SP साहब की सफर की कहानी: मृत पत्नी को ट्रेन में चने बेचते देखकर सब रह गए स्तब्ध!
प्राक्कथन
निराला सिटी ज़िले का वह इलाक़ा—जहाँ रातें सरकती रेलों की धड़कन से मापी जाती हैं और संकरी बस्तियों में अँधेरे का अपना शासन होता है—एक पुलिस अधिकारी की टूटी हुई दुनिया, एक ‘मृत’ कही गई स्त्री की सांसें, ईर्ष्या से सने रक्त-संबंध, और लालच व प्रतिशोध की परतों में कैद सच्चाई को जोड़ देगा। यह कहानी एक ऐसे आदमी की है जिसे लगा वह शोक से आगे निकल चुका है—जब तक एक ट्रेन में किसी ने पुकारा: “चना गरम…”
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अध्याय 1: रात, रेल और एक आवाज़
रात 10 बजे के बाद की ठंडी रफ्तार वाली ट्रेन, जो निराला सिटी की ओर काटती जा रही थी। खिड़कियों से बाहर सिर्फ घुला हुआ काला। एसपी (Superintendent of Police) विवान ने वर्दी उतारकर सीट से सिर टिकाया—चेहरा थकान से धूसर। एक वर्ष पहले की आग, लपटें, भीगी राख, और “अमारा नदी” पर चिता—हर फ़्लैश उसकी पलकों के पीछे दस्तक देता।
पत्नी सानवी—उसकी हंसी जैसे बारीक घंटियों का समूह—अब एक स्मृति का दरारदार कांच।
“क्या सच में समय सब ठीक कर देता है?”—वह प्रश्न उसकी छाती में ठंडा रहता।
तभी डिब्बे की अर्ध-नींदी हवा को चीरती आवाज़ आई—
“चना लो… गरम-गरम चना!”
उसके शरीर में झटका। वह आवाज़—वह लहजा—वह हल्की मुस्कुराती चढ़ान और फिर गिरावट… सानवी।
वह सीधा उठा। गलियारे में आधी पीली रोशनी और एक औरत—कंधे पर बांस की टोकरी। दुपट्टे का गिरना, बड़े आँखे, होठों पर दबी कोमल रेखा—सब कुछ।
“नहीं… यह मन की थकान का छल है,” उसने खुद को समझाया।
पर उसने फुसफुसाया—“सानवी…”
औरत ने एक पल मुड़कर देखा। उस दृष्टि में कोई पहचान नहीं—पर देह का सूक्ष्म तनाव उसके दिमाग में धातु-सा गूंज उठा।
वह उठना चाहता, पैर सिकुड़ गए। ट्रेन ने अचानक झटका लिया। भीड़ उसकी दृष्टि को चीरती आगे बढ़ी, और वह औरत अगले डिब्बे की घुलती भीड़ में लुप्त।
“मत जा…” उसकी आवाज़ हवा में टूट गई।
अध्याय 2: तरुण स्टेशन का ठंडा प्लेटफ़ॉर्म
ट्रेन तरुण स्टेशन पर रुकी। ठंडी हवा ने जैसे उसकी त्वचा पर लोहा रख दिया। वह प्लेटफ़ॉर्म पर कूदा; चारों तरफ़ चाय की भट्टी की लौ, आधे बुझते बल्ब, और खोखले लाउडस्पीकर का क्षीण शोर।
एक चाय वाले ने पूछा—“साहब किसी को ढूंढ रहे?”
“एक औरत—चना बेच रही थी—यहीं उतरी?”
“अभी-अभी बाहर वाली बस्ती—तरुण विहार की ओर।”
वह सीधे स्टेशन मास्टर के कमरे पहुँचा—“सीसीटीवी, अभी।”
स्क्रीन पर—फ्रेम नंबर 19—वह औरत प्लेटफ़ॉर्म छोड़ती। दो सेकंड बाद एक दुबला लंबा आदमी—चेहरा स्कार्फ से ढका—छाया की तरह पीछे। दोनों अंधे मोड़ में विलीन।
“पहचानों?”
“पहली बार देखा,” मास्टर ने कंधे उचकाए।
विवान की नसें कसीं—“यदि यह सानवी नहीं… तो कौन है? और यदि है… तो चिता किसकी थी?”
अध्याय 3: तरुण विहार की तंग साँस
तरुण विहार—ईंटों के धब्बेदार दीवार, ऊपर उलझी तारें, कुत्तों की फुसफुसाहट, और भीतर नमक-सी ठंडी हवा।
वह गली दर गली बढ़ता—टॉर्च की धार कंटीली ज़मीन पर गिरती।
फिर—एक हल्की खुसर-फुसर—एक आधा खुला लकड़ी का दरवाज़ा—अंदर पीली बत्ती के अप्रत्यक्ष रिसाव से गीली परछाई।
उसने कान टिकाया—
“जल्दी करो—वो शक करेगा।” (पुरुष)
“मैंने कहा था ट्रेन में नहीं…” (औरत—वही स्वर तल)
उसने धीरे धक्का दिया। कुंडी चरमराई।
कमरा—लोहे का बक्सा, टूटी चारपाई, टीन की छत, दीवार पर नमी।
औरत—उसी टोकरी संग। पुरुष—लंबा, चेहरा ढका।
“सानवी…” उसके मुँह से involuntary निकला।
उसने पीछे हटना चाहा; दीवार से पीठ टकराई।
“मुझे नहीं जानते आप,” उसने स्वर समतल रखने की कोशिश की—पर सूक्ष्म कंपन ने उसकी वर्षों की प्रोफ़ाइल को काट दिया।
पुरुष ने छौंकते रुख में—“कौन है तू?”
विवान ने परिचय अँधेरे में फेंका—“एसपी विवान—हिलो नहीं।”
औरत के दुपट्टे में से एक छोटा लॉकेट बाहर लटक पड़ा—चाँदी में जड़ा आधा चंद्र—ठंडी लौ—वह वही था जो उसने शादी की पहली वर्षगांठ पर सानवी को पहनाया था।
उसका दिल थम गया—“यह लॉकेट… कैसे?”
उसने उछाल लिया—पुरुष झपटा—धक्का, कराह।
बाहर से कदमों की आहट—नए साए।
और तभी एक तीसरा व्यक्ति दरवाज़े पर—छाया में चेहरा, आवाज़—
“बस, विवान।”
वह आवाज़ पहचान का बाण—कबीर—उसका बड़ा भाई।
अध्याय 4: रक्त का दरार
कबीर—कभी बड़े भाई के रूप में धुंधले बचपन का साथी, अब आंखों में एक निर्वात।
“तू यहाँ?” विवान।
कबीर ने हल्की हंसी में जंग की गंध—“तू गलत दरवाज़ा खोल बैठा।”
औरत ने धीमी याचना—“कबीर, इसे…”
“चुप!”
विवान ने पिस्तौल कसी—“या तो बता यह कौन—या हर परत मैं खुद उधेड़ूँगा।”
कबीर का स्वर मखौल—“भावुक मत बन। कभी-कभी राख भी किसी और का देहकाना होता है।”
बाहर गोलियों की ध्वनि—तीन आकृतियाँ गलियारे में भागतीं।
अराजकता ने क्षण को हरा दिया। विवान ने औरत का हाथ पकड़ा—“चलो!”
वे तंग अँधेरी कटान में घुसे—पीछे सीटी, कदम, धातु की बेसुरी प्रतिध्वनि।
अध्याय 5: टूटी झोपड़ी और दबी पहचान
एक जर्जर झोपड़ी—तिरछी टाट, अंदर कालिख, मिट्टी की दीवार।
“सच बता,” उसने फुसफुसाया—“तू सानवी है।”
वह काँपी—“मैं… बस चना बेचने वाली…”
उसका ध्यान फिर लॉकेट पर—“यह वस्तु कोई ‘कचरा’ में नहीं मिलती। कहाँ पाया?”
वह चुप।
बाहर इंजन की धीमी टूटती आवाज़—एक गाड़ी रुकती।
“पीछे का रास्ता!”—उसने दीवार के दराड़े में टॉर्च घुमाई—एक संकरा निकास रेल ट्रैक की ओर खुलता।
वे अंधेरे की धार में दौड़े—उसने महसूस किया उसका हाथ अपनी हथेली में कसता—जैसे वह सुरक्षा का कोना खोज रही।
थोड़ी दूरी पर—ट्रैक के पास—एक पुकार—“विवान!”
कबीर—अब उसके पास एक छोटा बच्चा—4–5 वर्ष का—आंखें… वही गहराई, जिसका प्रतिबिंब उसने कभी शीशे में देखा।
बच्चा—“मम्मा…”—औरत के पीछे सिमटा।
विवान के सीने ने खाली हो जाना चाहा—क्या यह उसका पुत्र है?
अध्याय 6: सतह पर उभरती परतें
कबीर—“सच चाहिए? हथियार नीचे,”
विवान ने पिस्तौल थोड़ा झुकाई पर पकड़ न ढीली।
“बोल—सानवी जिंदा है?”
औरत की आंखें नम—होंठ खुले—शब्द पिघलकर गिरे नहीं।
कबीर ने बच्चे के कंधे पर हाथ—“नाम—रेयान। तू पूछ रहा था अपनी विरासत कहाँ?”
“तूने… उसे छिपाया?”
कबीर के जबड़े तने—“तूने सब पाया—बाबा का भरोसा, घर, बैज की इज्जत। मैं रह गया कोने की परछाईं।”
“ईर्ष्या के लिए तूने…?”
कबीर ने ठंडा सच उगला—“मैंने मंच नहीं रचा—मंच रचा जिसने तुझे नीचे लाना चाहा। मैंने बस सहयोग दिया—तुझे दर्द देने का हक मेरा भी था।”
“कौन?”
एक काले स्वर में भविष्य की छाया—“जल्दी पता चल जाएगा।”
अध्याय 7: कैद की असली कहानी (फुसफुसाते स्वीकार)
रेल यार्ड की ओर भागते हुए विवान ने घायल स्त्री (अब वह उसे भीतर से सानवी मान रहा था) को सहारा दिया—
“तूने जीवित रहते हुए एक वर्ष क्यों चुप्पी ओढ़ी?”
उसकी सांस उखड़ी—“‘हादसा’—झूठ था—किडनैप—मैं तीन महीने गर्भवती। मुझे एक बंद कमरे में रखा—तरुण विहार की परछाईंओं में। बच्चा हुआ—रेयान—उन्होंने कहा—अगर मैं संपर्क करूँ—तुम दोनों मरोगे। लॉकेट उन्होंने ‘प्रॉप’ बनाकर चिता में फेंका—किसी अज्ञात औरत का जला शरीर…”
उसने आँखें बंद की—“उस रात आग ने जिसे निगला—वह मैं नहीं—पर मैं मर गई। हर दिन।”
वह सुन्न—“मैंने केस फ़ाइल में सब ‘अंतिम’ मान लिया—क्योंकि पोस्ट-मॉर्टम—?”
“जली पहचान—कपड़े के टुकड़े—और तू भावनात्मक—उन्होंने यही गिना।”
अध्याय 8: यार्ड का अंधेरा और नया खिलाड़ी
पुराने बोगियों का यार्ड—जंग लगी धातु, छेदों से छनती चाँदनी।
वह उन्हें एक बोगी में छिपाता—दरवाज़ा भीतर से अटका।
रेयान—“पापा?”
उस शब्द ने उसकी हड्डियों में एक ताप लौटाया और अपराध बर्फ़-सा भीतरी कोना घेरने लगा—“मैं वहाँ नहीं था…”
बाहर कदम।
कबीर—और साथ एक नकाबपोश।
“बाहर निकल, विवान,” कबीर।
नक़ाबपोश—“इसे खत्म कर।” आवाज़—परिचित धातु-सी रगड़।
विवान—“चेहरा दिखा।”
नक़ाब उतरा—रमेश।
रमेश—पूर्व सहकर्मी—जिसे भ्रष्टाचार शिकायत में निलंबित किया गया था—जिसमें विवान गवाह था।
“तू…”
रमेश—“तूने मेरा करियर चुटकी में दबा दिया। अब मैं तेरी नसों से अर्थ निकालूँगा। घटना—किडनैप—सब मेरी पटकथा। कबीर—ईर्ष्या से लिपटा उपकरण।”
सानवी फुसफुसाई—“इसी ने मुझे कैद रखा…”
अध्याय 9: गोलियाँ, विश्वासघात, बलि
धम—पहली गोली—रमेश ने दागी—विवान झुका—गोली बोगी के लकड़ी पैनल पर चिंगारी।
कबीर ने रेयान को सामने रख विवान की रेखा काटी—“हथियार गिरा—वरना बच्चा।”
विवान ने पिस्तौल हल्का नीचे—नज़रें उनकी मुद्रा पढ़तीं।
सानवी ने कमर सीधी की—कंधा पहले से किसी पहले लगी खरोंच से भीग…
रमेश—“बस एक ट्रिगर—तू खाली—मैं पूर्ण।”
सानवी ने अचानक रमेश पर झपट्टा—गोली तड़पी—उसके कंधे को चीरती हुई सीने के ऊपर से गुजर—वह गिर पड़ी।
“सानवी!”—विवान ने उसे थामा—हाथ रक्तमय।
रमेश के चेहरे पर विकृत संतोष।
कबीर ने रेयान को और कस लिया—पर रमेश ने फुसफुसाया—“अब बच्चे को…”
कबीर की आँखों में भय—“तूने वादा…”
“वादा? उपकरणों को वादा नहीं दिया जाता।”
उस क्षण दरार—कबीर का नैतिक अवशेष फड़का—उसने क्रोध में रमेश की ओर पिस्तौल घुमाई—हिचक—वह क्षण पर्याप्त—
विवान ने अपनी पिस्तौल स्लाइड ऊपर खींची—एक नियंत्रित शॉट—रमेश के कंधे को भेदता—रमेश लड़खड़ाया।
कबीर—ईर्ष्या, असुरक्षा, उपयोग किए जाने की भावना—आवेश—दूसरा शॉट—रमेश छाती पकड़ते हुए गिरा—धातु पर हथियार खनका—शरीर स्थिर।
मौन।
बाहर दूर सायरन—एक faint echo—बैकअप आखिर रेडियो की देरी पार कर रहा था।
अध्याय 10: अंतिम संवाद
सानवी की सांसें उथली—आंखों में काँच-सा थरथर प्रकाश।
“रेयान…”
विवान—“वह सुरक्षित—तुम नहीं जाओगी।”
वह हल्की मुस्कान—“तुम… उसमें… मुझे देखोगे—खुद को दोष मत देना… मुझे उम्मीद थी तुम लौटोगे… मैं आवाज़… नहीं भेज सकी।”
“क्यों नहीं भागीं?”
“हर दो दिन—धमकी—रेयान… मेरे लिए जीवन से बड़ा।”
उसके होंठ रक्त का स्वाद लेते थरथराए—“उसे—ऐसा—अंधेरा—मत—दिखाना…”
उसकी पकड़ ढीली—पलकों पर अनिर्वचनीय शांति—शब्द हवा में धुंधले होते—सांस रुक गई।
विवान की छाती में एक भूकंप ने सब ध्वस्त कर राख उड़ा दी।
रेयान ने धीरे उसका हाथ छुआ—“मम्मा उठो…”
विवान ने उसे आगोश में लिया—“वह… हमारे हर अच्छे कर्म में रहेगी बेटा।”
अध्याय 11: रक्त और प्रतिशोध का reckoning
कबीर घुटनों पर—पिस्तौल दूर—आँखों में विरोधाभास—“मैं… मजबूर…”
विवान की आवाज़ गूंजते स्टील—“मजबूरी नहीं—तूने विकल्प चुना। ईर्ष्या का हर छोटा क्षण—आज की राख बना।”
पुलिस टीम बोगी में धड़धड़ी—हथकड़ी—कबीर के हाथ पीछे—वह धीमे बड़बड़ाता—“मैं बस बराबर होना चाहता था…”
विवान ने उसे पलटकर नहीं देखा—रेयान की हथेली उसकी उंगलियों में।
रमेश का शरीर—सबूत—हथियार—बस, फॉरेंसिक की औपचारिकता बची थी।
अध्याय 12: सत्य का पुनर्निर्माण
आने वाले सप्ताह—
- घटनाक्रम पुनर्निर्माण: ‘हादसा’ स्थल की पुरानी फाइलें रिऑडिट—एक गुमनामी दर्ज महिला का दहन—आग से पहचान विफल; वैवाहिक लॉकेट का ‘दृश्यात्मक’ प्लांट—ह्यूमन एरर + भावनात्मक पुष्टि—“कन्फर्मेशन बायस”।
- रमेश की डिजिटल ट्रेल: स्टोरेज डिवाइस से एन्क्रिप्टेड चैट लॉग (कबीर संग): “लड़की को कंट्रोल = भाई टूटा = leverage जमीन वारिस।”
- कबीर का इकबाल—रिडक्शन के बदले सम्पूर्ण बयान—(कानूनी प्रक्रिया चली—बाद में न्यायालय ने ‘आजीवन कारावास’ सुनाया; रमेश के विरुद्ध अभियोजन मृत्यु से निरर्थक पर उसकी नीयत का न्यायिक उल्लेख)।
अध्याय 13: शोक से प्रतिज्ञा तक
सानवी का अंतिम संस्कार—इस बार सच की लकड़ियाँ। विवान ने रेयान को साथ खड़ा रखा—
“कभी-कभी—किसी को खोना दूसरा अवसर हो सकता था—पर मुझे वही दर्द दोबारा मिला—इस बार अंतिम। इसे मैं दिशा दूँगा।”
रेयान—“मम्मा कहाँ रहती अब?”
“जहाँ रोशनी को ज़रूरत—वह हमें सही रास्ता चुनने में धक्का देगी।”
अध्याय 14: उपचार की यात्रा
विवान ने अवकाश लिया—रेयान के साथ छोटे परामर्श सत्र—बाल मनोवैज्ञानिक।
हर रात—एक डायरी:
दिन 17: “आज रेयान ने ‘मम्मा ने मुझे छुपा कर रखा ताकि मैं अच्छा बनूँ’ कहा—उसने भय को सुरक्षात्मक कथा में ढाला—यह healing का बीज।”
वह अपनी ग्लानि को रूपांतरित करने लगा—ट्रेिन में सुनी आवाज़—एक चेतावनी—“अचानक संकेतों को नज़रअंदाज़ नहीं।”
अध्याय 15: संरचनात्मक सुधार
- ज़िले में ‘लॉस्ट / Presumed Dead Case Audit Unit’—पुराने आग / अज्ञात शव मामलों में द्वितीयक क्रॉस-रीव्यू।
- “परिवार सूचना सत्यापन प्रोटोकॉल”: भावनात्मक पहचान के अतिरिक्त—अनिवार्य DNA (जहाँ संभव) या दंत रिकॉर्ड प्रयास।
- ‘Whistle Vulnerability Watch’: आंतरिक कर्मियों की निजी प्रतिशोधी पहुँच पर निगरानी।
- पीड़ित परिवार liaison officer—क्लोज़र से पहले बहुआयामी पुष्टि।
अध्याय 16: विरासत और उत्तरदायित्व
विवान ने पारिवारिक संपत्ति का एक हिस्सा ‘सानवी ट्रस्ट’ को समर्पित किया—केंद्रित:
अपहरण और घरेलू गैर-कानूनी कैद मामलों में कानूनी सहायता
गुमशुदा गर्भवती महिलाओं के समर्थन हेतु मेडिकल-कानूनी इंटरफ़ेस
बाल मनोआघात पर क्राइसिस काउंसलिंग
रेयान बड़ा होते—स्केच बनाता—एक ट्रेन, एक मुस्कुराती महिला, एक सितारे सा चिन्ह।
“यह क्या?”
“मम्मा आसमान से हमें ट्रेन की खिड़की में हाथ हिलाती है।”
विवान मुस्कुराता—दर्द अब स्थिर नरम पत्थर—कंधे पर बोझ नहीं—मार्गदर्शक।
अध्याय 17: कबीर का अंतिम पत्र (कारागार से)
“विवान,
मैंने खोया क्योंकि तुलना करता रहा। तूने पाया क्योंकि संभालता रहा। सानवी की मृत्यु मेरे भीतर अब दीवार नहीं—आईना है। यदि संभव—रेयान को मत सिखाना कि मैं राक्षस था—बल्कि चेतावनी था—क्या बनना नहीं।
—कबीर”
विवान ने उत्तर नहीं भेजा—पर पत्र ट्रस्ट के आर्काइव में ‘ईर्ष्या मनोविज्ञान केस नोट’ बना।
अध्याय 18: अंत नहीं—स्वर का परिवर्तित होना
वर्षगाँठ की शाम—निराला सिटी की वही रात्रि रेल फुसफुसाहट।
प्लेटफ़ॉर्म पर चने वाला एक लड़का पुकारता—“चना गरम…”
रेयान उछल—“पापा, मम्मा की आवाज़ जैसी है।”
विवान घुटनों पर बैठ—“आवाज़ें जाती नहीं—रूप बदल लेती हैं—हमें याद दिलाने को कि सही पर टिके रहना।”
उसने आकाश देखा—मन में शांति: “मैंने तुमसे किया वादा निभाया—सच को दूसरी बार खामोश नहीं होने दिया।”
उपसंहार
यह कथा “मृत-प्रेमिका मिल गई” की सनसनी नहीं; यह प्रणालीगत तिलांजलि, जांच की कमी, पारिवारिक ईर्ष्या, और सत्ता के दुरुपयोग पर आईनी तीक्ष्णता है—और साथ यह भी कि दुःख को परोपकार में बदला जाए तो वह समाज का संरचनात्मक अनुशासन बन सकता है।
विवान की जीत अदालत की सजा भर नहीं—बल्कि प्रक्रियागत बदलाव, बाल मन की रक्षा और ‘भावनात्मक पहचान’ पर blind trust को चुनौती है।
थीम सार
शोक बनाम सत्य: भावनात्मक क्लोज़र जल्दी—सत्य की खोज धैर्यवान।
ईर्ष्या का मनोविज्ञान: तुलना → क्षरण → अपराध।
रिश्ता और ज़िम्मेदारी: प्रेम का पुनर्जन्म ‘उत्तरदायित्व’ में।
प्रणालीगत सुधार: व्यक्तिगत पीड़ा → सार्वजनिक नीति।
चरित्र परिवर्तन
विवान: निष्क्रिय शोक → सक्रिय संरचना सुधारक
सानवी: पीड़ित कैद → त्याग की चेतना (रेयान की संरक्षक कथा)
कबीर: दबी ईर्ष्या → गिरावट → चेतावनी प्रतीक
रमेश: व्यक्तिगत प्रतिशोध → संस्थागत खतरे का मॉडल
रेयान: आघातग्रस्त बालक → आशा का जीवित सौपान
यदि आप पाठक के रूप में यहां तक पहुंचे हैं—
स्वयं से पूछिए:
- किन निर्णयों को आपने केवल भावनात्मक पुष्टि पर टिकाकर ‘सच मान’ लिया?
- क्या किसी तुलना ने आपके भीतर अप्रिय बीज बोया है? उसे आज ही नाम दीजिए—ताकि वह छाया बन कर न बढ़े।
- किसी गुमशुदा / संदिग्ध घटना में—क्या आप दोबारा पुष्टि को नैतिक कर्तव्य मानेंगे?
एक छोटा कार्य आज:
किसी शोकाकुल को “समय सब ठीक कर देगा” न कहें—पूछें—“किस हिस्से को साथ बैठकर देख लें?”
किसी बच्चे से सुनिए—वह दुःख को कैसे कल्पना में रूपांतरित कर रहा—वह कथा उसका कवच है।
प्रेम हमेशा जीतता नहीं—जब तक वह न्याय और संरचना का रूप न ले।
राख से लौ लौट सकती है—यदि कोई उसे बुझा देने वाले अँधेरे को विधिक और नैतिक रूप से चुनौती देने का साहस करे।
जय हिंद।
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