राधिका वर्मा की संघर्ष और सफलता की कहानी

उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव में रमेश चंद्र वर्मा और उनकी पत्नी लक्ष्मी रहते थे। लक्ष्मी गर्भवती थी और दोनों अपने आने वाले बच्चे के लिए बहुत खुश थे। लेकिन डिलीवरी के समय लक्ष्मी की मृत्यु हो गई। रमेश चंद्र अकेले अपनी बेटी राधिका को पालने लगे। उन्होंने राधिका को अच्छे स्कूल में पढ़ाया और हमेशा उसका हौसला बढ़ाया।

राधिका पढ़ाई में बहुत होशियार थी। दसवीं की परीक्षा में उसने जिले में टॉप किया। लेकिन तभी उसके पिता की एक हादसे में मृत्यु हो गई। राधिका अकेली रह गई। रिश्तेदारों ने उसे उसकी बुआ के पास भेज दिया। बुआ ने राधिका से घर का सारा काम करवाया, पढ़ाई से रोक दिया और उसके माता-पिता की संपत्ति भी खुद रख ली।

राधिका ने सब कुछ सहन किया, लेकिन उसके मन में अफसर बनने का सपना था। एक दिन बुआ के घरवाले शादी में गए, तो राधिका ने मौका देखकर घर छोड़ दिया और ट्रेन पकड़ ली। रास्ते में कुछ लड़कों ने उसका पीछा किया, लेकिन वह भागकर एक मस्जिद पहुँची और वहाँ मौलवी साहब से मदद मांगी। मौलवी साहब ने उसकी रक्षा की और उसे अपने घर में जगह दी।

मौलवी साहब ने राधिका का स्कूल में एडमिशन कराया और दो साल तक उसकी देखभाल की। राधिका ने 12वीं अच्छे नंबरों से पास की और आगे की पढ़ाई के लिए शहर चली गई। वहाँ उसने एक होटल में काम करना शुरू किया, ताकि वह मौलवी साहब पर बोझ न बने। होटल मालिक ने उसकी मदद की, पढ़ाई का खर्चा उठाया और उसे आगे पढ़ने के लिए दिल्ली भेजा।

दिल्ली में राधिका ने मेहनत की और आखिरकार वह जिला कलेक्टर बन गई। उसने अपनी सफलता की खबर होटल मालिक को दी और फिर मौलवी साहब से मिलने अपने गाँव लौटी। मौलवी साहब उसकी सफलता देखकर भावुक हो गए। राधिका ने उन्हें अपने साथ शहर ले जाने की जिद की और उनकी सेवा करने लगी।

राधिका ने दोनों—मौलवी साहब और होटल मालिक—को अपने पिता जैसा सम्मान दिया। बाद में राधिका की शादी एक अधिकारी से हुई। उसने अपने पति से साफ कहा कि मौलवी साहब उसके पिता हैं और उनकी सेवा करनी होगी। पति ने भी मौलवी साहब का आदर किया।

राधिका की कहानी हमें सिखाती है कि कठिनाइयों के बावजूद अगर हौसला और मेहनत हो, तो सफलता जरूर मिलती है। इंसानियत और मदद करने का भाव समाज में सबसे बड़ा है।