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“एक पिता की पहचान”
शाम के पांच बज रहे थे। पुराने दो मंजिला मकान की बालकनी में देवनाथ शर्मा अपने कांपते हाथों से चाय का कप थामे बैठे थे। उम्र लगभग 75, सफेद झुर्रियों से भरा चेहरा, लेकिन आंखों में अब भी वह गहराई थी जो एक पिता की होती है। चुपचाप सब सहते हुए भी कुछ कहे बिना।
उनका बेटा रोहित, 35 साल का, बिजनेस में बुरी तरह उलझा हुआ आदमी, दिनभर फाइनेंसर से कॉल्स, उधारी के झंझट। बहू कनिका, पढ़ी-लिखी, लेकिन पिता की जगह झंझट समझने वाली लड़की।
देवनाथ जी अब धीरे चलते थे, कभी-कभी पानी गिरा देते, तो कभी रोटी सेकते हुए चूल्हा बंद करना भूल जाते। लेकिन वह कभी शिकायत नहीं करते, सिर्फ हल्की मुस्कान के साथ कहते, “बुढ़ापा है बेटा, कभी-कभी दिमाग फिसल जाता है।”
एक शाम की बात है। रसोई में एक स्टील का गिलास गिर गया, आवाज थोड़ी तेज हो गई। कनिका किचन में दौड़ी, “पापा जी, कितनी बार कहा है? रसोई में मत आया कीजिए, हर दिन कुछ गिरा देते हैं आप।”
बगल में बैठा रोहित, जो पहले से ही टेंशन में था, चिल्ला उठा, “बस बहुत हो गया पापा, आपसे अब कुछ नहीं होता, हमेशा कुछ ना कुछ गड़बड़ कर देते हैं। यह घर अब आपका नहीं रहा। आप हमारे लिए सिर्फ एक बोझ हैं। निकलिए यहां से।”
पूरा घर एक पल को शांत हो गया। देवनाथ जी ने ना कुछ कहा, ना पलट कर देखा। चाय का कप धीरे से मेज पर रखा, अंदर कमरे में गए, अपना पुराना बैग उठाया और बाहर निकल गए।
ना रोहित ने रोका, ना कनिका ने। दरवाजा बंद हो गया।
कई हफ्ते बीत गए। देवनाथ जी का कोई पता नहीं था।
इधर रोहित के बिजनेस की हालत और बिगड़ गई। एक बहुत बड़ा डील फाइनल करने के लिए उसे ₹25 लाख का बैंक लोन चाहिए था। सारे डॉक्यूमेंट्स जमा हो चुके थे, बस लोन मंजूरी का मैसेज आना बाकी था।
इसी बीच एक दिन मोबाइल पर मैसेज आता है, “लोन रिजेक्टेड ड्यू टू चेंज इन फाइनेंशियल बैंकिंग। प्लीज कांटेक्ट ब्रांच।”
रोहित का चेहरा उड़ गया, पसीने-पसीने हो गया।
“किसने रोका मेरा लोन? सब कुछ तो जमा था।”
वो फौरन बैंक भागा। ब्रांच मैनेजर ने फाइल खोली, फिर बोला, “सर, आपका लोन तो मंजूर हो गया था, लेकिन फिर अचानक विड्रॉल रिक्वेस्ट आ गई। खुद किसी देवनाथ शर्मा ने आकर क्लोज करवा दिया। पूरी राशि 25 लाख जमा करवा दी गई थी और केस बंद कर दिया गया।”
रोहित का दिमाग घूम गया। “क्या कहा आपने?”
मैनेजर ने फाइल उसकी तरफ बढ़ाई। लिखा था –
लोन विड्रॉन वोलंटरी बाय मिस्टर देवनाथ शर्मा, फादर।
रीजन: सन मस्ट नॉट बेक फॉर हेल्प व्हेन अ फादर इज अलाइव.
रोहित के हाथ से फाइल गिर गई, उसकी आंखों से आंसू बहने लगे।
जिसे मैंने बोझ कहा था, उसी ने मुझे कर्ज से उबार लिया।
बैंक की कुर्सी पर बैठे रोहित का चेहरा सफेद पड़ चुका था, आंखों में ग्लानि थी, दिल में बवंडर।
पास ही बैठे ग्राहक उसे देख रहे थे। पर इस वक्त उसे परवाह नहीं थी, क्योंकि उसकी अंतरात्मा अब उसे घूर रही थी।
फाइल की उस आखिरी लाइन ने उसकी जिंदगी हिला दी थी।
उसने मैनेजर से पूछा, “सर, आप पापा को जानते हैं?”
हां, मैनेजर बोला, “वो बहुत सादे कपड़ों में आए थे, हाथ कांप रहे थे, लेकिन बात में गहराई थी। उन्होंने एक बार भी आपकी शिकायत नहीं की। बस बोले, मेरे बेटे को किसी से हाथ नहीं फैलाना पड़े, बस इतना चाहिए।”
रोहित की आंखें अब खुली थीं, लेकिन बहुत देर हो चुकी थी।
उसने फौरन बाइक निकाली और घर लौटा।
घर में घुसते ही बहू ने पूछा, “क्या हुआ? लोन नहीं मिला?”
रोहित ने कुछ नहीं कहा, वो सीधे अपने पापा के कमरे की ओर भागा।
कमरा अब भी वैसा ही था। बिस्तर पर पुराने चश्मे का खाली केस, दीवार पर टंगी उनकी और मां की पुरानी तस्वीर और तकिए के नीचे से झांकती एक पुरानी चिट्ठी।
रोहित ने चिट्ठी खोली।
लिखावट कांपती हुई, लेकिन भाव सीधे दिल में उतरते थे।
“बेटा, मैंने तुझे बोझ नहीं बनाया था। तेरी जिंदगी को आसान बनाने की कोशिश की थी। मेरी मौजूदगी आज नहीं रहेगी, लेकिन मेरा आशीर्वाद तेरे कंधे पर हमेशा रहेगा। मां होती तो तुझे डांटती, पर मैंने तुझे बस माफ किया है।”
रोहित जोर-जोर से रोने लगा। बहू दरवाजे पर आकर खड़ी हो गई। उसका भी चेहरा अब सख्त नहीं था।
रोहित बोला, “मैंने उन्हें बोझ समझा, जबकि उन्होंने मेरी जिंदगी की सबसे भारी जिम्मेदारी उठा ली।”
उस रात रोहित घर में नहीं रुका।
वो अपने पापा को ढूंढने निकल पड़ा।
पड़ोस में, कॉलोनियों में, मंदिरों में पूछता रहा, “कोई बुजुर्ग देखे क्या? सफेद कुर्ता, झुके कंधे, चेहरे पर मुस्कान लिए हुए?”
आखिरकार एक चाय वाले ने बताया,
“हां साहब, एक बाबा है। हर सुबह पास के मंदिर में बैठते हैं। कभी किसी से कुछ मांगते नहीं, बस मुस्कुराते हैं। कहते हैं, ‘मेरा बेटा मुझे भूल गया, पर मैं उसे नहीं भूल पाया।’”
रोहित की सांस रुक गई।
वह दौड़ते हुए मंदिर की ओर बढ़ा।
सुबह की आरती मंदिर में शुरू हो चुकी थी।
शंख और घंटियों की आवाजों के बीच एक कोने में बैठा एक बूढ़ा व्यक्ति – सफेद कुर्ता, कंधे पर जर्जर चादर, झुकी हुई पीठ – देवनाथ शर्मा।
वो प्रसाद नहीं ले रहे थे, बस वहीं बैठकर श्रद्धालुओं को आते-जाते देख रहे थे।
जैसे किसी का इंतजार हो, या शायद जैसे किसी से कोई उम्मीद ना हो, फिर भी दिल से इंकार ना कर पाए।
पास से गुजरते एक बुजुर्ग ने हल्की मुस्कान के साथ पूछा, “बाबा जी, हर दिन यहीं बैठते हो, घर नहीं है क्या?”
देवनाथ जी ने धीरे से कहा, “घर था, बेटा भी है। पर अब सिर्फ उसकी खुशियां मेरा पता हैं।”
उसी पल मंदिर की सीढ़ियां चढ़ता हुआ रोहित दौड़ता हुआ अंदर आया।
धड़कन तेज थी, आंखें नम।
वह हर कोने में नजर दौड़ा रहा था।
फिर नजरें ठहरी – मंदिर के बाई ओर।
पिता वहीं थे।
कुछ पल वह बस देखता रहा।
उसे यकीन नहीं हो रहा था कि जिस इंसान को उसने झुकी कमर समझकर दरवाजे से बाहर किया था, आज वही इंसान उसे कर्ज से और खुद से बचा चुका था।
रोहित धीरे-धीरे आगे बढ़ा।
लोग उसे देखते रहे।
वह सीधा जाकर उनके सामने जमीन पर घुटनों के बल बैठ गया, “पापा…”
उसकी आवाज कांप रही थी।
देवनाथ जी ने सिर घुमाया।
आंखों की रोशनी थोड़ी धुंधली थी, पर बेटे की आवाज पहचानने में एक पल भी नहीं लगा।
“तू आ गया बेटा।”
रोहित ने उनके पैर पकड़ लिए, “पापा, माफ कर दो। मैंने आपको अपमानित किया, आपको बेघर किया, और फिर भी आपने मेरा कर्ज उतार दिया।”
देवनाथ जी ने धीरे से हाथ उठाकर रोहित के सिर पर रखा, “तू मेरा बेटा है रोहित। तू भूल गया, पर मैं नहीं भूला कि तू मेरी सांसों की वजह है।”
भीड़ अब मंदिर के उस कोने में ठहर गई थी।
हर आंख में आंसू थे।
कोई मोबाइल में वीडियो नहीं बना रहा था।
कोई ट्रोल करने नहीं आया था।
यह वो दृश्य था जो सिर्फ महसूस किया जा सकता था।
रोहित ने उनका हाथ पकड़ कर कहा, “पापा, चलिए घर चलते हैं। उस घर में आपकी सबसे ऊंची जगह होगी।”
देवनाथ जी हंसे, वो मासूम सी मुस्कान, “मकान तो बहुत हैं बेटा, पर घर वही होता है जहां अपनापन हो। अब तूने बुलाया है तो घर भी है और अपनापन भी।”
एक पिता को घर से निकाला जा सकता है, लेकिन बेटे के दिल से नहीं।
क्योंकि बाप का प्यार कागज पर ही नहीं होता, वह तो हर उस जगह लिखा होता है, जहां बेटा खुद भी कभी पढ़ नहीं पाता।
जो अपने बेटे के लिए अपनी पहचान खो देता है, वही असली पिता होता है।
सीख:
बुजुर्गों को बोझ मत समझिए। उनका प्यार, उनकी सेवा, उनकी छांव ही असली सुख है।
पिता की पहचान उसकी चुप्पी में, उसकी दुआओं में, और उसकी निस्वार्थ मदद में छुपी होती है।
समय रहते उन्हें समझिए, अपनाइए – क्योंकि घर वही होता है, जहां अपनापन हो।
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