मरा हुआ बेटा 25 साल बाद SP बनकर घर लौटा, मां बाप ने धक्के देकर भगाया फिर जो हुआ #hearttuchingstory

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मध्य प्रदेश के एक छोटे से कस्बे में उमाशंकर शास्त्री नाम के एक सिद्धांतवादी और सम्मानित व्यक्ति रहते थे। उनकी पत्नी सावित्री, भले ही साधारण गृहिणी थीं, मगर अपने बेटे अनिल को लेकर उनकी ज़िंदगी पूरी हो चुकी थी। वह बच्चा उनके विवाह के दस साल बाद हुआ था। मां-बाप के लिए जैसे सारी खुशियाँ उसी छोटे से मासूम चेहरे में सिमट गई थीं।

उमाशंकर ने एक मन्नत माँगी थी—जब भी उन्हें संतान मिलेगी, वे उसे लेकर गंगोत्री धाम और अपने कुलदेवता के मंदिर अवश्य जाएंगे। और जैसे ही अनिल पाँच साल का हुआ, उन्होंने यह प्रण पूरा करने का निश्चय किया।

मौत का सफ़र

चार धाम की यात्रा शुरू हुई। पहाड़ों की घुमावदार सड़कों पर भरी हुई बस, यात्रियों की भीड़, भजन की आवाजें, और श्रद्धा से भरे दिल। लेकिन किसे पता था कि यही यात्रा उनकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी त्रासदी साबित होगी।

उत्तराखंड के खतरनाक मोड़ों पर बस अचानक अनियंत्रित हुई और गहरी खाई में जा गिरी। यात्रियों की चीखें, लोहे की टकराहट, और मलबे के बीच मौत का तांडव।

उमाशंकर और सावित्री चमत्कारिक रूप से बच गए। पर जब होश आया, तो उनका पाँच साल का बेटा कहीं नहीं था। किसी ने कहा बच्चा नदी में बह गया, किसी ने कहा पत्थरों के नीचे दबा। उन्होंने हर कोना खंगाला, हर शव पलटा, हर आवाज सुनी, लेकिन अनिल कहीं नहीं मिला।

उस पल सावित्री का कलेजा चीर गया। वह भगवान को कोसने लगीं—“हम तेरे दर पर आए थे, और तूने हमारा इकलौता बेटा छीन लिया!”

उस हादसे के बाद वे टूट गए। सावित्री ने जीवन भर फिर कभी संतान न चाहने की कसम खा ली। गाँव लौटे तो सबने सवाल किया—“बच्चा कहाँ है?” और हर सवाल उनके दिल को नया ज़ख्म देता।

समय बीतता गया। ज़िंदगी चलती रही। पर वह घाव भर न पाया।

25 साल बाद…

साल 2033।
उमाशंकर बूढ़े हो चुके थे। सावित्री की आँखों में अब भी अधूरी ममता की प्यास थी। तभी एक दिन अचानक उनके दरवाज़े पर एक पुलिस की जीप आकर रुकी। उसमें से उतरा वर्दीधारी, कड़क अंदाज़ वाला एक जवान—ज़िला पुलिस अधीक्षक (SP)

वह सीधे आँगन में आया और folded hands से बोला—
“पिताजी… माताजी… मैं आपका बेटा अनिल हूँ।”

जैसे ही उसके होंठों से यह नाम निकला, दोनों बुज़ुर्गों को ज़मीन खिसकती लगी।

उमाशंकर गुस्से से काँप उठे—
“बदतमीज़! हमारा बेटा 25 साल पहले मर चुका है। तू कौन ठग है, जो हमारी संपत्ति हड़पने आया है?”

उन्होंने उसे धक्के देकर दरवाज़े से बाहर कर दिया।

सावित्री सन्न थीं। उनके मन में कहीं हल्की-सी लहर उठी, पर शंकर का संदेह भारी था।

माँ की नज़र

SP अनिल ज़िद पर अड़ा रहा। वह बार-बार कहता—
“माँ… पिताजी… विश्वास कीजिए, मैं ही आपका अनिल हूँ।”

सावित्री की आँखें उसके चेहरे पर टिक गईं। अचानक उनकी नज़र उसके गले पर गई। वही काले रंग का जन्मचिह्न—जो उनके अनिल के गले पर था।

उनके होंठ काँप उठे—
“शंकर… देखो! यह निशान… यही तो हमारे बेटे का था।”

पर शंकर ने झटकार दिया—
“पागल मत बनो सावित्री! ऐसा चिन्ह किसी और के गले पर भी हो सकता है। ये सब धोखेबाज़ी है।”

मगर माँ की ममता कभी झूठ नहीं बोलती। सावित्री रो पड़ीं और बेटे को गले लगाने दौड़ीं।

अनिल का सच

जब माहौल शांत हुआ, तो SP ने अपनी पूरी कहानी सुनाई।
उसने बताया कि दुर्घटना के वक्त वह बस से नीचे गिरा और एक विशाल पत्थर के नीचे दब गया। उसकी नन्ही-सी देह किसी को नज़र भी नहीं आई। तभी वहाँ एक साधु पहुँचे। उन्होंने उसे बचाया, उसका इलाज किया और बाद में एक अनाथ आश्रम में पहुँचा दिया।

अनिल को यादें धुँधली थीं। वह अनाथालय में बड़ा हुआ, संघर्षों से जूझा, बीमारियों से लड़ता रहा, लेकिन पढ़ाई में अव्वल रहा। अपनी मेहनत से वह IPS बना और आज SP के पद तक पहुँचा।

फिर, हाल ही में ग़ाज़ियाबाद में ड्यूटी के दौरान वही साधु फिर से उससे मिले। उन्होंने उसका अतीत बताया, आँखों पर हाथ रखकर उसे दृश्य दिखाए। और तब जाकर अनिल को अपने माता-पिता का पता चला। उसी साधु के बताए पते पर वह आज अपने गाँव लौटा था।

विश्वास और मिलन

यह सब सुनकर उमाशंकर की आँखों से आँसू बह निकले।
“सावित्री… मैंने कहा था न, भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं।”

दोनों बुज़ुर्ग बेटे के गले लगकर फूट-फूटकर रो पड़े।
गाँवभर में यह खबर फैल गई। हर कोई कह रहा था—
“उमाशंकर और सावित्री सचमुच भाग्यशाली हैं। 25 साल बाद भगवान ने उनका बेटा लौटाया है।”

घर त्यौहार की तरह जगमगा उठा।
सावित्री का सूना आँचल भर गया।
उमाशंकर की पीठ सीधी हो गई।
और अनिल—जिसे ज़िंदगी ने बचपन से हर पल आँज़माया—आज अपने असली घर में था।

अंत में

यह कहानी इत्तेफ़ाक भी हो सकती है, चमत्कार भी।
पर एक बात तय है—माँ की ममता कभी झूठ नहीं होती।
25 साल का इंतज़ार, लाखों आंसू, और अधूरी दुआएँ—आख़िरकार रंग लाईं।