“डॉक्टर ने गरीब मरीज का फ्री में इलाज किया, फिर 5 साल बाद मरीज ने पूरा हॉस्पिटल ही बदल दिया/kahani
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वाराणसी का सर सुदर्शन गवर्नमेंट हॉस्पिटल— नाम जितना बड़ा, हालात उतने ही जर्जर।
फटी दीवारें, जंग लगे पंखे, दवाइयों की कमी… लेकिन मरीजों की भीड़ ऐसी कि फर्श पर जगह नहीं।
इस भीड़ में एक चेहरा था जो थका नहीं था— डॉक्टर आरव मेहता, 35 साल का नौजवान डॉक्टर।
दिल्ली AIIMS से पढ़ाई पूरी करके वो वापस अपने शहर क्यों लौट आया?
क्योंकि सालों पहले उसके पिता ने दम तोड़ दिया था— सिर्फ इसलिए कि समय पर इलाज और पैसे नहीं थे।
उस रात आरव ने कसम खाई थी—
“मैं वो डॉक्टर बनूंगा जो मरीज की जेब नहीं, उसकी तकलीफ़ देखेगा।”
वो गर्म दोपहर
अस्पताल का इमरजेंसी वार्ड खचाखच भरा था।
तभी बाहर सीढ़ियों पर एक आदमी गिर पड़ा—
करीब 50 साल का, मैला-कुचैला कपड़ा, पसीने से भीगा शरीर, दर्द से कराहता—
“कोई है…?”
नाम— भोलाराम।
ठेले पर सब्जी बेचकर गुज़ारा करता था।
चार दिन से पेट में तेज दर्द था, लेकिन पैसे नहीं थे डॉक्टर के पास जाने के।
आरव ने देखा, लोग किनारे खड़े थे, पर कोई हाथ बढ़ाने को तैयार नहीं।
वो दौड़े, उसे स्ट्रेचर पर डाला और इमरजेंसी में ले गए।
जांच हुई— आंतों में ज़हरीला संक्रमण।
ऑपरेशन तुरंत करना था, खर्च करीब ₹18,000।
स्टाफ ने फुसफुसाकर कहा—
“साहब, ये बिल नहीं भर पाएगा…”
आरव ने सीधा जवाब दिया—
“मौत का इंतज़ार करेंगे या ऑपरेशन करेंगे?”
ऑपरेशन उसी दिन हुआ— सफल रहा।
खिचड़ी की पोटली
अगले दिन चेकअप के दौरान आरव ने देखा—
भोलाराम अपनी थाली से खिचड़ी बचाकर कपड़े की पोटली में बांध रहा था।
आरव ने पूछा—
“ये किसके लिए?”
आंखें भर आईं—
“बीवी बाहर बैठी है… भूखी है।”
आरव ने चुपचाप नर्स से कहा—
“आज से इसका खाना दोगुना करना।”
यही था आरव का असली चेहरा—
पैसा नहीं, सेवा।
उनके कमरे की दीवार पर लिखा था—
“जो बीमार है, वो हमारा है।”
लेकिन इस सोच की कीमत भी थी।
सीनियर डॉक्टर और सीएमओ उन्हें “हद से ज़्यादा भावुक” कहते।
“ये कोई NGO नहीं है, डॉक्टर आरव।”
आरव बस मुस्कुरा कर जवाब देते—
“ये सरकारी अस्पताल है सर… और सरकार जनता की होती है।”
कर्ज़ का हिसाब
तीन हफ्ते बाद भोलाराम डिस्चार्ज होने वाला था।
बिल: ₹21,300।
जेब में ₹50 भी नहीं।
आरव ने बिल फाड़ दिया—
“ये केस मानव सेवा के तहत मेरा जिम्मा है।”
भोलाराम झुककर उनके पैर छूने लगा।
आरव बोले—
“जब किसी जरूरतमंद को खाना दोगे, तब मेरा कर्ज़ चुकाना।”
भोलाराम चला गया— खाली हाथ, पर दिल में एक बोझ और वादा लिए।
पांच साल बाद…
साल 2024 की एक ठंडी सुबह।
अस्पताल के बाहर एक ब्लैक BMW रुकी।
सूट-बूट में एक आदमी उतरा, नज़रें ज़मीन पर।
“मुझे डॉक्टर आरव से मिलना है।”
आरव के कमरे में दाखिल होते ही, वो मुस्कुराए—
“तुम भोलाराम हो…?”
“हाँ, डॉक्टर साहब… वही, जिसका कर्ज़ आपने शब्दों में बांटा था।”
पांच साल में किस्मत ने करवट ली थी।
भोलाराम अब शहर का नामी बिल्डर था— मेहनत और एक नेक एनजीओ से जुड़कर ऊपर उठा।
लेकिन दिल में एक अधूरा काम था— आभार चुकाना।
आभार का तोहफ़ा
भोलाराम ने उसी वक्त घोषणा की—
₹5 करोड़ का दान— बिना किसी शर्त के।
बस एक मांग—
“इलाज पहले, कागज बाद में… और नई विंग का नाम होगा ‘आभार विंग’— डॉक्टर आरव के नाम पर।”
सीएमओ, जो कभी कहते थे “ये NGO नहीं है”, अब मंच पर भोलाराम के हाथ जोड़ रहे थे।
पुराने भवन के बगल में नई इमारत बनी—
कांच की दीवारें, खुला रिसेप्शन, अलग महिला, बच्चा और वरिष्ठ नागरिक वार्ड,
100 बेड, 24 घंटे सेवा, मुफ्त दवाइयां।
हर बेड पर एक बोर्ड:
“आपकी सेवा हमारा सौभाग्य है — टीम आरव।”
इंसानियत की चिंगारी
नई ओपीडी खुलते ही हजारों मरीज आने लगे।
स्टाफ जो पहले झिझकता था, अब मुस्कुराने लगा।
राज्य के स्वास्थ्य मंत्री आए, समारोह हुआ, और डॉक्टर आरव ने नई शपथ दिलवाई—
“रोगी मेरे लिए मरीज नहीं, परिवार का हिस्सा होगा।
मैं किसी की जेब नहीं, उसकी पीड़ा देखूंगा।”
तालियों की गूंज पूरे अस्पताल में फैल गई।
रिश्ते का कर्ज़
एक दिन एक महिला आई— साधारण कपड़े, लेकिन आंखों में आत्मविश्वास।
“आप डॉक्टर आरव हैं? मैं भोलाराम की बहू हूं। उन्होंने मुझे MBA पढ़ाया।
मैं मुफ्त में इस अस्पताल का HR सिस्टम सुधारना चाहती हूं।”
आरव चौंके—
“कर्ज़ नहीं है?”
वो बोली—
“रिश्ता है… जिसने मेरे ससुर को जीवन दिया, उसके लिए मैं जिंदगी भर कुछ भी कर सकती हूं।”
आंदोलन बन चुकी सेवा
‘आभार विंग’ की खबर देशभर में फैली—
“हॉस्पिटल नहीं, आंदोलन है सेवा का।”
पत्रकारों ने पूछा—
“आपकी सबसे बड़ी प्रेरणा कौन?”
आरव बोले—
“एक भूखा आदमी, जो अपनी खिचड़ी बचाकर अपनी बीवी के लिए रखता था।”
अंतिम दृश्य
2024 का आखिरी दिन।
भव्य सभा— मंच पर आरव, भोलाराम, पूरी टीम और हजारों लोग।
भोलाराम बोले—
“मैं वो आदमी हूं जो कभी चप्पल भी नहीं पहनता था।
पैसा मैंने कमाया, पर आत्मा… डॉक्टर आरव ने बचाई।”
पूरा हॉल खड़ा हो गया— तालियां गूंज उठीं।
सर सुदर्शन अस्पताल अब सिर्फ इलाज की जगह नहीं था—
ये इंसानियत का मंदिर था।
जहां कोई गरीब नहीं था… बस इंसान था।
क्योंकि असली इलाज दवाओं से नहीं, दिल से होता है।
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