जब बैंक के मालिक बैंक में बुजुर्ग बनकर गए , मेनेजर ने धक्के मारकर निकला फिर जो हुआ …

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सुबह के ठीक 11 बजे शहर के सबसे बड़े, सबसे आलीशान बैंक के कांच के दरवाज़े धीरे से खुले।
अंदर कदम रखते ही सबकी नज़रें एक ही ओर घूम गईं — एक साधारण से कपड़े पहने, झुर्रियों भरे चेहरे वाले बुज़ुर्ग, हाथ में लकड़ी की पुरानी छड़ी, और दूसरे हाथ में एक घिसा-पिटा, पीला पड़ चुका लिफाफा।
यह थे चरण दास, उम्र लगभग 75 साल, चाल धीमी लेकिन आत्मसम्मान से भरी।

बैंक के अंदर आए ग्राहकों और कर्मचारियों की आँखों में जिज्ञासा और तिरस्कार का अजीब-सा मिश्रण था।
यहां आमतौर पर सूट-बूट वाले, महंगे परफ्यूम की खुशबू लिए अमीर लोग आते थे। ऐसे में यह सादगीभरा, थका-सा बुज़ुर्ग मानो किसी और दुनिया से चला आया हो।

काउंटर पर बैठी सीमा नाम की महिला ने उन्हें सिर से पाँव तक देखा, फिर ठंडी आवाज़ में बोली —
“बाबा, कहीं आप गलत बैंक में तो नहीं आ गए? आपका खाता यहां होना मुश्किल है।”
चरण दास ने शांत स्वर में कहा,
“बेटी, एक बार देख तो लो, शायद मेरा खाता यहीं हो।”

सीमा ने लिफाफा लिया, लेकिन मन में पहले ही फ़ैसला कर लिया था कि यह बुज़ुर्ग यहाँ समय बर्बाद कर रहे हैं।
उन्हें वेटिंग एरिया में बैठा दिया गया।
पीछे-पीछे फुसफुसाहट शुरू हो गई — “भिखारी लगता है… यहां कैसे आ गया?”,
“इस बैंक में तो करोड़पतियों के खाते होते हैं, इसका यहां क्या काम?”

चरण दास सब सुन रहे थे, लेकिन चुप थे।
एक कर्मचारी अमित, जो अभी-अभी बाहर से लौटा था, ने भी ये बातें सुनीं।
वह सीधे बुज़ुर्ग के पास गया —
“बाबा, आपको किससे मिलना है?”
“मैनेजर से,” बुज़ुर्ग ने जवाब दिया।

अमित अंदर मैनेजर सुनील के पास गया, लेकिन उसने तिरस्कार से कहा —
“उसे बैठने दो, थोड़ी देर में खुद चला जाएगा। मेरे पास ऐसे लोगों के लिए समय नहीं।”

करीब एक घंटे बाद, इंतज़ार से थककर चरण दास सीधे मैनेजर के केबिन की ओर बढ़े।
सुनील बाहर आया और अकड़ते हुए बोला —
“हां बाबा, क्या काम है?”
चरण दास ने लिफाफा आगे बढ़ाया —
“ये मेरे अकाउंट की डिटेल है। कोई लेन-देन नहीं हो पा रहा, देख लीजिए।”


सुनील ने बिना देखे कहा —
“पैसे नहीं होंगे, इसलिए रोक दी गई है। मैं तो चेहरे देखकर ही पहचान जाता हूं।”

भीड़ में हंसी फूट पड़ी।
बुज़ुर्ग ने बस इतना कहा —
“ठीक है बेटा, लेकिन यह तुम्हें महंगा पड़ेगा।”
और चले गए।

लिफाफा टेबल पर ही पड़ा रहा।
शाम को अमित ने जिज्ञासा से उसे खोला और बैंक सिस्टम में डेटा चेक किया।
परिणाम देखकर उसके हाथ कांप गए —
चरण दास इस बैंक के 60% शेयरहोल्डर थे, यानी मालिक!

अगले दिन, ठीक 11 बजे, बैंक में एक चमकता-दमकता सूट पहने व्यक्ति के साथ वही बुज़ुर्ग फिर दाखिल हुए।
पूरा बैंक ठिठक गया।
बुज़ुर्ग ने मैनेजर को बुलाया और ठंडी, मगर दृढ़ आवाज़ में कहा —
“तुम्हें मैनेजर के पद से हटाया जा रहा है। तुम्हारी जगह अमित को मैनेजर बनाया जाएगा। और तुम फील्ड में काम करोगे।”

सुनील का चेहरा पीला पड़ गया।
“आप होते कौन हैं मुझे हटाने वाले?”
“मैं इस बैंक का मालिक हूं,” चरण दास ने कहा,
“और मैंने इसे इस सिद्धांत पर बनाया था कि यहां गरीब और अमीर में फर्क नहीं होगा। तुमने उस सिद्धांत को तोड़ा है।”

सूट वाला व्यक्ति प्रमोशन का लेटर अमित को और डिमोशन का लेटर सुनील को सौंपता है।
पूरे बैंक में सन्नाटा छा जाता है।

इसके बाद चरण दास सीमा को भी बुलाते हैं।
“कपड़ों से इंसान की औकात मत तौलो, बेटी। वरना तुम्हारे पास खाता तो रह जाएगा, मगर इंसानियत नहीं।”
सीमा हाथ जोड़कर माफी मांगती है, आंखों में आंसू भर आते हैं।

चरण दास जाते-जाते कहते हैं —
“अमित से सीखो। वो खाली हाथ भी आया, लेकिन दिल से अमीर है।”

उस दिन के बाद बैंक में कभी किसी को उसके कपड़ों या हालत से नहीं आंका गया।
शहर में यह कहानी फैल गई —
“मालिक हो तो ऐसा — जो अपने कर्मचारियों को इंसानियत का असली मतलब सिखा दे।”