IPS मैडम ने की एक 14 वर्ष के लड़के से शादी, आख़िर क्यों..? फिर अगले ही दिन जो हुआ “…
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बारिश धीरे-धीरे शहर के पुराने सरकारी क्वार्टर की छतों पर गिर रही थी। धूप और धूल से तपे इस छोटे से जिले की गीली मिट्टी अब खुशबू बिखेर रही थी। यह इलाका कभी इतना शांत नहीं रहता। लेकिन आज शहर के लोगों में एक ऐसी बात फैल गई थी जिसे कोई समझ नहीं पा रहा था। एसपी साहिबा ने एक 14 साल के लड़के से शादी कर ली। कोई कह रहा था, “यह तो पागल हो गई हैं।” कोई फुसफुसा रहा था, “ज़रूर कोई बहुत बड़ी मजबूरी रही होगी।” तो कुछ लोगों के अंदर एक अजीब किस्म की सनसनी दौड़ रही थी। पुलिस की सबसे बड़ी अफसर और शादी एक नाबालिक से। लेकिन इन तमाम चर्चाओं से दूर जिला पुलिस मुख्यालय की एक कोठी में बैठी एसपी रागिनी वर्मा खिड़की से बाहर झांक रही थी। उनकी आंखों में ना गर्व था ना शर्म। बस एक ठहराव था। एक अजीब शांति।
रागिनी वर्मा। उम्र 34, तेजतर्रार आईपीएस अधिकारी, यूपी की सबसे कम उम्र में बनी महिला एसपी और एक बेहद अनुशासित जिंदगी जीने वाली अफसर। उनके नाम से अपराधी कांपते थे और मातहत इज्जत से सर झुकाते थे। ऐसी अफसर के इस कदम ने जैसे पूरे राज्य को झकझोर दिया था। लेकिन इस शादी की सच्चाई कहीं और थी और वह सच्चाई उस 14 वर्षीय लड़के मयंक से जुड़ी थी जो इस वक्त इसी कोठी के अंदर एक कोने में बैठा कांप रहा था।
मयंक एक बेहद गरीब परिवार का लड़का था। उसका पिता रामबाबू नगर निगम में सफाई कर्मचारी था और मां बीमार रहती थी। सातवीं तक पढ़ने के बाद उसे पढ़ाई छोड़कर चाय की दुकान पर काम करना पड़ा। लेकिन मयंक में कुछ खास था। वह बहुत बुद्धिमान था। उसकी आंखों में एक गहराई थी जो उसके उम्र से कहीं अधिक अनुभव बताती थी।

चार दिन पहले की बात थी। रागिनी साहिबा बिना सिक्योरिटी के एक स्कूल के पास निरीक्षण पर गई थीं। तभी उन्होंने देखा कि कुछ लड़के एक झुग्गी के बच्चे को पीट रहे हैं। सब तमाशा देख रहे थे। कोई कुछ नहीं कर रहा था। तभी अचानक एक लड़का बीच में कूद पड़ा। “मयंक, रुक जाओ, अगर मर्द हो तो अकेले लड़ो। छोटे को क्यों मार रहे हो?” उसने इतनी बहादुरी से उनका सामना किया कि दो लड़के भाग गए और एक को तो उसने नीचे गिरा दिया। रागिनी वहीं खड़ी थी और उन्होंने यह सब देखा।
जब सब शांत हुआ, उन्होंने मयंक को बुलाया। “तुम्हारा नाम क्या है? मयंक, डर नहीं लगा?” “गलत बात से डर नहीं लगता, मैडम।” बस यही वाक्य रागिनी के दिल में उतर गया। रागिनी का बचपन बहुत कड़वा था। जब वह 14 साल की थी तो एक रिश्तेदार ने उनके साथ बुरा बर्ताव करने की कोशिश की थी। वह किसी तरह बच गई लेकिन वह सदमा आज तक उनकी आत्मा में कहीं गहराई तक धंसा हुआ था। तभी उन्होंने ठान लिया था कि कमजोर को बचाना है। चाहे कुछ भी हो जाए।
मयंक में उन्हें वही मासूमियत और साहस दिखा जो उन्होंने खुद में कभी महसूस किया था। वह उसे कुछ दिन अपने साथ रखना चाहती थी ताकि उसे शिक्षा और सुरक्षा दे सकें। लेकिन कानून ने 3 दिन बाद कुछ लोगों ने अफवाहें फैलाई कि मैडम एक लड़के को अपने साथ रख रही हैं। उसके साथ गलत इरादा है शायद। मीडिया ने भी इसे बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया। सोशल मीडिया पर मीम्स, आलोचना और चरित्र हनन शुरू हो गया। उनके खिलाफ जांच बैठ गई। अफसर होने के बावजूद वह महिला थी इसलिए उन पर सवाल दोगुने तीखे उठे।
रागिनी ने एक दिन में सब सोच लिया। अगर समाज किसी लड़के की सुरक्षा के लिए मुझे ही दोष देगा तो मैं समाज से ऊपर का कदम उठाऊंगी। और फिर उन्होंने मयंक से पूछा, “क्या तुम मुझ पर भरोसा करते हो?” “हां, मैडम। अगर मैं तुमसे कहूं कि तुम मेरे साथ रहो लेकिन दुनिया के सामने एक नाम देकर तो क्या तुम रहोगे?” “मैं रहूंगा।” तो चलो।
और फिर उन्होंने अपनी ताकत का इस्तेमाल कर अदालत से संरक्षण विवाह का आदेश लिया। एक सिंबॉलिक मैरिज जिसमें कोई शारीरिक या पारिवारिक अधिकार नहीं होता। सिर्फ सुरक्षा और जिम्मेदारी की कानूनी मोहर होती है। अगले दिन पूरे शहर ने अखबार में पढ़ा, “एसपी रागिनी वर्मा ने एक 14 साल के लड़के से शादी की समाज की परवाह किए बिना।” मीडिया के कैमरे जब एसपी ऑफिस पहुंचे तो रागिनी ने खुद प्रेस कॉन्फ्रेंस ली।
“मैंने यह शादी नहीं की है। मैंने एक बच्चे की सुरक्षा के लिए जिम्मेदारी ली है। इसे आप शादी कहें, गोद लेना कहें, संरक्षण कहें, मुझे परवाह नहीं। लेकिन जब समाज चुप बैठता है तब मैं खड़ी होती हूं। अगर कोई महिला किसी मासूम की रक्षा करे तो क्या उसे हमेशा गलत ही समझा जाएगा?” पूरा कमरा सन्न था और तभी एक और धमाका हुआ। अगले ही दिन मयंक गायब हो गया।
सुबह 6:00 बजे जब रागिनी ऑफिस पहुंची तो उनका गार्ड घबराया हुआ आया। “मैडम, मयंक कमरे में नहीं है। उसके बिस्तर पर खून है।” रागिनी के चेहरे का रंग उड़ गया। कमरे में अफरातफरी मच गई। सीसीटीवी चेक किए गए। पिछली दीवार से कोई अंदर घुसा था और मयंक को घसीट कर ले गया था। शुरू में सबको लगा कि शायद मयंक खुद भाग गया लेकिन रागिनी को यकीन था मयंक ने मेरे भरोसे को कभी नहीं तोड़ा। यह कोई और है और यहीं से शुरू हुई एक और जंग।
इस बार एक एसपी की नहीं, एक औरत की जो किसी को यह साबित करके रहेगी कि वह बच्चे की रक्षक है और रहेगी। रात के अंधेरे में जैसे कोई भयानक गुंठी सुलग रही थी। मयंक की रहस्यमई गायब होने की खबर पूरे शहर में फैल चुकी थी। मीडिया चैनल चिल्ला-चिल्ला कर हेडलाइंस दे रहे थे। जिसे एसपी ने सुरक्षा देने के नाम पर घर में रखा। वही बच्चा अब संदिग्ध हालातों में लापता है।
सोशल मीडिया फिर से उबल पड़ा था। कुछ लोग कह रहे थे कि मयंक को बेच दिया गया। कुछ ने कहा कि वह खुद भाग गया और कुछ लोगों ने यहां तक कह डाला कि शायद मयंक को मारकर सबूत मिटाया जा चुका है। पुलिस मुख्यालय के बाहर पत्रकारों की भीड़ लग गई थी। कैमरे, माइक और माइंडलेस आरोप। लेकिन इन सबके बीच रागिनी वर्मा की आंखें सूखी थीं लेकिन उनमें तूफान था। वह हर उस थकाऊ घटिया आरोप से परे जाकर बस एक ही बात सोच रही थी, “मयंक कहां गया और क्यों।”
उस रात उन्होंने खुद मयंक का कमरा खंगाला। दीवारों पर खरोच के निशान थे। खिड़की की जाली कटी हुई थी और जमीन पर खून के सूखे छींटे थे। खून बहुत ज्यादा नहीं था। लेकिन इतना था कि उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था। उनका अनुभव कहता था कि यह अपहरण है और यह अपहरण मामूली नहीं। यह किसी ऐसे के द्वारा किया गया है जो रागिनी को व्यक्तिगत रूप से चोट पहुंचाना चाहता है।
रागिनी ने तुरंत स्पेशल टास्क फोर्स को बुलाया। सीसीटीवी फुटेज, कॉल डिटेल्स, इलाके के संदिग्ध तत्व सबकी एक सूची बनाई गई। लेकिन अब तक कोई सुराग हाथ नहीं आया था। गहराती रात के बीच अचानक एसपी दफ्तर के बाहर एक बुढ़िया आई। उसके फटे साड़ी, उलझे बाल और कांपते पैरों को देखकर कोई उसे गंभीरता से नहीं ले रहा था। लेकिन जब वह बोली, “मयंक को मैं जानती हूं। उसने मुझे बताया था कोई उसे मारना चाहता है।”
तो एक सिपाही तुरंत रागिनी के पास ले गया। रागिनी ने उस बूढ़ी महिला से सवाल किया, “तुम कौन हो? मयंक को कैसे जानती हो?” “मैं फूलवती हूं। यहीं सब्जी मंडी के पास भीख मांगती हूं। मयंक जब भी निकलता था स्कूल या काम पर, मुझे केला दे जाता था। कहता था कि दादी, आप भूखी मत रहिए। दो दिन पहले उसने मुझसे कहा था कि दादी अगर मुझे कुछ हो जाए तो आप एसपी मैडम को बताना। गाड़ी वाले काका मुझे बार-बार घूरते हैं।”
मयंक से जुड़ी यह जानकारी रागिनी के लिए महत्वपूर्ण थी। रागिनी के ज़हन में घंटी बजी। यह तो वही गिरोह हो सकता है जिसका केस वह 2 महीने से दबाई बैठी थी। बाल तस्करी रैकेट। गरीब बच्चों को लालच देकर उठाना, फिर बाहर भेज देना और जब कोई पुलिस वाला उन्हें रोकने की कोशिश करता था तो या तो उसका ट्रांसफर हो जाता था या उसे किसी फर्जी केस में फंसा दिया जाता था।
रागिनी ने तुरंत उस सफेद जीप का पता लगाने के लिए ट्रैफिक डिपार्टमेंट को कॉल किया। उन्हें मंडी इलाके के पास लगे कैमरों के फुटेज चेक करने के निर्देश दिए गए। 1 घंटे बाद फुटेज सामने आई। रात के 1:27 पर एक सफेद जीप बाई गली से घूमती है और रागिनी के क्वार्टर की दीवार की ओर जाती है। 2:13 पर वही गाड़ी उल्टे रास्ते से निकलती है और गाड़ी में एक अजीब सा उभार दिखता है जैसे किसी को बांध कर डाला गया हो। अब शक यकीन में बदल गया था।
रागिनी ने तुरंत स्पेशल टीम को भेजा। गाड़ी का नंबर ट्रेस किया गया। नंबर नकली निकला लेकिन जीप का असली नंबर प्लेट कैमरे में रिफ्लेक्शन से पकड़ में आ गया। असली नंबर एक प्राइवेट स्कूल के ट्रांसपोर्ट सर्विस में रजिस्टर्ड था। लेकिन जब टीम वहां पहुंची तो गाड़ी गायब थी और ड्राइवर का फोन बंद। उधर रागिनी ने एक और साहसिक कदम उठाया – मयंक के परिवार से मिलने का।
रात के 3:00 बजे वह खुद रामबाबू के घर गई। टपकती छत और टूटे दरवाजे के उस छोटे से घर में रामबाबू अपनी बीमार पत्नी को पंखा झल रहा था। रागिनी के पहुंचते ही वह घबरा गया। “मैडम, हमने कुछ नहीं किया। हमें मत पकड़वाइए।” “शांत रहिए। मैं यहां दोष लगाने नहीं, सच जानने आई हूं। क्या मयंक किसी से डरता था?” “जी हां, दो हफ्ते से बोलता था कि दो आदमियों से स्कूल के पास घूरते हैं। पर हमने सोचा बच्चा है, डर गया होगा।”
क्या आपने पुलिस को बताया? “हम गरीब हैं मैडम, कौन हमारी सुनेगा?” रागिनी की आंखें भीग गईं। इस सिस्टम में रहकर भी वह इस सिस्टम को कितना बेबस पाती थी। मयंक कोई आम लड़का नहीं था। वह उस इंसान की परछाई था जिसे रागिनी ने कभी खुद में खो दिया था। अब उसे बचाना सिर्फ एक जिम्मेदारी नहीं, एक ज़िद बन गई थी।
अगली सुबह रागिनी ने गुप्त रूप से एक महिला कांस्टेबल को बाजार भेजा। फूलवती के बयान से कुछ लोग जो गाड़ी वाले काका को पहचानते थे, उनका स्केच बनवाया गया। स्केच बनते ही एक कांस्टेबल ने पहचान लिया। “यह तो गणेश पहलवान है। पहले शराब की तस्करी करता था। अब सुना है कि बाहर के लोगों से डील करता है।” गणेश पहलवान। नाम सुनते ही रागिनी को एक केस याद आया जो एक साल पहले उसके खिलाफ दर्ज हुआ था। लेकिन सबूतों के अभाव में वह छूट गया था।
वह इस शहर का काला साया था। उसका नाम कोई जोर से नहीं लेता था और आज वही गणेश मयंक की गुमशुदगी में शामिल था। यह बात रागिनी को यकीन हो चला था। उधर मीडिया का दबाव बढ़ता जा रहा था। अधिकारी उन्हें कह रहे थे, “आप छुट्टी ले लीजिए मैडम। मामला बहुत संवेदनशील हो गया है।” लेकिन रागिनी ने जवाब दिया, “मैं छुट्टी लेने नहीं, अपराधियों को छुट्टी देने के लिए बनी हूं।”
अब समय था सीधा गणेश तक पहुंचने का। लेकिन वह इतनी आसानी से हाथ नहीं आता। उसका अड्डा था शहर के बाहर। नदी किनारे एक फार्म हाउस में जहां कोई मोबाइल नेटवर्क नहीं आता था और हर कोने पर उसके बंदूकधारी पहरेदार रहते थे। रागिनी ने एक खास प्लान बनाया। वह खुद एक साधारण महिला का भेष धारण कर वहां जाएगी। एक बकरे के व्यापारी की बहन के बनकर। उसके साथ दो स्पेशल ऑफिसर्स भी जाएंगे। एक उसके भाई के भेष में, दूसरा ड्राइवर बनकर।
अगली शाम तीन लोग एक जीप में चुपचाप फार्म हाउस की ओर निकले। वहां पहुंचते ही रागिनी को अंदर भेजा गया। जब गणेश पहलवान ने देखा कि एक महिला खुद उससे मिलना चाहती है तो दिलचस्पी दिखाने लगा। “बोल बहन, क्या चाहिए?” “भैया, मेरे भाई के लिए काम चाहिए। बड़ा मेहनती है और मुझे एक बच्चा खरीदना है।”
गणेश की आंखें सिकुड़ गईं। “बच्चा क्या करेगी? साहब लोग आते हैं। कहते हैं माल ला दो तो पैसा मिलेगा।” गणेश हंसा। “तू तो बड़ी चालाक निकली।” उसी वक्त उसने एक आदमी को बुलाया। “चलो नए माल को दिखा दो।” रागिनी का दिल बैठ गया। लेकिन चेहरा शांत रखा। वह देखना चाहती थी कि क्या मयंक वहीं है।
एक दरवाजा खुला और अंदर से तीन लड़के निकाले गए। आंखों पर पट्टी, मुंह पर कपड़ा। तीसरे नंबर पर जो लड़का था, उसके बाएं कान के पीछे एक पुराना कट का निशान था। वही मयंक था। रागिनी के शरीर में करंट दौड़ गया। लेकिन उसने खुद को संभाला। वह अब सीधा ऑपरेशन शुरू नहीं कर सकती थी। पूरी योजना बनानी होगी।
वह चुपचाप वहां से निकली और जीप में बैठकर लौट आई। रास्ते में वायरलेस पर उन्होंने एक कोड भेजा। कोड 117 मानव तस्करी ऑपरेशन। फार्म हाउस अब वक्त था जाल बिछाने का। रात के ठीक 2:30 बजे शहर की सीमाओं पर सायरनो की आवाज गूंज उठी। एसपी रागिनी वर्मा ने ऑपरेशन कोड 117 का कमान संभाल लिया था। उनके नेतृत्व में तैयार की गई स्पेशल रेस्क्यू टीम शहर से बाहर उस फार्म हाउस की ओर तेजी से बढ़ रही थी।

जहां मयंक समेत तीन नाबालिग लड़कों को बंधक बनाकर रखा गया था। इस ऑपरेशन में शामिल सभी जवानों को सख्त निर्देश थे। गोलीबारी सिर्फ आत्मरक्षा में, प्राथमिक लक्ष्य बच्चों को सुरक्षित बाहर निकालना। जीपों की लाइन, वायरलेस पर कोड वर्ड्स की आवाज और पूरे जिले की पुलिस का एकजुट होना। यह रागिनी के अब तक के करियर का सबसे संवेदनशील ऑपरेशन था।
फार्म हाउस तक पहुंचते ही टीम ने चारों दिशाओं से घेरेबंदी की। ड्रोन कैमरा ऊपर से लाइव फुटेज दे रहा था। रागिनी ने माइक्रोफोन में धीरे से कहा, “टीम एक बाई दीवार से प्रवेश करें।” टीम दो पीछे के गोदाम को घेर ले। “मैं टीम तीन के साथ मुख्य दरवाजे से प्रवेश करूंगी।” आदेश मिलते ही टीमें फुर्ती से अपने स्थानों पर तैनात हो गईं।
2 मिनट बाद फार्म हाउस की बत्तियां अचानक बुझ गईं। अंदर हलचल मच गई थी। शायद किसी ने पुलिस की आहट महसूस कर ली थी। तभी एक तेज आवाज गूंजी। “कोई बाहर मत निकले। सब जगह पुलिस है।” यह रागिनी की आवाज थी। फार्म हाउस की दीवार पर फायर हुआ। जवाब में दो गोलियां बाहर आईं। रागिनी झुकी और चिल्लाई। “आग्रह है बच्चे हमारे हवाले कर दो वरना बलपूर्वक प्रवेश करेंगे।” पर जवाब गोलियों में मिला।
अब इंतजार का वक्त नहीं था। रागिनी ने खुद टीम तीन के साथ मुख्य दरवाजा तोड़ा और अंदर घुस गई। अंदर घना अंधेरा था लेकिन उनके पास नाइट विजन चश्मे थे। उन्होंने देखा कि एक कमरा अंदर से बंद है। दरवाजा तोड़ने का आदेश दिया गया। 3 सेकंड में दरवाजा टूटा और सामने तीन लड़के मयंक समेत कपड़े में लिपटे हुए रोते हुए पड़े थे। उनकी आंखों पर पट्टी और मुंह पर टेप था।
एक जवान ने तुरंत उन्हें बाहर ले जाने की व्यवस्था की। रागिनी खुद मयंक के पास पहुंची और उसका टेप हटाया। “मैडम!” मयंक की आंखें भीग गईं। “चुप! मैं आ गई हूं। अब कुछ नहीं होगा।” बाहर गोलीबारी जारी थी लेकिन अंदर से बच्चे सुरक्षित निकाले जा चुके थे। अब फोकस था अपराधियों को जिंदा पकड़ने का। फार्म हाउस के पिछले हिस्से से गणेश पहलवान और उसके चार गुर्गे भागने की कोशिश कर रहे थे।
एक ने पीछे मुड़कर पुलिस पर फायर किया। लेकिन जवाबी कारवाही में उसका कंधा जख्मी हो गया। गणेश ने एक नाबालिग लड़की को ढाल बनाकर निकलने की कोशिश की। लेकिन रागिनी ने खुद जाकर उसकी राह रोकी। “रुक जा गणेश। इस बार तुझे कोई राजनीतिक संरक्षण नहीं बचा पाएगा।” “दूर हट जा औरत, वरना इस लड़की की गर्दन काट दूंगा।” “अगर तूने एक भी हरकत की तो मेरी गोली तुझे सीधे सीने में लगेगी।” गणेश हंसा। “क्या कर लेगी? औरत होकर मर्दों के पीछे दौड़ रही है।”
रागिनी ने नजरें नहीं हटाई। “औरत हूं, इसलिए जान की कीमत समझती हूं। लेकिन गोली चलाने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं।” तभी एक सटीक निशानेबाज सिपाही ने इशारे पर एक गोली चलाई जो लड़की के सिर के ऊपर से गुजरी और गणेश के हाथ से चाकू गिर गया। रागिनी कूद पड़ी। लड़की को खींच कर अलग किया और 2 सेकंड में गणेश को जमीन पर पटक कर हथकड़ी पहना दी।
फार्म हाउस पूरी तरह खाली करवा लिया गया था। 10 अपराधी पकड़े गए। छह नाबालिग लड़के और दो लड़कियां रेस्क्यू हुईं। मयंक पूरी तरह डरा हुआ था लेकिन सुरक्षित। अगले दिन का सूरज जैसे पूरे शहर के लिए नया सवेरा लेकर आया। एसपी रागिनी वर्मा का ऑपरेशन बाल रक्षा सफल। अखबारों में यही लिखा था। मुख्यमंत्री तक ने फोन करके बधाई दी।
लेकिन यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती। मयंक को लेकर शहर में अभी भी लोग संदेह जता रहे थे। कुछ मीडिया चैनल्स अब भी कह रहे थे शादी क्यों की गई? गोद क्यों नहीं लिया? प्रशासन के कई अफसरों ने रागिनी पर दबाव बनाया कि वह इस शादी को खत्म कर दें। “आपका कदम कानूनी है लेकिन सामाजिक रूप से अस्वीकार्य है। इससे महिला अफसरों की छवि को धक्का लग रहा है।”
लेकिन रागिनी ने वही जवाब दिया। “जो कदम किसी बच्चे की जान बचा सके वह मेरे लिए छवि से अधिक महत्वपूर्ण है।” एक दिन जब मयंक ठीक हो गया और दोबारा स्कूल जाने लगा तो एक और घटना घटी। स्कूल में कुछ लड़कों ने उसे छेड़ा। “शादीशुदा बच्चा आ गया, अब बीवी के पैर दबाने आएगा।” मयंक कुछ नहीं बोला। बस चुपचाप चला गया।
लेकिन उस दिन शाम को जब रागिनी ऑफिस से लौटी तो देखा मयंक चुपचाप कोने में बैठा है। “क्या हुआ, मयंक?” “मैडम, क्या मैं बोझ बन गया हूं?” रागिनी का दिल कांप गया। ऐसा क्यों सोचता है? “सब लोग हंसते हैं। कहते हैं बीवी है मेरी। कहते हैं शादी करके नाम कमाया है।”
“मयंक, यह दुनिया हंसती रहेगी। लेकिन तू चलना मत छोड़ना। मैं तुझे तेरे नाम से नहीं, तेरे हौसले से पहचानती हूं। तू वही बच्चा है जिसने एक मासूम को गुंडों से बचाया था।” वह सब भूल गया। “नहीं, मैडम। पर मैं नहीं चाहता कि लोग आपको भी हंसें।”
“तो क्या करोगे? आप कहें तो मैं दूर चला जाऊं।” रागिनी की आंखों से आंसू निकल आए। “बेटा, मां को छोड़कर कोई कहीं नहीं जाता।” पहली बार मयंक ने उन्हें मां जैसा देखा था। अब कोई विवाह, कोई परिभाषा नहीं रही। अब वह रिश्ता जो मजबूरी से बना था, एक अटूट विश्वास बन गया था।
उस रात रागिनी ने मयंक की तरफ देखा और कहा, “तू सिर्फ मुझसे नहीं जुड़ा। तुझसे तो अब मेरी आत्मा जुड़ी है। अगर कोई तुझे छुएगा, तो मैं फिर गोली चलाऊंगी।” मयंक ने धीरे से कहा, “अब मैं भी बड़ा हो गया हूं। मैडम, अब आपको भी कोई छूने नहीं दूंगा।” दोनों मुस्कुरा दिए।
अगले दिन रागिनी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई। कहा, “मेरी मंशा पर सवाल उठाने वालों से मैं सिर्फ एक बात कहूंगी। अगर आपको एक बच्चे की जान बचाने के लिए समाज की रीतियों को तोड़ना पड़े तो मैं बार-बार तोड़ूंगी। मैं एसपी हूं पर सबसे पहले एक इंसान हूं।”
कैमरे फ्लैश कर रहे थे। लेकिन कोई सवाल नहीं उठा। क्योंकि उस दिन पहली बार किसी ने साहस और संवेदना को एक साथ जीते हुए देखा था। उस दिन के बाद पूरे जिले में जैसे कुछ बदल गया था। स्कूलों में, गलियों में, दुकानों पर, चाय के ठेलों पर अब मयंक का नाम नई तरह से लिया जाने लगा। अब वह वह बच्चा नहीं था जिसे हंसी का पात्र समझा गया था। अब वो एसपी मैडम का बेटा बन चुका था।
वो बेटा जिसकी मां ने उसके लिए पूरी व्यवस्था से, पूरे अपराध जगत से और समाज की रूढ़ियों से टकरा लिया था। लेकिन इस बदलते सम्मान के पीछे एक औरत का टूटता शरीर और थकती आत्मा भी छिपी थी। एसपी रागिनी वर्मा की नींदें अब नियमित नहीं थीं। वह दिन भर कानून के संचालन में और रात भर मयंक की मानसिक स्थिति को संभालने में जुटी रहती थीं।
कई बार मयंक डर से चौंक कर उठ जाता। पसीने-पसीने हो जाता। कहता, “मैडम, वो लोग फिर से आएंगे ना।” रागिनी उसे सीने से लगाकर घंटों थपथपाती। वह अब सिर्फ एसपी नहीं रह गई थी। वह एक मां थी। लेकिन प्रशासन की सियासत वहीं की वहीं थी। रागिनी के इस कदम से नाराज कुछ बड़े अधिकारियों ने उन्हें चुपचाप ट्रांसफर करने की साजिश रचनी शुरू कर दी थी।
एक दिन उन्हें मंत्रालय से एक फोन आया। “आपका तबादला सुल्तानपुर हो गया है। आदेश कल तक लागू हो जाएगा।” रागिनी शांत रहीं। “मैं अपना चार्ज तभी दूंगी जब मयंक को कानूनी संरक्षण मिल जाएगा। अगर आपने एक भी दिन की जल्दबाजी की तो मैं इस्तीफा दे दूंगी और मामला मीडिया में ले जाऊंगी।”
उस तरफ सन्नाटा छा गया। अगले दिन खुद चीफ सेक्रेटरी का फोन आया। “मैडम, आदेश स्थगित कर दिया गया है।” लेकिन इस लड़ाई का एक और मोर्चा खुल चुका था। अदालत में बच्चों के अधिकार के एक स्वयंसेवी संगठन ने हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की। “एक वरिष्ठ अधिकारी द्वारा नाबालिक से विवाह करना भले ही प्रतीकात्मक रहा हो, लेकिन यह समाज में एक गलत मिसाल स्थापित कर सकता है।”
कोर्ट ने संज्ञान लिया और रागिनी को व्यक्तिगत रूप से पेश होने का आदेश जारी किया। अदालत के दिन कोर्ट परिसर में जनहैराब था। मीडिया के कैमरे, छात्रों की भीड़ और अधिकारियों की आंखें सब टिकी थीं रागिनी वर्मा पर। जब जज ने पूछा, “आपने एक 14 वर्षीय बालक से विवाह जैसा प्रतीकात्मक कार्य क्यों किया?”
तो रागिनी ने सिर ऊंचा कर कहा, “जब समाज आंखें मूंदे देखता है, जब सिस्टम कागजों में उलझ जाता है, तब एक अधिकारी को इंसान बनकर निर्णय लेना पड़ता है। अगर मैं उसे गोद लेती, तो उसके रिश्तेदार उसे वापस खींच लेते। अगर उसे हॉस्टल भेजती तो वह रैकेट वाले दोबारा उठा लेते। मैंने उसे एक संरक्षित ढाल दी नाम की लेकिन कानून की। अगर यही जुर्म है तो मैं हर दिन यह जुर्म करूंगी।”
कोर्ट ने कहा, “आपका इरादा नेक हो सकता है। परंतु कानून केवल इरादों से नहीं चलता।” तभी कोर्ट में एक हलचल हुई। मंच के पीछे से अचानक एक आवाज आई। “माय लॉर्ड, मैं कुछ कहना चाहता हूं।” सब ने मुड़कर देखा। मयंक खड़ा था। हाथ में स्कूल बैग, आंखों में सच्चाई और आवाज में हिम्मत।
“माय लॉर्ड, मुझे नहीं पता कि शादी क्या होती है। पर मुझे इतना पता है कि जो लोग मुझे मारना चाहते थे उनसे एक औरत ने बचाया। वो मेरे लिए भगवान से कम नहीं। अगर उन्होंने मुझसे जुड़ने के लिए एक नाम दिया तो क्या गलत किया? जब मेरे मां-बाप डर के मारे चुप थे, तो वह मेरे लिए खड़ी रही। क्या उनकी सजा बनती है?”
कोर्ट सन्न रह गया। मयंक की मासूम बातों ने पत्थर दिलों को भी कपा दिया। जज ने केस को गंभीर सामाजिक पहलू बताते हुए एक विशेष समिति को सौंपा और तब तक कोई दंडात्मक कार्यवाही ना करने का आदेश दिया। बाहर निकलते हुए रागिनी ने मयंक का हाथ थामा। पहली बार खुलकर मुस्कुराई और बोली, “तू मेरा बेटा है और यह दुनिया अब तुझे झुका नहीं सकती।”
लेकिन उनकी राहत क्षणिक थी क्योंकि अगले दिन रागिनी के घर एक धमकी भरा पत्र आया। उस पर लिखा था, “मयंक को हम फिर से उठा लेंगे। तू रोक सके तो रोक ले मैडम।” खत की भाषा घिनौनी थी और साफ था कि वह उन्हीं तस्करी माफिया का काम है जो अब जेल से भी धमकाने में सक्षम हैं। अब रागिनी को मयंक को और भी सुरक्षित स्थान पर रखना था।
उन्होंने एक फैसला लिया। “मैं अब मयंक को दिल्ली भेजूंगी। एक ऐसे बोर्डिंग स्कूल में जहां सुरक्षा सबसे उच्च स्तर की हो। मैं वहां हर हफ्ते मिलने जाऊंगी लेकिन उसे अब दूर रखना जरूरी है।” मयंक सहम गया। “मैडम, आप मुझे छोड़ रही हैं?” “नहीं बेटा, मैं तुझे बचा रही हूं। हर बार मैं साथ नहीं रह सकूंगी पर मैं तुझे इतना मजबूत बना दूंगी कि तू अकेले दुनिया से लड़ सके।”
मयंक की आंखें छलक आईं। लेकिन उसने सिर हिला दिया। दो दिन बाद दिल्ली जाने से पहले मयंक ने कहा, “मैडम, क्या मुझे एक बार गंगा घाट ले चल सकती हैं?” “गंगा घाट? हां, मां ने बचपन में कहा था कि अगर कभी डर लगे तो गंगा मैया से बात करना।” रागिनी मुस्कुरा दी। अगली सुबह दोनों गंगा किनारे बैठे थे। घाट शांत था। मयंक ने हाथ जोड़कर आंखें बंद कीं और धीमे से कहा, “गंगा मैया, आप मेरी दूसरी मां को हमेशा खुश रखना। उन्होंने मुझे नया जन्म दिया है।”
रागिनी चुपचाप उसका कंधा सहला रही थी। इस दृश्य को दूर खड़े एक फोटोग्राफर ने कैमरे में कैद कर लिया और अगले दिन अखबारों में हेडलाइन बनी, “जब एसपी एक मां बन गई।” दिल्ली रवाना होने से पहले मयंक ने एक छोटी सी डायरी रागिनी को दी। लिखा था, “जब मैं बड़ा अफसर बन जाऊंगा तो सबसे पहले उस जेल जाऊंगा जहां वह लोग बंद हैं और कहूंगा, ‘देखो, जिसे तुमने खत्म करना चाहा वह अब तुम्हारी तरह अफसर बन गया है।’”
रागिनी ने किताब सीने से लगा ली। एयरपोर्ट पर विदाई के समय मयंक ने रागिनी के पैर छुए। “अब मैं डरूंगा नहीं, मैडम। अब मैं लड़ूंगा।” रागिनी ने कहा, “अब तू मेरा बेटा नहीं, तू इस देश का बेटा है।” जहाज उड़ चला। एक कहानी ने उड़ान ली थी।
पर क्या यह अंत था? नहीं। यह एक नई शुरुआत का संकेत था। दिल्ली की सर्द सुबह में जब मयंक ने पहली बार अपने नए स्कूल की सीढ़ियां चढ़ी तो वह सिर्फ एक बच्चा नहीं था जो पहली बार घर से बाहर आया था। वो एक ऐसा बच्चा था जिसने पहले मौत का सामना किया था। फिर समाज के सवालों का और अब वह खुद को एक नए नाम, नई पहचान और नई दुनिया में ढालने जा रहा था।
बोर्डिंग स्कूल का परिसर बड़ा और सुंदर था लेकिन मयंक की आंखें बार-बार पीछे घूम रही थीं। कहीं कोई कोना वैसा तो नहीं जैसा प्रयागराज की गलियों में था। कोई चेहरा जो एसपी मैडम जैसा दिखता हो। कोई छाया जिसमें मां की ममता हो। पर यहां सब कुछ व्यवस्थित, अनुशासित और अजनबी था। उसे कमरा मिला, किताबें मिलीं, टाइम टेबल मिला और मिल गई एक चुप्पी जो किसी के साथ कुछ साझा करने की अनुमति नहीं देती थी।
पहले कुछ दिन मयंक ने चुपचाप कक्षा में बैठकर सिर्फ देखा, सुना और अपने आप को समझने की कोशिश की। कई बार उसकी आंखें क्लास के बीच में भर आतीं, लेकिन वह कभी किसी को दिखाता नहीं। वह जानता था कि अब उसे रोने की नहीं, खुद को साबित करने की जरूरत थी। इस बीच रागिनी वर्मा प्रयागराज में अब पहले जैसी नहीं रही थीं। मयंक की गैर मौजूदगी उनके जीवन में खालीपन छोड़ गई थी।
जिसे वह फाइलों से, मीटिंग से और कानून की लड़ाईयों से भरने की कोशिश कर रही थीं। लेकिन रात को जब ऑफिस से लौटतीं तो वह सन्नाटा उन्हें चुभता था। वो मयंक की पुरानी कॉपी निकालकर उसके बनाए कार्टून देखतीं। जहां वह एक सिपाही को ड्रॉ करता और नीचे लिखता, “मैडम सुपर हीरो है।” अब वह कॉपी उनकी दवाओं से भी ज्यादा सुकून देने वाली चीज बन चुकी थी।
मयंक ने बोर्डिंग स्कूल में एक पत्रिका निकालनी शुरू की। उसका नाम रखा “मुक्त आवाज।” उसमें वह हर हफ्ते एक बच्चा बनता जो कभी किसी डर से गुजरा हो और उसे कहानी की शक्ल में लिखता। उसका पहला लेख था “वो दीवार और वह औरत।” इस लेख में उसने एक बच्चे की कहानी बताई जिसे चार गुंडों ने बंद कमरे में बांध रखा था और अचानक एक औरत आई जिसने दरवाजा तोड़ा। बच्चे को गोद में उठाया और कहा, “अब तुम्हें कोई हाथ नहीं लगाएगा।”
यह कहानी स्कूल में वायरल हो गई। सबको लगा यह कोई कल्पना है। लेकिन स्कूल की लाइब्रेरियन ने चुपचाप रागिनी को पत्र लिखा। “आपने जिस बच्चे को भेजा है, वह अपने जैसे कई और बच्चों की उम्मीद बन रहा है।” यह पत्र पढ़कर रागिनी की आंखों से आंसू बह निकले। पहली बार उन्हें एहसास हुआ कि उनका फैसला सिर्फ मयंक के लिए नहीं, पूरे समाज के लिए सही था।
स्कूल में अब मयंक का आत्मविश्वास लौटने लगा था। वह भाषण प्रतियोगिता में हिस्सा लेने लगा था। खेलों में भाग लेने लगा था और एक दिन उसने पूरे स्कूल के सामने एक भाषण दिया। “जब तक एक बच्चा डरता है तब तक समाज जीत नहीं सकता। मैं डरा था लेकिन किसी ने मेरा हाथ पकड़ा। अब मैं आगे बढ़ रहा हूं और अब मैं किसी का हाथ पकड़ूंगा।” पूरा ऑडिटोरियम तालियों से गूंज उठ गया।
उस दिन स्कूल के डायरेक्टर ने उसे गले लगाकर कहा, “बेटा, तू तो किसी आईपीएस से कम नहीं।” वहीं दूसरी ओर प्रयागराज में कुछ ऐसा हुआ जो रागिनी के जीवन की परीक्षा को फिर से परिभाषित करने वाला था। जेल में बंद गणेश पहलवान ने कोर्ट में याचिका दायर की। “मुझे मयंक के अपहरण केस से बरी किया जाए क्योंकि मुझे फंसाया गया है।” यह याचिका सुनकर पूरे प्रशासन में खलबली मच गई।
रागिनी ने खुद कोर्ट में पैरवी की। उन्होंने सारे सबूत, सीसीटीवी, फॉरेंसिक रिपोर्ट और पीड़ितों के बयान दोबारा प्रस्तुत किए। लेकिन गणेश के वकील ने एक टिकड़म लगाई। “मयंक अब यहां नहीं है तो हम उसकी गवाही को दोबारा जांचने की मांग करते हैं।” कोर्ट ने कहा, “मयंक की वीडियो गवाही ली जाएगी।” यह बात जब रागिनी ने मयंक को बताई तो वह कुछ पल के लिए चुप हो गया। फिर बोला, “मैडम, क्या मैं उस आदमी की आंखों में देखकर बोल सकता हूं?”
रागिनी चौकी, “मतलब वीडियो नहीं, मैं आकर गवाही देना चाहता हूं।” रागिनी हिचकिचाई। “पर बेटा, वहां बहुत खतरा है।” “मुझे अब डर नहीं लगता।” और मयंक सच में नहीं डरा। वह दिल्ली से प्रयागराज लौटा। कोर्ट में पेश हुआ और अपनी गवाही दी। “उसने मुझे घसीटा। मुझे मारा। मुझे बेचने वाला था। अगर मैडम नहीं होती तो मैं जिंदा नहीं होता।”
मयंक की दृढ़ता और सच्चाई से जज भी हिल गया। गणेश की याचिका खारिज हुई और कोर्ट ने सजा में और कड़ाई जोड़ दी। बाहर निकलकर जब मयंक ने मीडिया से बात की तो कहा, “मैं कोई पीड़ित नहीं हूं। मैं गवाह हूं। गवाही उस इंसान की जिसने मेरी जान बचाई। उस दिन से शहर ने मयंक को एक नए नाम से पुकारना शुरू किया। बाल साक्षी। एक ऐसा नाम जो अब डर से नहीं बदलाव से जुड़ा था।
रागिनी और मयंक की यह यात्रा अब अकेले की नहीं रही। यह आंदोलन बन चुकी थी। स्कूलों में मयंक की कहानियां पढ़ाई जाने लगीं। एनसीआरटी ने उसकी डायरी के कुछ अंश
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