महिला ने अनजान घायल बुजुर्ग की मदद की और नौकरी खो दी… अगले दिन जो कॉल आया
पूरी कहानी: साक्षी की इंसानियत
सुबह की हल्की सी ठंडी हवा थी। मुंबई का मौसम थोड़ा सुस्त, थोड़ा भागता हुआ। सड़कों पर चाय की दुकानों से भाप उठ रही थी और ऑफिस जाने वाली भीड़ तेजी से अपने रास्तों में बह रही थी। साक्षी भी उन्हीं में से एक थी—29 साल की साधारण लेकिन संवेदनशील लड़की, कोमल स्वभाव, मजबूत इरादे। हर दिन की तरह वह मेट्रो से उतरकर पैदल ऑफिस की ओर जा रही थी। हाथ में अपना टिफिन बैग और चेहरे पर हल्की सी थकान।
तभी एक भीड़ भरी गली के कोने में उसकी नजर अचानक एक वृद्ध व्यक्ति पर पड़ी। अधेड़ उम्र, फटे पुराने कपड़े, चप्पल एक पैर से उतरी हुई और सिर से खून बहता हुआ। वो फुटपाथ के किनारे बेहोश पड़ा था। लोग गुजरते रहे। कुछ ने देखा, कुछ ने नहीं देखा और कुछ ने देखकर भी अनदेखा कर दिया।
साक्षी वहीं रुक गई। यह आदमी सांस ले रहा है। उसने झुक कर देखा—हां, नाजुक सांसें थीं लेकिन थीं। उसने पास के पान वाले से पानी मांगा। खुद अपनी बोतल से कुछ बूंदें उसके होठों को छुआईं। “बाबा… बाबा… सुनिए…” कोई जवाब नहीं। भीड़ अब भी निकल रही थी। कुछ लोग बोले, “छोड़ो दीदी, ये ड्रामा करते हैं पैसे के लिए।” साक्षी ने एक बार देखा उनकी ओर, फिर नजरें फेर लीं।
उसने 108 पर कॉल किया। एंबुलेंस बुलाई। जब तक एंबुलेंस आई, वो वहीं बैठी रही। उस बुजुर्ग का सिर अपनी गोदी में रखे, धूप में उसका चेहरा ढकते हुए। 10 मिनट, 15 मिनट, 30 मिनट बीत गए। साक्षी को अंदाजा था आज उसकी ऑफिस मीटिंग छूट जाएगी। एचआर पहले से नाराज था लेकिन वो हिली नहीं।
एंबुलेंस आई। उसने खुद स्ट्रेचर पर चढ़ाने में मदद की। डॉक्टर ने पूछा, “आप रिश्तेदार हैं?” साक्षी ने कहा, “नहीं, लेकिन जब तक इनका कोई नहीं आता, मैं ही हूं।” वो साथ गई अस्पताल। फॉर्म भरे, आईडी अटैच की। डॉक्टरी जांच में साथ रही। डॉक्टर ने कहा, “गंभीर हालत है लेकिन सही समय पर लाया गया। एक-दो घंटे देर हो जाती तो…” साक्षी ने हल्की सांस ली।
अस्पताल की घड़ी पर नजर डाली—11:45। उसने झट से अपना फोन देखा—14 मिस्ड कॉल्स ऑफिस से। साक्षी भागते हुए ऑफिस पहुंची। चेहरे पर धूप, पसीना और चिंता। एचआर ने उसे देखते ही कहा, “साक्षी, तुम जानती हो आज कितनी जरूरी मीटिंग थी। तुम्हारा डेली रिपोर्ट नहीं आया। क्लाइंट का फॉलोअप नहीं हुआ। इनफ इज इनफ।” साक्षी ने अपनी आवाज में विनम्रता से कहा, “सर, रास्ते में एक बुजुर्ग मिले थे, घायल थे। मैंने…” “हमारे पास बहाने सुनने का वक्त नहीं है, मिस सिन्हा। यू आर टर्मिनेटेड विद इमीडिएट इफेक्ट।”
उसका दिल बैठ गया। भीड़ भरे ऑफिस फ्लोर पर सबके सामने उसकी पहचान, उसकी मेहनत, सब कुछ एक झटके में चला गया। वह अपना डेस्क खाली कर रही थी। जब एक जूनियर लड़की धीरे से बोली, “तुमने जो किया, वह बहादुरी थी दीदी।” साक्षी मुस्कुराई, लेकिन आंखों में आंसू थे।
साक्षी का कमरा अंधेरे में डूबा था। कंबल में लिपटी वह अपनी ही सोचों में उलझी थी। कभी ऑफिस की वह शर्मिंदगी याद आती, कभी वह बुजुर्ग चेहरा जिसे उसने होश में भी नहीं देखा। अचानक फोन की घंटी बज उठी। उसने धीरे से उठाया। नंबर अनजाना था। “हेलो?” उसकी आवाज थकी हुई थी।
दूसरी तरफ से आवाज आई, “मैम, मैं सिटी हॉस्पिटल से बोल रहा हूं। जिस पेशेंट को आपने लाकर भर्ती कराया था, वो होश में आ चुके हैं। साक्षी की आंखें भर आईं। “वो आपसे मिलना चाहते हैं। बार-बार आपका नाम ले रहे हैं।” “मेरा नाम?” वो चौंकी। “जी, आपने एडमिशन फॉर्म में साक्षी सिन्हा लिखा था ना, वही नाम बार-बार कह रहे हैं।” साक्षी ने कांपती आवाज में कहा, “मैं… मैं आ रही हूं…”
सिटी हॉस्पिटल, वार्ड नंबर 204। वो धीमे कदमों से कमरे में दाखिल हुई। एक बुजुर्ग सज्जन जिनका चेहरा अब काफी साफ और शांत लग रहा था। हल्के से मुस्कुराए। उनकी आंखों में गहराई थी, जैसे बहुत कुछ कहना चाहते हों। “आप साक्षी हैं?” उन्होंने पूछा। साक्षी ने धीरे से सिर हिलाया।
“बेटा, तुमने मेरी जान बचाई। अगर तुम ना होती, तो शायद अब तक मेरा शरीर मुर्दाघर में होता।” साक्षी कुछ बोल नहीं पाई, बस आंखें भीग गईं। “मैंने सुना, तुम्हें नौकरी से निकाल दिया गया?” उसने मुड़ी नजरों से जवाब दिया, “हां…” वो चुप रहे। फिर हल्की आवाज में बोले, “कभी-कभी भगवान सबसे बड़े इम्तिहान के बाद ही सबसे बड़ा इनाम देता है।”
अगली सुबह साक्षी के दरवाजे पर तेज हॉर्न की आवाज आई। वो चौंकी, झांक कर देखा—एक चमचमाती ब्लैक कार गली के बाहर खड़ी थी। ड्राइवर ने दरवाजा खटखटाया, “मैम, सर ने आपको बुलाया है।” “कौन सर?” साक्षी ने पूछा। ड्राइवर मुस्कुराया, “आप चलिए तो सही, सब जान जाएंगी।” वह उलझन में थी लेकिन दिल ने कहा, चलो।
जब कार रुकी, साक्षी के होश उड़ गए। यह वही बिल्डिंग थी जहां देश की एक प्रतिष्ठित कंपनी नवविक्रम ग्रुप का मुख्य कार्यालय था। वह सोच भी नहीं सकती थी, उसका कोई रिश्ता इस इमारत से हो सकता है। कार रुकते ही दरवाजा खुला और एक शालीन सूट-बूट में सज्जन बाहर आए, “मिस सिन्हा, मैं अमन अग्रवाल हूं। उस बुजुर्ग का बेटा जिसे आपने सड़क पर देखा था।”
साक्षी ने उन्हें नमस्ते किया। वह थोड़ी संकोच में थी। “मेरे पिता ने कहा, जो लड़की इंसानियत के लिए अपनी नौकरी छोड़ सकती है, वह इस कंपनी के लिए अमूल्य होगी।” वो थोड़ी चुप रही। फिर धीरे से पूछा, “आपके पिताजी कौन हैं?” अमन मुस्कुराए, “श्री सत्यवीर अग्रवाल हमारे ग्रुप के चेयरमैन। उन्होंने ही यह कंपनी बनाई थी। पर अब ज्यादा बाहर नहीं जाते।”
साक्षी को यकीन नहीं हो रहा था। और उन्होंने कहा, “आपको सिर्फ नौकरी नहीं, जिंदगी का वह सम्मान देना है जो आप डिज़र्व करती हैं।”
कुछ ही दिनों में साक्षी की जिंदगी पूरी तरह बदल चुकी थी। जहां कभी ऑफिस में उसे दरवाजे के पास खड़ा रखा जाता था, अब लोग उसके लिए दरवाजा खोलते थे। जहां पहले उसकी आवाज अनसुनी की जाती थी, अब लोग उसकी सलाह के बिना कोई फैसला नहीं लेते थे। लेकिन उस चमक में भी वो एक चेहरा नहीं भूल पाई—उस मैनेजर का जिसने उसे नौकरी से निकाला था, और वह केबिन जहां उसकी सारी मेहनत मिट्टी में मिला दी गई थी।
एक दिन कंपनी के मुख्य कार्यालय में एक बड़ी मीटिंग बुलाई गई। सभी सहयोगी कंपनियों के अधिकारी, मैनेजर और सीईओ तक बुलाए गए थे। साक्षी को भी मंच पर बुलाया गया। विषय था—कर्मचारी मूल्य और नैतिकता। मुख्य अतिथि के रूप में श्री सत्यवीर अग्रवाल खुद मौजूद थे—वही बुजुर्ग जिनकी जान साक्षी ने बचाई थी।
लोगों की नजरें एक-एक करके मंच की ओर उठीं। मंच संचालक ने कहा, “आज की विशेष अतिथि जिनकी इंसानियत इस कंपनी के मूल्यों से भी ऊपर निकली, हम सबके सामने हैं—मिस साक्षी सिन्हा।”
पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा। साक्षी ने धीरे से माइक उठाया। उसकी आवाज कांप रही थी, लेकिन आंखें दृढ़ थीं।
“कुछ समय पहले मैंने एक घायल इंसान की मदद की थी। उस दिन मैंने सोचा, मेरी नौकरी गई, मेरा भविष्य गया। पर आज मैं यहां हूं, क्योंकि किसी की जान बचाना कभी नुकसान नहीं होता।”
लोगों की आंखें नम थीं। फिर अचानक मंच के सामने वाली पंक्ति से किसी ने सिर झुका लिया। वो था वही मैनेजर जिसने साक्षी को बिना सुने बाहर निकाल दिया था।
ब्रेक के बाद कॉरिडोर में एक मुलाकात। वह मैनेजर धीरे से साक्षी के पास आया। “साक्षी, मैं शर्मिंदा हूं। उस दिन मैंने तुम्हारी बात सुने बिना फैसला किया।” साक्षी ने शांति से कहा, “आपने उस दिन मेरी इंसानियत को नौकरी से कम समझा। आज वह इंसानियत ही मेरी पहचान बन गई।” वो झुक गया और बोला, “क्या माफी की कोई गुंजाइश है?”
साक्षी ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “इंसान वही है जो माफ कर सके। लेकिन अगली बार किसी की मजबूरी मत तोलो। उसकी नियत देखो।”
शाम को जब साक्षी घर लौटी, उसके दरवाजे पर वह पुरानी पानी की बोतल पड़ी थी, जिससे उसने सत्यवीर जी को पानी पिलाया था। उसके ऊपर एक नोट चिपका था—”जिन्होंने जिंदगी दी, वो जिंदगी भर याद रखे जाते हैं। —सत्यवीर”
साक्षी ने वो बोतल उठा ली और आज पहली बार वो अपने आंसुओं को मुस्कुराने दिया। जब आप बिना किसी उम्मीद के अच्छा करते हैं, तो जिंदगी उसे कई गुना बढ़ाकर लौट आती है। कभी मत रुकिए, क्योंकि आप नहीं जानते आपकी एक मदद किसी की पूरी दुनिया बदल सकती है।
समाप्त।
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