बुजुर्ग ने थाने में रिपोर्ट लिखवानी चाही, दरोगा ने बाहर निकाल दिया.. लेकिन जब IG ने कॉल
पहचान का आईना
दोपहर के करीब 12:00 बजे थे। भीषण गर्मी की तपती दोपहरी में शहर के एक व्यस्त पुलिस थाने में रोज की तरह चहल-पहल थी। कोई अपनी एफआईआर लिखवाने आया था, कोई किसी पुराने केस की पूछताछ के लिए। पुलिस वाले भी अपनी रोजमर्रा की थकाऊ ड्यूटी में उलझे हुए थे। उसी वक्त एक बुजुर्ग व्यक्ति थाने के गेट से अंदर दाखिल होता है। उम्र कोई 72-73 की होगी। सिर के आधे बाल सफेद, शरीर थोड़ा झुका हुआ और हाथ में एक पुराना सा फाइल वाला थैला। कपड़े सादे लेकिन साफ – सफेद कुर्ता और मटमैली पायजामा। चप्पलें घिस चुकी थी और माथे पर पसीने की बूंदें साफ दिख रही थी।
वह सीधे एसएचओ के कमरे की ओर बढ़ता है। बाहर खड़े एक सिपाही उसे रोकता है,
“अबे कहां चला बाबा? एसओ साहब बिजी हैं। बाहर बैठ।”
बुजुर्ग शांति से जवाब देता है,
“बेटा, मुझे थोड़ी देर के लिए उनसे जरूरी बात करनी है। एक शिकायत करनी है।”
सिपाही उसे ऊपर से नीचे तक देखता है और मजाक उड़ाते हुए कहता है,
“क्या शिकायत है बाबा? कोई गाय खो गई क्या? जा बैठ बाहर। लाइन में औरों की भी सुनवाई होनी है।”
बुजुर्ग चुपचाप खड़ा रहता है। तभी एसएचओ विक्रांत ठाकुर – करीब 42 वर्षीय तेज तर्रार लेकिन अहंकारी अफसर – बाहर निकलता है,
“क्या चल रहा है यहां? कौन है यह?”
सिपाही बोलता है,
“सर, कोई बूढ़ा बाबा आया है कुछ शिकायत करने। मैंने रोका तो भी गुस्से जा रहे थे।”
एसएचओ की नजर बुजुर्ग पर पड़ती है। वह अपनी कुर्सी पर बैठते हुए जोर से चिल्लाता है,
“अबे बाबा, यह थाना है। कोई धर्मशाला नहीं। तेरा क्या काम है यहां?”
बुजुर्ग ने कांपते हाथों से अपनी फाइल आगे बढ़ाई और धीमे स्वर में कहा,
“बेटा, यह देखो, यह एक जमीन का मामला है। वर्षों से हल नहीं हुआ। मैंने कई बार अपील की लेकिन सुनवाई नहीं हुई। मुझे उम्मीद थी कि थाने से कुछ मदद मिलेगी।”
एसएचओ ने फाइल को बिना देखे एक तरफ फेंक दिया,
“सुन बे, मेरे पास फालतू के केसों के लिए वक्त नहीं है। जा कहीं और कोशिश कर। यह थाना वीआईपी लोगों के लिए है। भिखारियों और सठियाए बूढ़ों के लिए नहीं।”
बुजुर्ग की आंखों में गम तो था, पर गुस्सा नहीं। वह झुके कंधों के साथ चुपचाप बाहर निकल गया। पूरे थाने के सामने उसका अपमान हुआ, लेकिन उसने कुछ नहीं कहा।
थाने के गेट से निकलते ही उसने अपने थैले से एक पुराना बटन वाला मोबाइल निकाला। उसने एक नंबर डायल किया। सिर्फ 3 सेकंड बात की,
“हां, मैं आ गया हूं। उन्होंने मुझे पहचानने से इंकार कर दिया।”
फोन रखते ही वह पास की दीवार की छांव में बैठ गया। उसके चेहरे पर कोई शिकायत नहीं थी, बस इंतजार।
पांच मिनट भी नहीं बीते थे कि दो सफेद गाड़ियां थाने के सामने आकर रुकीं। एक गाड़ी पर आईजी – इंस्पेक्टर जनरल – का झंडा लगा था। गाड़ी से उतरे दो उच्चाधिकारी, साथ में चार कमांडो। एसएचओ विक्रांत ठाकुर गेट तक दौड़ता हुआ आया,
“सर, आप अचानक…”
आईजी ने गंभीर स्वर में पूछा,
“क्या तुम जानते हो कि आज तुमने किसे थाने से धक्के मारकर निकाला?”
एसएचओ का चेहरा सफेद पड़ गया।
आईजी ने कहा,
“जिसे तुमने भिखारी समझा, वह इस विभाग के सबसे वरिष्ठ रिटायर्ड अधिकारियों में से एक है। श्रीमान नरेंद्र शुक्ला – वह इस राज्य में कई जेलों के एसपी रह चुके हैं, डीजीपी ऑफिस के मुख्य सलाहकार रह चुके हैं, और आज वह एक आम नागरिक की तरह सिर्फ न्याय मांगने आए थे। और तुमने उनका अपमान किया।”
पूरा थाना स्तब्ध खड़ा था। बुजुर्ग अब थाने के अंदर फिर से प्रवेश कर रहे थे, लेकिन इस बार पूरे स्टाफ के सलाम के साथ।
थाने में एक अजीब सी चुप्पी छा गई थी। सभी अधिकारी और सिपाही स्तब्ध खड़े थे। किसी को यकीन नहीं हो रहा था कि जिस बुजुर्ग को अभी कुछ देर पहले सभी ने नजरअंदाज किया, अपमानित किया, वही व्यक्ति अब आईजी साहब के साथ खड़ा था और पूरे पुलिस महकमे में सम्मानित रह चुका था।
एसएचओ विक्रांत ठाकुर के माथे पर पसीना था। उसका शरीर तो वहीं था, लेकिन आत्मविश्वास हवा हो चुका था। उसने कांपते हुए कदमों से नरेंद्र शुक्ला जी की ओर देखा और बोला,
“सर, सॉरी सर, मैं आपको पहचान नहीं पाया। अगर पता होता कि आप…”
नरेंद्र जी ने उसे बीच में ही रोक दिया,
“पता होता तो क्या? तब तुम मुझे झुक कर सलाम करते। लेकिन अगर मैं आम आदमी होता तो क्या तुम्हारा यह व्यवहार सही था?”
एसएचओ चुप था। उसकी आंखें अब जमीन की तरफ थी।
आईजी साहब ने गुस्से में कहा,
“यही है हमारी वर्दी की शर्मनाक हकीकत। जब कोई दिखने में बड़ा नहीं लगता, तो तुम लोग उसे इंसान ही नहीं समझते। यह तुम्हारे जैसे अफसरों की वजह से विभाग की इज्जत गिरती है।”
आईजी ने तुरंत अपनी जेब से फोन निकाला और एक कॉल लगाया,
“डीजीपी ऑफिस से बात कराइए। एसओ विक्रांत ठाकुर के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की अनुशंसा की जा रही है। तत्काल प्रभाव से सस्पेंड किया जाए।”
एसओ के पांव के नीचे जमीन खिसक चुकी थी। बाकी स्टाफ ने अपने सिर झुका लिए। कुछ जवान तो खुद से शर्मिंदा नजर आ रहे थे।
नरेंद्र शुक्ला जी ने तब अपनी फाइल उठाई और उसी मेज पर रखी, जहां कुछ देर पहले उसे फेंक दिया गया था।
“क्या मैं अपनी शिकायत दर्ज करवा सकता हूं?”
इस बार सामने बैठे सब-इंस्पेक्टर ने तुरंत उठकर कुर्सी खाली कर दी और खुद खड़ा हो गया,
“सर, आप कृपया बैठिए। आपकी शिकायत दर्ज करना हमारे लिए सौभाग्य की बात है।”
नरेंद्र जी फाइल खोलते हैं और समझाने लगते हैं कि कैसे पिछले चार वर्षों से एक जमीन विवाद में एक विधवा महिला को परेशान किया जा रहा है। उन्होंने उस महिला के लिए न्याय मांगने आए थे, खुद के लिए नहीं।
आईजी साहब ने यह सुनकर कहा,
“आप अब भी दूसरों के लिए लड़ रहे हैं। सर, आपने हमें एक आईना दिखा दिया।”
थाने में मौजूद कुछ सिपाहियों की आंखों में नमी आ गई। नरेंद्र जी की सरलता, उनकी गरिमा और उनके अपमान को जिस तरह से उन्होंने सहन किया, वह हर किसी के दिल को छू गया।
वह वहां से उठे। थाने में खड़े सभी लोगों को देखकर बोले,
“मैं कोई बड़ा आदमी नहीं हूं। मैं अब सिर्फ एक नागरिक हूं। लेकिन याद रखो इंसान की पहचान उसके कपड़ों या ओहदे से नहीं होती, उसके व्यवहार से होती है।”
वह थाने से बाहर चले गए। पीछे आईजी साहब, कुछ वरिष्ठ अधिकारी और एक गाड़ी उनका इंतजार कर रही थी। लेकिन उन्होंने हाथ हिलाकर कहा,
“मैं पैदल चला जाऊंगा। मुझे आदत है अकेले चलने की।”
थाने के बाहर खड़े आम लोग जो अब तक तमाशा देख रहे थे, अब हाथ जोड़कर उनका अभिनंदन कर रहे थे। वह बुजुर्ग जिनको एक घंटे पहले अपमानित कर बाहर निकाला गया था, अब पूरे शहर के लिए एक मिसाल बन गए थे।
शाम तक यह घटना पूरे थाने से निकलकर पूरे शहर में फैल गई। सोशल मीडिया पर एक वायरल वीडियो चलने लगा जिसमें नरेंद्र शुक्ला जी को थाने से निकाला जा रहा था और फिर कुछ ही देर बाद उसी थाने में उनका जोरदार स्वागत हो रहा था। टीवी चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज़ चल रही थी:
“रिटायर्ड डीजीपी को एसएचओ ने समझा पागल, अपमानित कर थाने से निकाला। फिर जो हुआ उसने सबको चौंका दिया।”
थाने के बाहर मीडिया इकट्ठा हो चुकी थी। पत्रकार कैमरा लेकर पुलिस अफसरों से सवाल पूछ रहे थे। आईजी साहब ने कैमरे के सामने आकर कहा,
“आज का दिन पूरे पुलिस विभाग के लिए शर्म का दिन है। लेकिन साथ ही यह चेतावनी भी है – इंसान को उसकी शक्ल, कपड़े या स्थिति देखकर मत आंकिए। जो दिखता है वह हमेशा सच्चाई नहीं होती।”
एसएचओ विक्रांत ठाकुर को अगले ही दिन सस्पेंड कर दिया गया। उनकी जगह नए एसएचओ का आदेश आया और उन्हें विभागीय जांच के लिए लाइन अटैच कर दिया गया।
उधर नरेंद्र शुक्ला जी जो अब भी अपनी पहचान को बहुत महत्व नहीं देते थे, अपने पुराने घर लौट आए जो शहर के बाहरी इलाके में था। साधारण और सादा। उनके पास गाड़ियों का काफिला नहीं था, ना ही कोई बॉडीगार्ड। वे अब भी हर सुबह पार्क में टहलते, चाय के साथ अखबार पढ़ते और जरूरतमंदों की मदद करते।
लेकिन थाने में जो हुआ उसका सबसे गहरा असर एसएचओ विक्रांत ठाकुर पर हुआ। वो पूरी रात सो नहीं पाया। उसकी आंखों में बार-बार नरेंद्र जी का चेहरा आ रहा था – वो शांति, वो गरिमा और उसकी अपनी गलती। अगली सुबह वह सादा कपड़ों में नरेंद्र जी के घर पहुंचा। हाथ में फूलों का गुलदस्ता और एक छोटी सी माफी की चिट्ठी।
दरवाजा खुद नरेंद्र जी ने खोला।
“अरे आप?”
विक्रांत ने तुरंत झुककर उनके पांव छू लिए और बोला,
“सर, माफी चाहता हूं। मैंने आप जैसे इंसान को समझने में बहुत बड़ी भूल कर दी। उस वर्दी के नीचे इंसान को देखना भूल गया।”
नरेंद्र जी मुस्कुराए,
“माफ कर दिया क्योंकि तुम आज खुद चलकर आए हो। यही सबसे बड़ी बात है। गलत हर कोई करता है, लेकिन उसे स्वीकार करना बहुत कम लोग सीखते हैं।”
विक्रांत की आंखें भर आई।
“आपने मुझे आज सिर्फ एक सीनियर अफसर की तरह नहीं, एक पिता की तरह सिखाया है।”
नरेंद्र जी ने चाय का निमंत्रण दिया और दोनों लोग छत की ओर चले गए, जहां ठंडी हवा चल रही थी और चाय के साथ आत्मा की शांति भी।
उधर थाने में नई ऊर्जा थी। पुलिसकर्मी अब हर आम आदमी से विनम्रता से पेश आते। हर शिकायत को गंभीरता से लिया जाने लगा। आईजी साहब ने एक नया आदेश जारी किया,
“हर थाना अब हफ्ते में एक दिन सम्मान दिवस मनाएगा, जिसमें वरिष्ठ नागरिकों, महिलाओं और आम जनता की शिकायतों को प्राथमिकता दी जाएगी।”
नरेंद्र शुक्ला जी की वजह से पूरा सिस्टम एक सीख से गुजरा और वह सीख थी – इंसानियत।
कुछ हफ्ते बीत चुके थे। शहर में बहुत कुछ बदल चुका था। लेकिन जो सबसे बड़ा बदलाव आया था, वह लोगों की सोच में था। अब हर सरकारी दफ्तर, हर पुलिस स्टेशन में लोग सतर्क हो गए थे – कहीं फिर कोई बुजुर्ग गलतफहमी का शिकार ना हो जाए, यह डर सबके मन में घर कर गया था।
एसएचओ विक्रांत ठाकुर जो अब लाइन हाजिर था, समाज सेवा में लग गया। हर सुबह वह वृद्धाश्रमों में जाकर बुजुर्गों की मदद करता, उनके पैर दबाता, दवा लाता और उनसे सीखने की कोशिश करता। यह उसका प्रायश्चित था और शायद यही उसका असली पुनर्जन्म भी था।
उधर नरेंद्र शुक्ला जी ने कभी भी इस घटना का कोई राजनीतिक लाभ नहीं उठाया। उन्होंने ना तो कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस की, ना ही सोशल मीडिया पर कोई बयान दिया। जब एक पत्रकार उनके पास इंटरव्यू के लिए आया, उन्होंने केवल इतना कहा –
“इज्जत मांगने से नहीं मिलती, बर्ताव से कमाई जाती है। और सबसे जरूरी बात – कभी किसी को छोटा मत समझो, क्योंकि समय और पहचान बदलते देर नहीं लगती।”
उनका यही एक वाक्य अगले दिन सारे अखबारों की हेडलाइन बन गया।
क्लाइमेक्स दृश्य, विजुअल एंडिंग:
एक दिन शहर के मुख्य चौराहे पर एक नया बोर्ड लगाया गया –
“इस थाने में हर नागरिक समान है। बुजुर्गों का सम्मान करें। आज वह हैं, कल हम होंगे।”
बोर्ड के नीचे एक छोटा सा फोटो फ्रेम था – नरेंद्र शुक्ला जी की साधारण सी तस्वीर जिसमें वह मुस्कुराते हुए खड़े हैं, अपने हाथ में वही पुरानी फाइल पकड़े हुए। लोग रुकते, पढ़ते और फिर सिर झुका कर आगे बढ़ जाते। हर कोई जानता था – यह कोई आम आदमी नहीं था, यह वह शख्स था जिसने बिना चीखे, बिना बदला लिए पूरे सिस्टम को आईना दिखा दिया था।
यह कहानी ना सिर्फ एक थाने की, बल्कि हर उस जगह की है, जहां वर्दी, कुर्सी या पद के पीछे इंसानियत छुप जाती है।
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इंसान की पहचान उसके ओहदे से नहीं, उसके व्यवहार से होती है।
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