बुज़ुर्ग को सबने नजरअंदाज़ किया.. जब असलियत सामने आई तो सब हैरान रह गए😢

सुबह के 9 बजे शहर की हलचल शुरू हो चुकी थी। बसें, ऑटो, गाड़ियाँ—सबकी आवाज़ें मिलकर शोर का जाल बुन रही थीं। लेकिन इस भीड़भाड़ के बीच एक इमारत ऐसी थी जहां हर दिन सैकड़ों उम्मीदें लेकर लोग आते थे—शहर का सबसे बड़ा और नामी बैंक।

बैंक का दरवाज़ा खुला और ठंडी एसी की हवा ने बाहर की उमस चीर दी। अंदर की दीवारों पर लिखे स्लोगन चमक रहे थे—
“आपका समय अनमोल है। हर ग्राहक हमारे लिए सम्माननीय है।”
लेकिन वे शब्द सिर्फ़ दीवारों तक सीमित थे।

भीतर कर्मचारी अपनी-अपनी दुनिया में खोए हुए थे। कोई मोबाइल पर बात कर रहा था, कोई हंसते हुए गपशप कर रहा था। काउंटर पर बैठे स्टाफ के चेहरे पर थकान से ज़्यादा उदासीनता थी।

इसी भीड़ में धीरे-धीरे कदम घसीटते हुए एक बुज़ुर्ग अंदर दाख़िल हुए। उनके हाथ में एक पुराना कपड़े का झोला था। कपड़े धुले तो थे, पर सलवटें बता रही थीं कि उनके पास प्रेस कराने का वक्त या साधन नहीं था। पैरों में घिसी चप्पलें, माथे पर पसीने की बूंदें। उम्र की थकान उनकी चाल में साफ झलक रही थी।

वो आकर चुपचाप एक कोने में कुर्सी पर बैठ गए। बार-बार झोले से फाइल निकालते, खोलते और फिर धीरे से बंद कर देते। उनकी आंखों में उम्मीद थी कि कोई पूछेगा—“अंकल, आपको मदद चाहिए?” पर कोई नहीं आया।

जो ग्राहक बाद में आए, उन्हें जल्दी सेवा मिल रही थी। वीआईपी काउंटर पर तो खास मेहमानों को हंसी-मजाक के साथ चाय-पानी तक दिया जा रहा था। उस कोने में बैठा बुज़ुर्ग बस देखता रहा।

दोपहर के एक बजे उन्होंने हिम्मत जुटाई और काउंटर नंबर तीन पर पहुंचे। कांपती आवाज़ में बोले—
“बेटा, मेरा एक खाता है। फॉर्म भरना है और थोड़ी मदद चाहिए।”

महिला कर्मचारी ने बिना सिर उठाए कहा—
“लाइन में जाइए अंकल। सबका नंबर आएगा।”

“बेटा, सुबह से बैठा हूं। आंखें भी अब ठीक से नहीं पढ़ पातीं। बस कोई थोड़ा सा सहारा दे दे।”

कर्मचारी का लहजा और रूखा हो गया—
“देखिए अंकल, यहां सबका टाइम वैल्यूएबल है। वीआईपी लोग भी आते हैं। ऐसे नहीं होता।”

पीछे बैठे एक और कर्मचारी ने हंसते हुए कहा—
“लगता है रिटायरमेंट के बाद टाइम पास करने बैंक आ जाते हैं कुछ लोग।”

दो-तीन ग्राहक भी मुस्कुरा दिए। बुज़ुर्ग चुपचाप लौटकर फिर उसी कुर्सी पर बैठ गए। उनकी आंखें बंद थीं, पर चेहरा भीतर की चोट बयान कर रहा था।

समय बीतता गया। लंच का वक़्त हुआ। कर्मचारी मोबाइल पर इंस्टाग्राम स्क्रॉल कर रहे थे। किसी ने कहा, “भाई खाना शेयर करोगे?” और कोई हंसते हुए गाने गुनगुना रहा था।

पर बुज़ुर्ग वहीं बैठे रहे—स्थिर, शांत।

आख़िरकार उन्होंने मैनेजर के केबिन का रुख किया। धीरे से दरवाज़ा खटखटाया।

“बोलिए अंकल?” मैनेजर शशांक त्रिपाठी ने कहा, थोड़े अधीर लहजे में।

“बेटा, सुबह से बैठा हूं। खाता अपडेट कराना है। आंखें ठीक से नहीं देख पातीं, बस कोई मदद कर दे।”

“अंकल, अभी लंच टाइम है। तीन बजे आइए।”

बुज़ुर्ग ने लंबी सांस ली और लौट गए।

तीन बजे फिर गए। मैनेजर ने चिढ़कर कहा—
“अरे अंकल, बहुत काम है। असिस्टेंट से मिल लीजिए।”

इस बार बुज़ुर्ग कुछ पल चुप रहे। फिर धीमे स्वर में बोले—
“बेटा, अगर बैंक का सबसे बड़ा शेयर धारक लाइन में लगेगा तो बाकी लोगों का क्या होगा?”

कमरे में सन्नाटा छा गया।

मैनेजर चौंक पड़ा—
“आपका मतलब?”

बुज़ुर्ग ने झोले से एक पुरानी डायरी निकाली। उसमें चिपकी तस्वीर दिखाई। एक नौजवान सफेद कुर्ते-पायजामे में बैंक की पहली शाखा के बोर्ड के सामने खड़ा था। नीचे लिखा था—
“श्री राम रतन त्रिपाठी – संस्थापक सदस्य, 1987।”

मैनेजर हक्का-बक्का रह गया। कंप्यूटर खोला। सिस्टम में नाम टाइप किया—
राम रतन त्रिपाठी।
फाइल खुली। उसमें साफ लिखा था—
“संस्थापक निवेशक, आजीवन संरक्षक सदस्य।”

अब पूरा बैंक स्तब्ध था।

मैनेजर दौड़कर बाहर आया, बुज़ुर्ग के पैरों को छूने ही वाला था कि त्रिपाठी जी ने रोक दिया।
“पहचानने की ज़रूरत नहीं बेटा। सम्मान किसी पोशाक या ओहदे से नहीं, इंसान की गरिमा से मिलना चाहिए।”

उस पल सबकी आंखें झुक गईं।

तुरंत पूरे स्टाफ को मीटिंग हॉल में बुलाया गया। वहां मैनेजर ने घोषणा की—
“आज जिस बुज़ुर्ग को हम सबने अनदेखा किया, वे हमारे संस्थापक निवेशकों में से एक हैं। हम सबने गलती की है।”

कर्मचारियों के चेहरे शर्म से झुक गए। जिस महिला ने उन्हें झिड़का था, उसकी आंखों में पछतावा साफ दिख रहा था।

बुज़ुर्ग खड़े हुए और बोले—
“मैंने कुछ मांगा नहीं था। बस इतना चाहता था कि कोई मुस्कुराकर कह दे—‘आइए अंकल, मैं आपकी मदद कर देता हूं।’ पर लगता है सम्मान भी अब किसी कोने में चुप बैठा इंतजार करता है… जैसे मैं कर रहा था।”

उनकी आवाज़ कांप रही थी, पर उसमें गुस्सा नहीं था। सिर्फ पीड़ा थी।

उस दिन के बाद बैंक में सब बदल गया। बुज़ुर्ग के सम्मान में उनकी तस्वीर लॉबी में लगाई गई। नया स्लोगन लिखा गया—
“धन से बड़ा है सम्मान, और सम्मान से बड़ा कोई नहीं।”

कर्मचारियों को संवेदनशीलता प्रशिक्षण दिया गया। बुज़ुर्गों और दिव्यांगों के लिए अलग काउंटर बनाया गया।

एक महीने बाद बैंक ने समारोह किया। मंच पर जब राम रतन त्रिपाठी जी को बुलाया गया तो उनकी आंखें नम थीं।

उन्होंने कहा—
“जब यह बैंक शुरू किया था, तब ना कंप्यूटर थे, ना मोबाइल ऐप। बस एक चीज थी—ग्राहक के चेहरे पर मुस्कान लाने की लगन। आज अगर आप फिर वही मुस्कान लौटा सकें, तो समझिए सपना अधूरा नहीं रहा।”

पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा।