मां अस्पताल में भर्ती थी, बेटा 2 महीने से नहींआया लेकिन जब एक अजनबी बिल चुकाया

“मां का इंतजार और इंसानियत का असली चेहरा”

दोस्तों, कभी आपने देखा है एक मां जो दो महीने से अस्पताल में है, हर रोज दरवाजे की तरफ देखती है बस अपने बेटे की एक झलक के लिए। लेकिन वो बेटा कभी नहीं आता—ना दवा, ना देखभाल, ना प्यार, सिर्फ इंतजार। वो मां हर दिन तैयार होती है, बिंदी लगाती है, मुस्कुराने की कोशिश करती है, क्योंकि उसे भरोसा है कि उसका बेटा आएगा। लेकिन जब अस्पताल वाले कहते हैं कि अब इसे निकालना पड़ेगा, बिल नहीं भरा गया, तब एक अजनबी आता है। ना कोई पहचान, ना कोई रिश्ता। चुपचाप बिल चुका देता है और चला जाता है।

लेकिन जब नर्सें पूछती हैं, “आप कौन हैं?” तो जो जवाब मिलता है, उसे सुनकर पूरे अस्पताल की आंखें भर आती हैं। क्या वो कोई फरिश्ता था, या शायद अतीत का कोई अनदेखा रिश्ता?

दोपहर के करीब 3:00 बजे थे। शहर के सरकारी अस्पताल के जनरल वार्ड में, एक कोने की खिड़की के पास बिस्तर नंबर 17 पर एक बूढ़ी औरत लेटी थी। कमजोर, झुर्रियों से भरा चेहरा, आंखों में इंतजार का समंदर। नाम था शारदा देवी, उम्र लगभग 68 साल। उसके बगल में एक पुराना बैग पड़ा था, जिसमें कुछ पुराने कपड़े, एक टूटा हुआ चश्मा और कुछ पीली पड़ी तस्वीरें थीं। जिन्हें वह रोज अपनी कांपती उंगलियों से एक-एक कर देखती थी।

हर बार जब कोई नर्स कमरे में दाखिल होती, शारदा देवी यही सवाल करती, “बहू, मेरा बेटा आया क्या?” उसकी आवाज में उम्मीद तो थी, पर हौसला अब टूटने लगा था। नर्स रेखा, जो पिछले छह सालों से इसी वार्ड में काम कर रही थी, हर बार हंसते हुए कहती, “नहीं मांझी, लेकिन आज जरूर आएगा। आपने देखना।” और मांझी धीरे से मुस्कुरा देती, जैसे वह जानती थी कि यह सिर्फ तसल्ली भर है। सच यह था कि दो महीने से ज्यादा हो चुके थे और उनके बेटे ने एक बार भी आकर झांका नहीं था। नंबर था, फोन भी किया गया, लेकिन हर बार एक ही जवाब मिलता—”मैं बिजी हूं।”

शारदा देवी ने ना कभी गुस्सा किया, ना शिकायत। बस हर सुबह तैयार होकर बैठ जाती। माथे पर हल्दी की बिंदी लगाती, बाल ठीक करती, और बिस्तर पर तकिया सलीके से लगाती। “मेरा बेटा मुझे ऐसे नहीं छोड़ेगा। बस किसी काम में फंस गया होगा,” वह बुदबुदाती। लेकिन अस्पताल का सिस्टम भावनाओं से नहीं चलता। बिल अब 46,000 पार कर चुका था। डॉक्टरों ने साफ कह दिया था कि अगर अगले दो दिन में पेमेंट नहीं हुआ तो मरीज को डिस्चार्ज करना पड़ेगा—चाहे घर हो या सड़क।

नर्स रेखा को यह बात शारदा देवी से कहनी थी, लेकिन हर बार वह टाल देती। कैसे बताऊं उन्हें कि जिनके लिए वह रोज इंतजार करती है, वही अब उनके लिए इलाज भी नहीं करवा रहा। वार्ड में शारदा देवी के पास ज्यादा लोग नहीं आते थे। कभी-कभी कोई बुजुर्ग मरीज बात कर लेता था, तो कभी वार्ड बॉय चुपचाप उनका खाना रख देता। लेकिन हर शाम जब दरवाजा खुलता और कोई बाहर से अंदर आता, तो शारदा देवी की आंखें दरवाजे की तरफ दौड़ जातीं। शायद आज आ गया हो, और फिर हर बार वही निराशा, वही खामोशी।

एक दिन जब डॉक्टरों की मीटिंग खत्म हुई, नर्स रेखा को बुलाया गया।
“रेखा, केस नंबर 17, शारदा देवी—बिल बहुत ज्यादा हो गया है। कल तक पेमेंट नहीं आया तो डिस्चार्ज करना पड़ेगा। किसी ट्रस्ट से मदद लो या सरकार से, वरना जगह खाली करनी होगी।”

रेखा कुछ नहीं बोली। बस खामोशी से वहां से निकल गई। उस रात जब वह वार्ड में दवाई देने आई, तो शारदा देवी फिर वही सवाल लेकर तैयार थी।
“रेखा बेटी, मेरा बेटा आया?”
रेखा की आंखें भीग गईं। उसने जबरदस्ती मुस्कुरा कर कहा, “मां जी, बस एक-दो दिन में आ जाएगा। आपने भरोसा बनाए रखना।”
शारदा देवी ने मुस्कुराते हुए कहा, “बेटी, मां का दिल कभी गलत नहीं होता। मेरा बेटा आएगा, जरूर आएगा।”

अगले दिन सुबह सब कुछ पहले जैसा था। डॉक्टर अपने राउंड पर थे, मरीज अपने-अपने हाल में। शारदा देवी की हालत और भी कमजोर हो चुकी थी। इसी बीच अस्पताल के अकाउंट सेक्शन में हलचल मच गई। एक अजनबी आदमी, करीब 35 साल का, सादे कपड़ों में, आंखों में गंभीरता, चुपचाप काउंटर पर आया और कहा, “बेड नंबर 17, शारदा देवी—उसका पूरा बिल मैं चुका रहा हूं।”
क्लर्क चौंक गया, “आप रिश्तेदार हैं?”
“नहीं,” उस आदमी ने कहा, “बस आप बिल बनाइए, मैं कैश में पेमेंट कर रहा हूं।”

रेखा को जब यह खबर मिली तो वह दौड़ती हुई अकाउंट सेक्शन पहुंची।
“आप कौन हैं? आपने उनका बिल क्यों भरा?”
उस अजनबी ने बस इतना कहा, “कभी उन्होंने मेरे लिए बहुत कुछ किया था। आज सिर्फ थोड़ा लौट आया है।”

रेखा कुछ देर तक उस अजनबी को एकटक देखती रही। उसके चेहरे पर ना कोई दिखावा था, ना कोई घमंड। बस गहराई थी, जैसे दिल में कुछ अधूरा था जो अब पूरा हुआ हो।
“आपका नाम?” रेखा ने धीरे से पूछा।
वह आदमी मुस्कुराया नहीं, सिर झुका कर बोला, “नाम जरूरी नहीं बहन जी। किसी ने एक जमाने में मेरे लिए नाम से ज्यादा कुछ किया था। आज बस उसका कर्ज चुकाया है।”

रेखा की आंखें भर आईं। “कम से कम मांझी से मिल लीजिए। वह दो महीने से दरवाजे की तरफ देखती रहती है किसी अपने के लिए।”
अजनबी ने एक लंबी सांस ली, कुछ सोचा और फिर धीमे कदमों से रेखा के साथ वार्ड की ओर बढ़ गया।

बिस्तर नंबर 17 पर शारदा देवी चुपचाप लेटी थी। उनकी सांसे अब और भी धीमी हो गई थीं। आंखें खुली थीं लेकिन थक चुकी थीं। इंतजार करते-करते जैसे ही अजनबी अंदर आया, उनकी धुंधली निगाहें उसकी ओर उठीं। एक पल, फिर दूसरा, वो उसे पहचान नहीं पाईं, लेकिन उनकी आंखों में कोई डर नहीं था बल्कि एक अजीब सी शांति थी। रेखा ने धीरे से कहा, “मां जी, यह आपके लिए आया है।”
शारदा देवी ने अजनबी की ओर देखा फिर बहुत धीमी आवाज में पूछा, “तुम कौन हो बेटा?”

अजनबी कुछ पल चुप रहा। फिर पास आकर बिस्तर के कोने पर बैठ गया। उसने जेब से एक पुरानी चिट्ठी निकाली, पीले कागज पर लिखी, कई बार मोड़ी हुई।
“याद है मां जी? यह वही चिट्ठी है जो आपने मुझे दी थी। जब मैं अनाथ था और स्कूल के बाहर भीख मांग रहा था।”

शारदा देवी की आंखें फैल गईं। उनका चेहरा थोड़ा सा ऊपर उठा।
“तुम वो छोटा राजू?”
अजनबी की आंखों से आंसू बहने लगे।
“हां मां, मैं वही राजू हूं। जिस दिन मैंने स्कूल के बाहर रोटी मांगी थी, आप मुझे घर ले गई थीं। कपड़े दिए, खाना खिलाया और फिर अपने बेटे जैसा प्यार दिया।”

शारदा देवी की आंखों से दो मोटे आंसू उनके गालों पर बह निकले।
“तुम कहां थे इतने साल?”
“मां, जब आपके बेटे ने मुझे घर से निकाल दिया था, तब मैं बहुत टूट गया था। लेकिन आपकी दी हुई सीख और किताबों ने मुझे संभाल लिया। मैं पढ़ा, बड़ा हुआ, काम किया और आज जब मुझे पता चला कि आप इस हालत में अस्पताल में हैं, तो मैं रुक नहीं पाया।”

रेखा और आसपास की नर्सें चुपचाप खड़ी थीं, सिर्फ आंसू उनकी आंखों से बह रहे थे। उसी वक्त अस्पताल के बाहर एक कार आकर रुकी। शारदा देवी का बेटा संदीप उतरा। उसे ऑफिस से किसी जान पहचान वाले ने कॉल किया था कि उसकी मां को डिस्चार्ज किया जा रहा है। वह तेजी से वार्ड में आया और जैसे ही अंदर कदम रखा, उसकी नजर उस अजनबी पर पड़ी जो मां का हाथ थामे बैठा था।
“यह कौन है?” उसने चिढ़ते हुए पूछा।

राजू ने सिर उठाया, आंखों में वही दर्द और गुस्सा दोनों।
“तू मुझे याद नहीं करेगा लेकिन तूने मुझे कभी इंसान नहीं समझा था।”
संदीप कुछ नहीं बोला।

रेखा ने आगे बढ़कर कहा, “जिस मां को तुम दो महीने से देखने नहीं आए, उसका पूरा इलाज इस शख्स ने करवाया है।”
संदीप शर्मिंदा सा पीछे हट गया। “मैं बिजी था, काम बहुत था।”

शारदा देवी ने पहली बार कठोरता से कहा, “काम इतना जरूरी था बेटा कि मां को मरने के लिए छोड़ दिया?”
संदीप की आंखें झुक गईं। वह चाहकर भी कुछ नहीं कह पाया। वार्ड में सन्नाटा था। शारदा देवी की आंखों से आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। लेकिन इन आंसुओं में अब सिर्फ गम नहीं था, एक गहरी तसल्ली भी थी। जैसे जिंदगी ने उन्हें देर से ही सही, पर जवाब दे दिया हो।

राजू, जो कभी उनके घर के बाहर भीख मांगने खड़ा होता था, आज उनकी सेवा में सबसे आगे खड़ा था। और संदीप, जिसे वह अपनी पूरी जिंदगी का सहारा समझती थीं, चुपचाप कोने में खड़ा था। चेहरे पर ग्लानि, आंखों में शर्म।

शारदा देवी ने धीरे से राजू का हाथ थामा और पूछा, “बेटा, तू आया कैसे? तुझे कैसे पता चला कि मैं यहां हूं?”
राजू ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया, “मां, उस दिन एक जान पहचान वाले से पता चला कि शारदा देवी नाम की महिला पिछले दो महीने से अस्पताल में भर्ती है। मुझे तुरंत लगा यह आप ही होंगी। मैं सब छोड़कर दौड़ पड़ा। क्योंकि अगर उस दिन आपने मुझे खाना ना दिया होता, तो शायद मैं आज जिंदा ना होता।”

रेखा ने भीगी आंखों से कहा, “राजू भाई, आपने जो किया है वो आजकल अपने खून के रिश्तेदार भी नहीं करते।”
राजू ने कहा, “रिश्ता खून से नहीं, दिल से होता है।”

उसी वक्त डॉक्टर वार्ड में आए। उन्होंने रेखा को इशारे से बुलाया और कहा, “शारदा जी की हालत अब थोड़ी स्थिर है, लेकिन उन्हें लगातार देखभाल की जरूरत है। हॉस्पिटल में और ज्यादा दिन रखना अब मुश्किल है। क्या कोई है जो इन्हें घर ले जा सके?”

संदीप ने धीमे स्वर में कहा, “मैं इन्हें ले जाऊंगा।”
शारदा देवी ने उसकी तरफ देखा और पहली बार आंखों में नाराजगी थी।
“अब क्यों बेटा? जब मैं हर दिन दरवाजे की ओर देखती रही, तब तू कहां था?”
संदीप ने कुछ कहने की कोशिश की, “मैं फंसा था मां, काम… जिम्मेदारियां…”

राजू बीच में ही बोल पड़ा, “आपकी मां ने सब समझ लिया था। वह हर रोज खुद को झूठी तसल्ली देती थी कि आप बहुत बिजी होंगे। लेकिन जब उनकी आंखों में उम्मीद टूटती थी, तब हम सब भी टूट जाते थे।”

रेखा ने कहा, “वह हर दिन तैयार होती थी, सोचती थी कि आप आएंगे। हर शाम जब कोई दरवाजा खोलता, वह मुस्कुराने लगती थी और फिर मायूस हो जाती थी।”

संदीप की आंखें भर आईं। वो चुपचाप मां के पास आया और उनके पैर छूने लगा।
“माफ कर दो मां, बहुत बड़ा गुनाह हो गया मुझसे।”
शारदा देवी ने आंसू पोछते हुए कहा, “माफ तो कर दूं बेटा, लेकिन भरोसा अब नहीं बचा।”

कुछ देर की चुप्पी के बाद राजू ने धीरे से मां की ओर देखा, “मां, अगर आप चाहें तो आप मेरे साथ चल सकती हैं। छोटा सा घर है, लेकिन दिल बहुत बड़ा है।”
शारदा देवी ने धीरे-धीरे सिर हिलाया, “मैं वहां चलूंगी जहां प्यार हो, जहां रोज इंतजार ना करना पड़े।”

अगले दिन अस्पताल से डिस्चार्ज का कागज बन गया। राजू ने व्हीलचेयर धकेली, मां उसके चेहरे की तरफ देखती रही, जैसे जिंदगी फिर से मुस्कुरा रही हो। बाहर निकलते वक्त अस्पताल के स्टाफ ने फूलों की माला पहनाकर उन्हें विदा किया। रेखा ने गले लगाकर कहा, “आपने हमें इंसानियत का असली चेहरा दिखाया, राजू भाई।”

सीख:
रिश्ता खून से नहीं, दिल से होता है।
मां की ममता, इंसानियत की असली पहचान है।
अगर आप भी अपनी मां से प्यार करते हैं, तो आज ही उन्हें गले लगाइए और कहिए—”मां तुझे सलाम।”