियत चुनी।”

उधर बस में सवार लोग धीरे-धीरे अपने गंतव्यों की ओर निकल चुके थे। लेकिन कुछ चेहरे अब भी खिड़की से बाहर उस जगह को देख रहे थे, जहां कुछ देर पहले एक बुजुर्ग को अपमानित किया गया था।
कंडक्टर अब भी गुमसुम था। ड्राइवर ने उससे कहा, “यार, पता नहीं था ना? वो कौन है?”
कंडक्टर ने धीरे से जवाब दिया, “बस वही तो है। हम किसी को इंसान नहीं समझते जब तक उसके पास पहचान या पद ना हो।”

अगले दिन शहर की एक बड़ी न्यूज़ वेबसाइट पर हेडलाइन थी—
बस से निकाले गए बुजुर्ग की मदद करने वाली महिला निकली जन कल्याण ट्रांसपोर्ट की सीईओ। जब पूरा बस चुप था, तब एक आवाज इंसानियत बनकर उठी।
सोशल मीडिया पर लोग उस महिला की तारीफ कर रहे थे। किसी ने लिखा, “कपड़े देखकर किसी की जरूरत को मत आंको। यह सबक पूरे समाज को सीखना चाहिए।”

उसी दोपहर अस्पताल में बुजुर्ग की हालत काफी बेहतर हो गई थी। डॉक्टर ने कहा, “अब खतरे से बाहर हैं, दो दिन में डिस्चार्ज हो सकते हैं।”
महिला मुस्कुराई, धीरे से उनके पास जाकर बैठी और पूछा, “अब कैसा लग रहा है बाबा?”
बुजुर्ग ने धीमे से उनका हाथ पकड़ा, “बेटी, जिंदगी में बहुत लोग देखे हैं। कोई पैसे देता है, कोई नाम पर… तूने मुझे सम्मान दिया। वह सबसे कीमती चीज है।”
महिला की आंखें नम हो गईं। उन्होंने कहा, “आप जैसे लोगों की दुआ से ही तो हम बड़े हुए हैं। शायद यह मेरा फर्ज था। और हां, आज से हमारी हर बस में अब एक सीट सिर्फ जरूरतमंदों के लिए आरक्षित होगी—बिना सवाल, बिना शक।”
बुजुर्ग ने आशीर्वाद दिया, “तेरा नाम नहीं, तेरा काम तेरे नाम से बड़ा बने बेटी।”

तीसरे दिन सुबह 10:00 बजे अस्पताल के बाहर एक बस धीरे-धीरे आकर रुकी। बस का नंबर वही था—वही जो उस दिन बुजुर्ग को उतार कर चली गई थी। दरवाजा खुला और वही कंडक्टर अब यूनिफार्म प्रेस की हुई, आंखों में शर्म और हाथों में एक गुलदस्ता लिए सीढ़ियां चढ़ते हुए सीधे अस्पताल के वार्ड की ओर गया।
वह सीधा उस कमरे में पहुंचा जहां बुजुर्ग अब ठीक होकर बैठकर चाय पी रहे थे और सामने वही महिला सीओ मैडम मुस्कुराकर कुछ पेपर पढ़ रही थी।
कंडक्टर ने दरवाजे पर खड़े होकर कहा, “साहब, माफ कीजिए।”
बुजुर्ग चौंक गए, फिर धीरे से मुस्कुराए, “आओ बेटा, बैठो।”
कंडक्टर जमीन पर बैठ गया और बोला, “उस दिन मैंने एक इंसान को नहीं पहचाना। मैंने बस वर्दी पहनकर सोच लिया कि मेरी जिम्मेदारी पैसे गिनना है, इंसान नहीं। लेकिन जब मैंने अखबार में पढ़ा कि आपने मेरी कंपनी की मालकिन को भी कुछ नहीं बताया, तब समझ आया, सच्चाई को खुद बोलने की जरूरत नहीं होती। वह अपने आप सामने आ जाती है।”
महिला ने धीरे से कहा, “गलतियां इंसान से होती हैं, लेकिन जब कोई गलती से सीख ले तो वह इंसान बन जाता है।”

एक हफ्ते बाद जन कल्याण ट्रांसपोर्ट की सभी बसों पर एक नया स्टीकर चिपका हुआ था—
अगर किसी ने मदद मांगी और आपके पास देने को कुछ नहीं था, तो कम से कम एक इंसानियत भरा जवाब जरूर दीजिए।
अब हर बस में एक इमरजेंसी ‘ह्यूमैनिटी सीट’ थी—उन लोगों के लिए जो पैसे से नहीं, जरूरत से चढ़ते थे।
इंसान की कीमत उसके पास के पैसों से नहीं, उसकी जरूरत और उसकी नियत से आंकी जानी चाहिए।
कभी किसी की हालत देखकर उसकी इज्जत मत छीनो। जरूरत पड़ने पर वही इंसान तुम्हारी सबसे बड़ी उम्मीद बन सकता है।

एक कहानी जो सोच बदलती है।