रेलवे स्टेशन पर मिला गुमशुदा बच्चा कुली ने 4 दिन में उसके घर पहुँचाया तो उन्होंने जो किया वो देखकर आ

पूरी कहानी: श्यामू कुली – इंसानियत का असली हीरो

प्रस्तावना

क्या इंसानियत का कोई बिल्ला होता है?
क्या किसी की पहचान उसकी लाल वर्दी और सिर पर रखे बोझ से होती है?
या उसके दिल में धड़कती नेकी से?

एक ऐसी दुनिया में, जहां हर कोई अपनी मंजिल की ओर भाग रहा है,
क्या कोई रुककर एक भटकी हुई मासूम सी जिंदगी का हाथ थाम सकता है?

यह कहानी है श्यामू की—एक ऐसे कुली की, जिसके कंधों पर सिर्फ यात्रियों का बोझ नहीं
बल्कि अपने गरीब परिवार की जिम्मेदारियों का पहाड़ था।
उसने एक दिन रेलवे स्टेशन की अंतहीन भीड़ में एक ऐसा खोया हुआ खजाना पाया
जो सोने-चांदी का नहीं, बल्कि एक मासूम बच्चे की डरी हुई आंखों का था।

उसने अपनी कमाई, अपना सुकून, अपनी रातों की नींद सब कुछ दांव पर लगाकर
उस बच्चे को उसकी दुनिया तक पहुंचाने की ठानी।
चार दिनों के अथक संघर्ष के बाद जब वह उस बच्चे को लेकर उसके अमीर मां-बाप के सामने पहुंचा,
तो उन्हें श्यामू को इनाम में कुछ ऐसा देना पड़ा जिसकी कल्पना श्यामू ने कभी सपने में भी नहीं की थी।

यह कहानी है एक साधारण कुली के असाधारण जज्बे की,
जो आपको विश्वास दिलाएगी कि नेकी का कर्ज जब किस्मत चुकाती है तो दुनिया देखती रह जाती है।

हावड़ा स्टेशन – एक अलग ही दुनिया

कोलकाता का हावड़ा स्टेशन—यह सिर्फ एक रेलवे स्टेशन नहीं,
बल्कि एक चलता-फिरता सांस लेता हुआ शहर था।
यहां हर पल हजारों कहानियां जन्म लेती थीं और भीड़ में खो जाती थीं।

ट्रेनों की सीटी, कुलियों की पुकार, फेरीवालों की आवाजें,
और लाखों यात्रियों का शोर—यह सब मिलकर एक ऐसा संगीत रचते थे
जो इस शहर की धड़कन था।

इसी धड़कन का एक छोटा सा, लगभग अनसुना सिर था—श्यामू।
बिल्ला नंबर 671।
40 साल का श्यामू पिछले 15 सालों से इसी स्टेशन पर कुली का काम कर रहा था।

उसकी लाल वर्दी पसीने और मेहनत से अपना असली रंग खो चुकी थी।
उसके चौड़े कंधे यात्रियों का भारी भरकम सामान उठाते-उठाते थोड़े झुक गए थे,
और उसके पैरों की बिवाई स्टेशन के प्लेटफार्मों की हर दरार की कहानी कहती थी।

पर उसके सांवले चेहरे पर एक ऐसी ईमानदारी और आंखों में एक ऐसी नरमी थी
जो इस भीड़ भरे कठोर स्टेशन पर कम ही देखने को मिलती थी।

श्यामू की दुनिया हावड़ा स्टेशन से शुरू होकर पास की एक झुग्गी बस्ती की
एक तंग सी खोली में खत्म हो जाती थी।
उस 10×10 की खोली में उसके साथ उसकी पत्नी राधा और उसकी 8 साल की बेटी मुनिया रहती थी।

राधा लोगों के घरों में चौका-बर्तन करके पति का हाथ बंटाती थी,
पर उसकी अपनी सेहत अक्सर खराब रहती थी।
मुनिया तीसरी कक्षा में पढ़ती थी और पढ़ने में बहुत तेज थी।
श्यामू का सपना था कि उसकी मुनिया पढ़-लिखकर अफसर बने
और उसे इस कुली की जिंदगी से छुटकारा मिल जाए।

वह दिन-रात मेहनत करता, एक ट्रेन से उतरकर दूसरी ट्रेन की ओर भागता,
ताकि मुनिया की स्कूल की फीस और राधा की दवाइयों के पैसे इकट्ठे हो सकें।

कहानी की शुरुआत – स्टेशन पर खोया खजाना

उस दिन भी एक आम सा दिन था।
गर्मी अपने चरम पर थी।
दिल्ली से आई पूर्वा एक्सप्रेस प्लेटफार्म नंबर 9 पर आकर रुकी थी।
प्लेटफार्म पर यात्रियों का सैलाब उमड़ पड़ा था।
श्यामू भी अपनी रोजी-रोटी की तलाश में उसी भीड़ का हिस्सा था।

इसी भीड़ में उसकी नजर एक छह-सात साल के बच्चे पर पड़ी।
उसने महंगे कपड़े पहने थे, पैरों में ब्रांडेड जूते थे,
और उसकी आंखों में ऐसी घबराहट थी जैसे कोई नन्हा पंछी तूफान में अपना घोंसला खो बैठा हो।
वह रो भी नहीं रहा था, बस बड़ी-बड़ी डरी हुई आंखों से हर आते-जाते चेहरे को देख रहा था।
शायद अपनी मां या पिता को ढूंढ़ रहा था।
उसके छोटे से कंधे पर एक नीला बैग टंगा था जिस पर स्पाइडरमैन बना हुआ था।

श्यामू को उसे देखकर अपनी बेटी मुनिया की याद आ गई।
उसका दिल पसीज गया।
वह अपना काम छोड़कर उस बच्चे के पास गया।

बहुत ही नरमी से झुककर पूछा,
“क्या हुआ बेटा? तुम्हारा नाम क्या है? तुम यहां अकेले क्यों बैठे हो?”

बच्चा डरकर पीछे की ओर खिसक गया।
“डरो नहीं बेटा, मैं तुम्हें मारूंगा नहीं। देखो, मैं भी एक पापा हूं।”
श्यामू ने अपनी जेब से मुनिया की एक छोटी सी तस्वीर निकालकर उसे दिखाई।
बच्चे ने तस्वीर को देखा, फिर श्यामू के चेहरे को।
शायद उसे श्यामू की आंखों में थोड़ी सच्चाई नजर आई।

उसने धीरे से कांपती आवाज में कहा, “मम्मा-पापा…”

“कहां हैं तुम्हारे मम्मा-पापा?”

“वो… वो ट्रेन में थे… फिर भीड़ में हाथ छूट गया।”

बच्चे की आंखों में आंसू भरने लगे थे।
श्यामू ने चारों तरफ नजर दौड़ाई।
ट्रेन अब तक खाली हो चुकी थी और ज्यादातर यात्री स्टेशन से बाहर निकल गए थे।

उसने बच्चे का हाथ पकड़ा।
“चलो, हम उन्हें ढूंढते हैं। तुम्हारा नाम क्या है?”

बच्चे ने सिसकते हुए कहा, “रोहन।”

श्यामू रोहन को लेकर प्लेटफार्म पर इधर-उधर घूमता रहा।
दूसरे कुलियों, चाय वालों, बुक स्टॉल वालों से पूछा
कि क्या किसी ने ऐसे बच्चे को अकेले देखा है या किसी को अपने बच्चे को ढूंढते हुए देखा है?

पर किसी को कुछ नहीं पता था।
इस स्टेशन पर हर रोज इतने लोग आते-जाते थे, कौन किसका हिसाब रखता?

घंटा भर बीत गया।
श्यामू को अब चिंता होने लगी थी।
उसने फैसला किया कि वह बच्चे को रेलवे पुलिस (जीआरपी) के पास ले जाएगा।

पुलिस चौकी – सिस्टम का असली चेहरा

वह रोहन को लेकर जीआरपी चौकी पहुंचा।
वहां हवलदार पांडे चाय में बिस्कुट डुबोकर खा रहा था।
श्यामू ने उसे पूरी बात बताई।

हवलदार पांडे ने आलस से सिर उठाया,
“अच्छा, तो एक और खो गया। ठीक है, इसे यहीं बिठा दे।
जब इसके मां-बाप रिपोर्ट लिखाने आएंगे तो ले जाएंगे।”

“पर साहब, यह बहुत डरा हुआ है। इसके मां-बाप शायद इसे ढूंढ रहे होंगे। हमें कुछ करना चाहिए।”

“अरे, हमें मत सिखा कि क्या करना है। यहां रोज 10 बच्चे खोते हैं और मिल जाते हैं।
तू अपना काम कर।”

चौकी के कोने में पहले से ही दो और बच्चे बैठे थे
जो शायद सुबह से अपने मां-बाप का इंतजार कर रहे थे।

चौकी का माहौल और हवलदार का रूखा व्यवहार देखकर श्यामू का दिल बैठ गया।
उसे लगा कि अगर उसने रोहन को यहां छोड़ दिया तो यह बच्चा डर के मारे ही मर जाएगा।

उसने एक फैसला किया—एक ऐसा फैसला जो उसकी इंसानियत ले रही थी, उसका दिमाग नहीं।

“नहीं साहब, मैं इसे यहां नहीं छोड़ सकता। मैं इसे अपने साथ ले जा रहा हूं।
मैं खुद इसके मां-बाप को ढूंढने की कोशिश करूंगा।
कल सुबह मैं फिर आऊंगा, अगर कोई खबर हो तो बताइएगा।”

हवलदार पांडे हंसा,
“अरे बड़ा आया हीरो! खुद के खाने के लाले पड़े हैं और चला है दूसरे का बच्चा पालने।
ले जा, जब मुसीबत गले पड़ेगी तो खुद ही वापस आएगा।”

श्यामू ने हवलदार की बातों पर ध्यान नहीं दिया।
उसने रोहन का हाथ पकड़ा और चौकी से बाहर आ गया।

झुग्गी का प्यार – एक रात की नई उम्मीद

अब शाम ढल रही थी।
श्यामू का आज का पूरा दिन बर्बाद हो चुका था।
उसने एक रुपया भी नहीं कमाया था।
उसकी जेब में बस गिने-चुने कुछ सिक्के थे।
उसे अपनी पत्नी और बेटी की चिंता हुई।
वह घर क्या जवाब देगा?

पर जब उसने रोहन के मासूम डरे चेहरे को देखा,
तो उसकी सारी चिंताएं गायब हो गईं।
उसने फैसला कर लिया—जब तक वह इस बच्चे को उसके मां-बाप से नहीं मिला देता,
तब तक यह उसकी जिम्मेदारी है।
यह उसके बिल्ले नंबर 671 की नहीं, उसकी इंसानियत की जिम्मेदारी है।

उस शाम जब श्यामू रोहन का हाथ पकड़े अपनी झुग्गी की तंग गली में घुसा,
तो मोहल्ले वाले हैरानी से देखने लगे।

“यह किसका बच्चा उठा लाया रे श्यामू?” किसी ने ताना मारा।

श्यामू ने किसी को कोई जवाब नहीं दिया और सीधा अपनी खोली में चला गया।

राधा, जो दिनभर से अपने पति का इंतजार कर रही थी,
दरवाजे पर एक अनजान बच्चे को देखकर चौंक गई।

“यह कौन है?” उसने घबराई आवाज में पूछा।

श्यामू ने उसे अंदर ले जाकर धीरे-धीरे पूरी बात बताई।
राधा का चेहरा चिंता से भर गया।

“यह तुमने क्या किया? हम खुद मुश्किल से गुजारा करते हैं, एक और पेट कहां से पालेंगे?
और अगर कल को पुलिस ने हम पर ही बच्चा चोरी का इल्जाम लगा दिया तो?”

“राधा, यह बच्चा बहुत छोटा है। मैं इसे उस पुलिस चौकी में अकेला नहीं छोड़ सकता था।
तुम इसकी आंखों में देखो, कितना डरा हुआ है।”

तभी मुनिया स्कूल से लौटी।
उसने रोहन को देखा और उत्सुकता से पूछा,
“बाबा, यह कौन है? क्या यह मेरा भाई है?”

श्यामू मुस्कुराया, “हां बेटी, कुछ दिनों के लिए यह तेरा भाई ही है।”

मुनिया खुशी से उछल पड़ी।
वह दौड़कर रोहन के पास गई और अपना खिलौना उसे दे दिया।
रोहन, जो अब तक सहमा हुआ था, मुनिया को देखकर पहली बार हल्का सा मुस्कुराया।

उस एक मुस्कान को देखकर राधा का दिल भी पिघल गया।
उसकी सारी चिंता, सारा डर काफूर हो गया।
उसके अंदर की मां जाग गई थी।

“ठीक है,” उसने गहरी सांस लेकर कहा,
“जब तक इसके मां-बाप नहीं मिल जाते, यह हमारे साथ ही रहेगा। यह भी हमारा ही बच्चा है।”

उस रात राधा ने अपनी बची-खुची सब्जी से रोटियां बनाई।
उसने पहला निवाला रोहन को खिलाया।
रोहन ने कई घंटों बाद कुछ खाया था।
वह भूखा था, पर शायद उससे भी ज्यादा प्यार का भूखा था।

खाना खाने के बाद वह मुनिया के साथ खेलते-खेलते वहीं दरी पर सो गया।
श्यामू और राधा उसे देखते रहे।
उस छोटी सी सीलन भरी खोली में उस रात गरीबी नहीं,
बल्कि इंसानियत की चादर बिछी हुई थी।

संघर्ष – उम्मीद की डोर

अगली सुबह एक नई चुनौती के साथ शुरू हुई।
श्यामू को काम पर जाना था, पर वह रोहन को अकेला नहीं छोड़ सकता था।
उसने फैसला किया कि वह रोहन को अपने साथ स्टेशन ले जाएगा, शायद कोई उसे पहचान ले।

राधा ने रोहन को नहलाया, मुनिया के कुछ साफ कपड़े पहनाए और श्यामू के साथ भेज दिया।

पूरा दिन श्यामू रोहन को अपने साथ लेकर स्टेशन पर घूमता रहा।
एक हाथ से वह यात्रियों का सामान उठाता, दूसरे हाथ से रोहन का हाथ पकड़े रहता।
हर आने-जाने वाली ट्रेन के यात्रियों को गौर से देखता,
हर उस चेहरे को पढ़ता जिसमें अपने खोए हुए बच्चे की तलाश हो।

उसने स्टेशन मास्टर से लेकर हर ईटी तक से बात की,
रोहन की तस्वीर दिखाई, पर कहीं से कोई उम्मीद की किरण नजर नहीं आई।

इस चक्कर में उसका काम भी ठीक से नहीं हो पाया,
दूसरे कुली उससे तेज काम कर रहे थे और वह पिछड़ रहा था।
दिन भर में उसने आम दिनों से आधी भी कमाई नहीं की।

शाम को जब वह थका-हारा घर लौटा, राधा ने पूछा, “कुछ पता चला?”
श्यामू ने ना में सिर हिला दिया।
राधा का चेहरा उतर गया।
उसने अपनी पुरानी तीन की संदूक खोली और उसमें से चांदी की एक पतली सी पायल निकाली,
जो उसकी मां ने उसे दी थी।

“यह रख लो, कल इसे बेचकर कुछ पैसे आ जाएंगे। घर में राशन भी खत्म हो रहा है और बच्चे को भी तो कुछ खिलाना है।”

श्यामू का दिल भर आया, “नहीं राधा, यह तुम्हारी मां की आखिरी निशानी है, मैं इसे नहीं बेच सकता।”

राधा ने उसका हाथ पकड़ लिया,
“निशानी से बढ़कर इस वक्त इस बच्चे की मुस्कान है। हम इसे भूखा नहीं सुला सकते।”

आखिरी उम्मीद – मासूम ड्राइंग और पहचान