चपरासी रोज़ भूखे छात्र को खिलाता था अपने टिफिन से खाना, जब छात्र की सच्चाई सामने आई तो होश उड़ गए!
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दिल्ली के दिल में बसा “दिल्ली पब्लिक हेरिटेज स्कूल”… एक ऐसा नाम जिसे सुनकर शहर के सबसे बड़े उद्योगपति, अफसर और नेता गर्व से अपने बच्चों का नाम यहां लिखवाते थे। ऊँची-ऊँची इमारतें, हरे-भरे मैदान, और गेट पर खड़ी विदेशी गाड़ियों की कतार—यहां पढ़ना सिर्फ शिक्षा नहीं, एक स्टेटस था।
लेकिन इस चमक-दमक के बीच एक ऐसा कोना भी था, जिसे शायद ही कोई नोटिस करता—स्कूल का सबसे बूढ़ा चपरासी, शंभू काका।
करीब 60 साल के, झुर्रियों से भरा चेहरा, खाकी वर्दी कई बार धुलने के बाद फीकी पड़ चुकी, और आंखों में एक अजीब सी ममता। 30 साल से इसी स्कूल में थे—सुबह गेट खोलते, शाम को ताला लगाकर सबसे आख़िरी में जाते। उनके लिए यह स्कूल ही पूरी दुनिया था।
घर? बस पास की मजदूर बस्ती में किराए का छोटा कमरा, बीमार पत्नी पार्वती, और एक तनख्वाह जो दवाओं और किराए में खत्म हो जाती। उनका कोई बच्चा नहीं था, शायद इसीलिए स्कूल के हर बच्चे में अपने बेटे की छवि ढूंढते थे।
और फिर आया मोहन।
10 साल का दुबला-पतला लड़का, ईडब्ल्यूएस कोटे से दाखिल हुआ। कपड़े साफ़, लेकिन सिले-पुराने; बैग की जगह एक कपड़े का थैला। क्लास में हमेशा पीछे, चुपचाप बैठा रहता। स्कूल के अमीर बच्चों के मज़ाक और ताने झेलता, लेकिन कभी जवाब नहीं देता।
लंच ब्रेक में बाकी बच्चों के पास बड़े-बड़े टिफिन होते—पास्ता, सैंडविच, जूस—but मोहन? वह मैदान के कोने में पुराने अमलतास के पेड़ के नीचे बैठ जाता। किताब खोलकर पढ़ने का नाटक करता, ताकि कोई देख न सके कि उसके पास खाने को कुछ नहीं।
तीन दिन तक यह मंजर देखकर शंभू काका का दिल पिघल गया। उन्हें अपना बचपन याद आया, जब भूख उनकी सबसे बड़ी साथी थी। चौथे दिन, उन्होंने अपनी पोटली मोहन के सामने खोली—दो रोटियां, थोड़ी सब्जी, और एक सफेद झूठ,
“आज पार्वती ने ज्यादा रोटियां रख दी हैं, मुझसे अकेले खत्म नहीं होंगी।”
मोहन ने पहले मना किया, फिर कांपते हाथों से रोटी ली और ऐसे खाने लगा जैसे सदियों से भूखा हो। उस दिन के बाद, यह एक नियम बन गया—रोज़ शंभू काका अपनी रोटी मोहन के साथ बांटते। कभी आधी, कभी पूरी। खुद अचार से पेट भरते, लेकिन मोहन का पेट खाली न रहे।
लेकिन इंसानियत, नियमों की किताब में फिट नहीं बैठती।
एक दिन प्रिंसिपल शर्मा ने उन्हें मोहन के साथ खाते देख लिया।
“तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई छात्र के साथ बैठकर खाने की? अगली बार देखा तो नौकरी से निकाल दूंगा!”
शंभू काका चुप रहे, लेकिन मोहन को खाना खिलाना नहीं छोड़ा—बस अब इमारत के पीछे छुपकर।
और फिर आया स्कूल का वार्षिक दिवस।
मुख्य अतिथि—शहर के सबसे बड़े उद्योगपति और स्कूल के सबसे बड़े दानदाता, राजवंश सिंघानिया और उनकी पत्नी सावित्री देवी।
ये वही लोग थे, जिनकी ज़िंदगी 8 साल पहले रुक गई थी—जब उनका 2 साल का बेटा रोहन पार्क से किडनैप हो गया था। आधी दौलत लगाकर भी कोई सुराग नहीं मिला।
फंक्शन में, जब पांचवीं कक्षा के टॉपर का नाम पुकारा गया—”मोहन”—वह अपनी पुरानी यूनिफॉर्म में मंच पर आया।
सावित्री देवी उसे देखते ही जम गईं। राजवंश की आंखें भी फैल गईं। चेहरा… आंखें… बिल्कुल उनके रोहन जैसे।
और फिर उन्होंने वह देखा, जो उनके लिए सब कुछ रोक देने जैसा था—मोहन की गर्दन के पास एक गहरा भूरा जन्मचिह्न।
वही निशान, जो सिर्फ उन्हें और उनके पति को पता था।
सावित्री की चीख निकल गई—“रोहन!”—और वह बेहोश हो गईं।
मोहन डरते हुए बोला, “मेरे चाचा कहते हैं, मेरे मां-बाप एक हादसे में मर गए। मुझे 8 साल पहले रेलवे ट्रैक के पास मिले थे।”
राजवंश का दिल धड़कना भूल गया—8 साल पहले, रेलवे ट्रैक, वही दिन, वही शक!
फौरन डीएनए टेस्ट हुआ—और रिपोर्ट ने सब साफ़ कर दिया। मोहन ही रोहन सिंघानिया था—सिंघानिया साम्राज्य का इकलौता वारिस।
प्रिंसिपल शर्मा के पैरों तले जमीन खिसक गई। उन्होंने सफाई देने की कोशिश की, “हमने हमेशा इस बच्चे का खास ध्यान रखा है…”
लेकिन सावित्री का सवाल चाकू की तरह चीर गया—
“अगर ध्यान रखा, तो मेरा बेटा इतना कमजोर क्यों है? क्यों भूखा था?”
तभी एक लड़का बोला, “मैडम, यह कभी लंच नहीं लाता था। रोज़ भूखा रहता था। पर शंभू काका इसे अपने टिफिन से खिलाते थे।”
पूरा ऑडिटोरियम शंभू काका की तरफ मुड़ा। वह पीछे खड़े, खंभे के सहारे, आंसू पोंछ रहे थे।
राजवंश उनके पास गए—और बिना कुछ कहे, उस मैले-कुचैले चपरासी को गले से लगा लिया।
“काका… आप भगवान हैं। आपने मेरे बेटे को वो दिया, जो मैं अपनी दौलत से भी नहीं दे सका—पिता की ममता। इस कर्ज को मैं अपनी पूरी सल्तनत देकर भी नहीं चुका सकता।”
मंच पर आकर राजवंश ने घोषणा की—
“आज से इस स्कूल के संचालन के लिए एक नया ट्रस्ट बनेगा, और उसके चेयरमैन होंगे—श्री शंभू प्रसाद। आज से ये हमारे परिवार का हिस्सा हैं, और इनकी पत्नी का इलाज दुनिया के सबसे अच्छे डॉक्टर करेंगे।”
पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा।
शंभू काका अब चपरासी नहीं, बल्कि संरक्षक बन गए। उन्होंने सबसे पहला काम किया—स्कूल में एक मुफ्त कैंटीन खुलवाई, ताकि कोई भी बच्चा—अमीर या गरीब—भूखा न रहे।
उन्होंने सिर्फ एक रोटी बांटी थी, लेकिन किस्मत ने उन्हें बेटा, इज्जत और ऐसा प्यार दिया, जो दुनिया के किसी खजाने से बड़ा था।
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