भूखे बच्चे ने सिर्फ एक रोटी मांगी थी, लेकिन करोड़पति ने जो दिया | पूरी इंसानियत हिल गई | फिर जो हुआ

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सुबह का वक्त था। उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर की तंग गलियों में हल्की धूप फैल रही थी। चाय और ब्रेड–पकौड़े की एक पुरानी सी दुकान के बाहर, मिट्टी में सना एक आठ साल का बच्चा चुपचाप बैठा था। कपड़े धूल से भरे, पांव में टूटी चप्पलें और आंखों में वो खामोशी, जिसे कोई आसानी से पढ़ नहीं सकता।

दुकानदार कहीं बाहर गया हुआ था। तभी अचानक एक सफेद कार वहां आकर रुकी। उससे उतरा लगभग 26 साल का नौजवान — सलीकेदार कपड़े, पर चेहरे पर अकड़ नहीं, बल्कि एक अपनापन। नाम था विवेक वर्मा। लोग उसे शहर का सफल बिज़नेसमैन मानते थे, लेकिन आज उसकी नज़र इस छोटे से बच्चे पर टिक गई।

विवेक दुकान के पास आया और बोला –
“भाई साहब हैं क्या?”

बच्चे ने हिचकिचाते हुए कहा –
“अंकल, वो सामान लेने गए हैं। आप चाहें तो इंतज़ार कर लीजिए।”

विवेक मुस्कुराया –
“मुझे तो बहुत भूख लगी है। क्या ब्रेड पकौड़े मिल सकते हैं?”

बच्चा चौंका। कुछ पल चुप रहा, फिर धीमे स्वर में बोला –
“साहब… आप मत खाइए। ये ब्रेड पकौड़े आपके लिए नहीं हैं।”

विवेक हैरान रह गया –
“क्यों बेटा? इनमें कोई खराबी है क्या?”

बच्चे ने आंखें उठाईं। उनमें नमी थी।
“खराब नहीं हैं साहब… पर अगर आपने खा लिए, तो आज मैं और मेरी छोटी बहन शायद भूखे सोएंगे।”

ये सुनकर विवेक का दिल जैसे सुन्न हो गया।


भूख की कहानी

विवेक ने बच्चे को पास बैठाया। धीरे-धीरे बच्चे ने अपनी जिंदगी का दर्द खोल दिया –

“पापा अब काम नहीं करते। मम्मी को कैंसर था, एक साल पहले चली गईं। उसके बाद पापा शराब में डूब गए। कई दिन घर ही नहीं आते। हम दोनों भाई-बहन रोज शाम को यहीं दुकान से बचे हुए पकौड़े खाते हैं। स्कूल भी छूट गया… पर बहन छोटी है न, उसे भूख बहुत लगती है।”

बच्चे की आंखों से आंसू बह निकले। विवेक भी रो पड़ा। उसने बच्चे के सिर पर हाथ रखा और कहा –
“सबसे पहले तो ये पकौड़े तुम और तुम्हारी बहन खाओगे। दुकानदार आएगा तो मैं पैसे दे दूंगा।”

इसी बीच, वो छोटी बच्ची भी वहां आ गई। दुबली-पतली, टूटी चप्पलें और गले में एक पुरानी माला। नाम था प्रियंका। विवेक ने उसे पकौड़ा दिया, जैसे कोई खजाना दे रहा हो।

तभी दुकान का मालिक, रामदयाल भी लौट आया। सब सुनकर उसकी आंखें भी भर आईं। उसने कहा –
“साहब, जब तक मेरे पास पकौड़े हैं, ये बच्चे भूखे नहीं रहेंगे। लेकिन मदद आपकी जैसी कोई नहीं कर सकता।”

विवेक ने तुरंत ₹1000 दिए और कहा –
“ये सिर्फ इन बच्चों के लिए नहीं, उन सबके लिए हैं जो भूखे पेट सो जाते हैं।”

पास खड़े लोग भी सन्न रह गए।


झोपड़ी का सच

लेकिन विवेक का दिल अब बेचैन था। उसने रामदयाल से कहा –
“क्या आप मुझे इनके घर ले चल सकते हैं?”

वो सब गली के उस कोने तक पहुंचे जहां बच्चे रहते थे। वहां टूटी झोपड़ी, मिट्टी का चूल्हा, दो खाली प्लेटें और कोने में रखी पुरानी किताबें। विवेक के कदम जैसे जम गए।

तभी बगल की झोपड़ी से एक वृद्धा निकली – झुकी कमर, सफेद बाल और आंखों में ममता। उसने कहा –
“बाबूजी, इनकी मां मेरी बहन जैसी थी। जब तक जिंदा थी सब ठीक था। पर अब ये बच्चे जैसे अनाथ हो गए हैं। इनके बाप को शराब ने निगल लिया है।”

विवेक ने उनके हाथ पकड़कर कहा –
“अम्मा, क्या आप इन बच्चों को संभाल लेंगी? मैं हर मदद करूंगा। बस इतना भरोसा दीजिए कि अब ये बच्चे भूखे नहीं सोएंगे।”

अम्मा की आंखें छलक उठीं –
“बेटा, बच्चों को पालने के लिए रिश्ता नहीं, ममता चाहिए। और वो मेरे पास है।”

विवेक ने तुरंत ₹5000 अम्मा को दिए, बच्चों का स्कूल में दाखिला करवाया, कपड़े, पंखा और सोलर लाइट का इंतज़ाम किया। जाते-जाते बोला –
“अब तुम्हें डरने की ज़रूरत नहीं है। तुम्हारी पढ़ाई, तुम्हारा भविष्य मेरी जिम्मेदारी है।”

प्रियंका ने भाई से धीमे से कहा –
“भैया, फरिश्ते कैसे होते हैं?”

नितिन बोला –
“शायद ऐसे ही होते हैं।”


पिता की वापसी

कुछ दिन बाद… झोपड़ी के बाहर किसी के डगमगाते कदमों की आहट हुई। दरवाज़ा खुला तो सामने वही शख्स था – बच्चों का पिता राजेश

चेहरे पर थकान, आंखों में झिझक और होठों पर कांपती आवाज़ –
“बच्चे कहां हैं?”

जब उसने देखा कि झोपड़ी में रोशनी है, किताबें हैं, और बच्चे मुस्कुरा रहे हैं, तो उसकी आंखें डबडबा गईं। वो जमीन पर बैठ गया –
“मैंने बहुत गलती की… शराब ने सब छीन लिया। पर क्या अब भी सुधार सकता हूं?”

अम्मा ने उसके कंधे पर हाथ रखा –
“जितनी जिंदगी बची है, उतनी बहुत है बेटा। अगर चाहो तो फिर से बाप बन सकते हो।”

राजेश ने उसी पल शराब छोड़ने की कसम खाई। मजदूरी शुरू की। हर शाम बच्चों के लिए कुछ न कुछ लाता – कभी पेन, कभी चॉकलेट। वो अब फिर से बाप बनना सीख रहा था।


मुलाकात और आत्मसम्मान

पंद्रह दिन बाद विवेक दोबारा आया। इस बार उसने देखा – राजेश मिट्टी में सना, पसीने से तर, पर बच्चों के साथ बैठा था। प्रियंका उसके कंधे से लिपटी हुई थी और नितिन होमवर्क कर रहा था।

राजेश खड़ा होकर बोला –
“साहब, आपने याद रखा? अगर उस दिन आपने नितिन की बात नहीं सुनी होती, तो मैं कहीं नशे में पड़ा होता।”

वो विवेक के पैरों में झुकने लगा, लेकिन विवेक ने रोक लिया –
“नहीं राजेश जी, असली बदलाव आपने खुद किया है। मैं तो बस जरिया था।”

उस दिन पहली बार राजेश की मुस्कान में पछतावा नहीं, आत्मसम्मान था।


सालों बाद…

वक्त बीता। प्रियंका अब स्कूल में सबसे तेज छात्रा थी। नितिन इंटर कॉलेज पहुंच चुका था। उसके दिल में एक सपना था –
“मैं बड़ा होकर उन बच्चों के लिए काम करूंगा, जो भूखे रहकर भी कुछ कह नहीं पाते।”

कॉलेज की फेयरवेल पार्टी में जब नितिन मंच पर पहुंचा, पूरा हॉल खामोश हो गया। उसने माइक पकड़ा और कहा –

“मैं वही बच्चा हूं जिसने एक दिन पकौड़े की दुकान पर बैठकर कहा था – साहब, ये आपके लिए नहीं हैं। क्योंकि उस दिन अगर वो बिक जाते, तो मेरी बहन भूखी सो जाती।

लेकिन एक इंसान, एक फरिश्ता, हमारी जिंदगी में आया। उसने हमें सिर्फ खाना नहीं दिया, जीने की वजह दी। अगर वो ना होता तो आज मैं शायद जेबकतरा होता या सड़क पर पड़ा होता।”

नितिन की आंखें भीग गईं। उसने कहा –
“गरीबी सिर्फ पैसों की नहीं होती, हालात की मजबूरी की भी होती है। लेकिन अगर कोई इंसान भूख को देख ले और आगे बढ़ जाए, तो एक पूरी कहानी बदल सकती है।”

पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा। भीड़ में पीछे खड़ा विवेक वर्मा भी अपनी आंखें पोंछ रहा था।


अंत में सवाल

दोस्तों, इंसानियत की सबसे बड़ी पहचान यही है – भूखे को खाना देना, बेसहारे को सहारा देना और टूटे हुए दिल को जीने का हौसला देना।

अब सवाल आपसे है –
अगर आप विवेक की जगह होते, तो क्या करते?