कामाख्या एक्सप्रेस में बना अनोखा रिश्ता: दो मासूम बच्चों की खातिर, विधुर पिता और अनजान लड़की की कहानी

भूमिका

कहते हैं कि सफर में मिली मुलाकातें कभी-कभी पूरी जिंदगी बदल देती हैं। कभी एक अजनबी हमदर्द बन जाता है, तो कभी किसी की मदद से टूटे दिल को नया सहारा मिलता है। आज की यह कहानी एक ऐसे ही सफर की है, जिसमें एक विधुर पिता, उसके दो छोटे बच्चे और एक खूबसूरत, संवेदनशील लड़की – सबकी किस्मत कामाख्या एक्सप्रेस के एक डिब्बे में बंध जाती है। बनारस से मुंबई तक का यह सफर सिर्फ मंजिल पाने का नहीं, बल्कि जिंदगी को नया मायना देने का है।

शुरुआत: ट्रेन में सवार उम्मीदें और सवाल

शाम का वक्त था। कामाख्या एक्सप्रेस बनारस स्टेशन से मुंबई के लिए रवाना हो चुकी थी। डिब्बे में बैठे यात्रियों में एक 23 साल की बेहद खूबसूरत लड़की खुशी भी थी। उसके चेहरे पर सुकून था, आंखों में सपने। आसपास बैठे लोग शांत और सज्जन थे। सबकुछ सामान्य चल रहा था, तभी एक व्यक्ति दो छोटे बच्चों के साथ डिब्बे में दाखिल होता है।

एक 4 साल की प्यारी सी बेटी पारुल (जिसे प्यार से परी भी कहते हैं) और दो साल का बेटा आशु। राजू नाम का वह व्यक्ति बच्चों के साथ अपनी सीट पर बैठ जाता है। यात्रियों की नजरें बार-बार उसकी ओर उठ जाती हैं। सबके मन में एक ही सवाल – ये आदमी इतने छोटे बच्चों के साथ अकेले सफर क्यों कर रहा है? इन बच्चों की मां कहां है?

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सफर में तूफान: बच्चों का रोना और यात्रियों की बेचैनी

कुछ ही देर बाद आशु अचानक जोर-जोर से रोने लगता है। उसकी किलकारी पूरे डिब्बे में गूंज उठती है। सभी पैसेंजर्स उसे चुप कराने की कोशिश करते हैं, प्यार से सहलाते हैं, लेकिन बच्चा चुप नहीं होता। उसकी हालत बिगड़ने लगती है, चेहरा लाल हो जाता है, आवाज बैठने लगती है। राजू भी परेशान होकर रोने लगता है।

यात्रियों में बेचैनी बढ़ जाती है। कोई कहता है – “भैया जी, बच्चों को संभालना महिलाओं का काम है, आपको किसी लेडीज को साथ लाना चाहिए था।” कोई ताने मारता है – “जो औरत अपने छोटे बच्चों को छोड़कर भाग सकती है, उससे सावधान रहना चाहिए।” राजू सबकुछ सुनता है, लेकिन कोई जवाब नहीं देता। उसकी आंखों में दर्द साफ झलकता है।

मदद की ममता: खुशी का दिल पसीजता है

सामने वाली सीट पर बैठी खुशी यह सब देख रही होती है। बच्चे का रोना, राजू की बेबसी – सबकुछ उसकी संवेदनाओं को झकझोर देता है। वह अपनी सीट से उठती है, आशु को गोद में लेती है, सीने से लगाती है। आशु उसकी ममता पाकर चुप हो जाता है और सो जाता है।

खुशी पारुल से भी बात करती है, उसे बिस्किट देती है। पारुल बताती है – “मम्मी हमें छोड़कर भाग गई है, अब हम अपने डैडी के पास ही रहते हैं।” खुशी के दिल में इन बच्चों के लिए दया और अपनापन पैदा हो जाता है। वह राजू की मदद करने के लिए आगे आती है।

रात का सफर: जिम्मेदारियों की साझेदारी

रात के 11 बज चुके थे। सभी यात्री सोने की तैयारी कर रहे थे। खुशी राजू से कहती है – “आप पारुल को मेरी सीट पर सुला दीजिए, आशु को लेकर आप अपनी सीट पर सो जाइए।” राजू धन्यवाद कहता है।

रात के 2 बजे फिर आशु जाग जाता है और जोर-जोर से रोने लगता है। यात्रियों की नींद टूट जाती है, कुछ लोग नाराज हो जाते हैं। राजू उसे चुप कराने की कोशिश करता है, लेकिन बच्चा नहीं मानता। खुशी भी उठ जाती है, सोचती है कि बच्चे को चुप कराए, लेकिन झिझकती है – “लोग क्या सोचेंगे?”

आशु की तबीयत बिगड़ने लगती है, चेहरा सुर्ख हो जाता है। राजू परेशान होकर सिसक-सिसक कर रोने लगता है। खुशी खुद को रोक नहीं पाती, राजू के पास जाती है – “चुप हो जाइए, बच्चे को मुझे दे दीजिए।” वह आशु को गोद में लेती है, चुप कराती है, सुलाती है।

सुबह की नई शुरुआत: अपनापन और विश्वास

सुबह जब यात्री जागते हैं, देखते हैं कि आशु खुशी के साथ खेल रहा है। उसके कपड़े बदले हुए हैं, बॉडी पर पाउडर लगा है। राजू हैरान होकर पूछता है – “आपने कपड़े कब बदल दिए?” खुशी मुस्कुरा कर बताती है – “सुबह 6 बजे इसने पोटी कर ली थी, मैंने आपके बैग से कपड़े निकालकर पहनाए। आपको जगाना ठीक नहीं समझा।”

राजू कहता है – “आपका बहुत शुक्रगुजार हूं। अगर आप नहीं होती, तो पता नहीं बच्चों का क्या हाल होता।” पूरा दिन दोनों बच्चे खुशी के साथ खेलते रहते हैं। मुंबई स्टेशन पर ट्रेन रुकती है, सब उतरते हैं। खुशी बच्चों के साथ सेल्फी लेती है, चिप्स खरीदकर देती है। पारुल कहती है – “आंटी, आप हमारे घर चलो ना।” खुशी मुस्कुराकर कहती है – “बेटा, मैं जरूर आऊंगी।”

घर की सच्चाई: मां की कमी और दिल का दर्द

राजू अपने घर पहुंचता है। मां से सफर की परेशानी बताने से पहले ही पारुल सबकुछ बता देती है – “दादी, एक आंटी ने हमारी बहुत मदद की।” दो दिन बाद राजू के फोन पर खुशी का कॉल आता है। दोनों बात करते हैं, बच्चों की यादें ताजा होती हैं। खुशी कहती है – “मैं आपके घर आना चाहती हूं, बच्चों से मिलने का बहुत मन है।”

अगले दिन सुबह खुशी राजू के घर आ जाती है। राजू ने पहले ही अपने माता-पिता को बता दिया था। खुशी का जोरदार स्वागत होता है। पारुल और आशु उससे चिपक जाते हैं। लेकिन बच्चों की मां कहीं नजर नहीं आती। खुशी पूछती है – “आंटी, बच्चों की मम्मी कहां है?” राजू की मां बताती है – “बेटी, वो हमारे बेटे और बच्चों को छोड़कर भाग गई है।”

राजू भी सच बता देता है – “ट्रेन में सबके सामने बातें बताई नहीं जाती, इसलिए झूठ बोला था।” राजू की मां कहती है – “बहू की आदतें बिगड़ी थीं, हमेशा झगड़े करती थी, बच्चों को छोड़कर अपने आशिक के साथ भाग गई।”

खुशी यह सब सुनकर हैरान रह जाती है। कहती है – “आंटी, ऐसा नहीं होना चाहिए था। बच्चों की जिंदगी क्यों बर्बाद कर दी?”

नई उम्मीद: बच्चों की देखभाल और रिश्ते की शुरुआत

राजू खुशी से पूछता है – “आप क्या काम करती हो?” खुशी बताती है – “घर में सामान पैक करती हूं, बाहर नहीं जाती।” राजू कहता है – “अगर आप कुछ समय के लिए बच्चों की देखभाल कर दें, तो मैं आपको पैसे दे दूंगा।” खुशी जवाब देती है – “पैसे की कोई बात नहीं, मुझे ये बच्चे बहुत प्यारे लगे, लेकिन पहले आपको मेरे घर चलकर मेरे पिताजी से बात करनी होगी।”

राजू अपने बच्चों और माता-पिता के साथ खुशी के घर जाता है। खुशी के पिताजी बहुत समझदार हैं। वे कहते हैं – “बेटी, नेक काम करने में क्या हर्ज है। जब तक तुम्हारी शादी नहीं होती, बच्चों की देखभाल करो।”

अब खुशी बच्चों का ख्याल रखने लगती है। चार-पांच महीने ऐसे ही बीत जाते हैं। खुशी बच्चों के दादा-दादी का सम्मान करती है, राजू को इज्जत देती है। दोनों एक-दूसरे की भावनाओं को समझते हैं, बिना कहे ही एक-दूसरे की बात समझ जाते हैं।

राजू खुशी के घर टाइल्स-पत्थर लगवा देता है, घर को नया बना देता है। लेकिन पैसे नहीं लेता – “मैं तो आपका कर्जदार हूं, जिंदगी भर नहीं चुका सकता।”

रिश्ते की मंजिल: शादी का प्रस्ताव और नई शुरुआत

नवंबर आ जाता है, खुशी की शादी की चर्चाएं होने लगती हैं। खुशी सोचती है, उदास हो जाती है – “एक दिन इन बच्चों से अलग होना पड़ेगा।” राजू की मां खुशी से कहती है – “बेटी, मेरा राजू बहुत सीधा-साधा है, अच्छा कारोबार है, उम्र भी ठीक है। अगर तुम चाहो तो मेरे बेटे से शादी कर लो।”

खुशी आंटी के गले लगकर रोने लगती है – “मुझे बच्चों और आप लोगों से बहुत प्यार है। जब भी सोचती हूं कि अलग होना है, दिल धक-धक करने लगता है। आप मेरे घर चलकर बात कर लीजिए।”

अगले दिन राजू के माता-पिता खुशी के घर जाते हैं। सब बातें करते हैं। खुशी अपनी भाभी से कहती है – “मुझे इनका परिवार अच्छा लगता है, यही शादी हो जाए तो अच्छा रहेगा।” भाभी अपने सास-ससुर को समझाती है, परिवार मान जाता है।

खुशी के माता-पिता गांव फोन करके कहते हैं – “अब हम अपनी बेटी की शादी मुंबई में ही करना चाहते हैं।” इसके बाद राजू और खुशी की शादी धूमधाम से हो जाती है। बच्चों की खुशी की खातिर दोनों एक हो जाते हैं।

नई जिंदगी: प्यार, जिम्मेदारी और समाज को संदेश

शादी के बाद राजू और खुशी बच्चों की परवरिश में जुट जाते हैं। पारुल और आशु को मां का प्यार मिलता है, परिवार में खुशियां लौट आती हैं। राजू का कारोबार बढ़ता है, खुशी घर संभालती है।

दोनों एक-दूसरे की भावनाओं को समझते हैं, बच्चों के लिए सबकुछ करते हैं। समाज में मिसाल बन जाते हैं – कैसे एक अनजान सफर, दो अजनबी और दो मासूम बच्चों की खातिर एक नया रिश्ता बन सकता है।

निष्कर्ष

कामाख्या एक्सप्रेस का सफर सिर्फ बनारस से मुंबई तक नहीं था, बल्कि दिल से दिल तक का था। राजू, उसके बच्चे और खुशी – तीनों की जिंदगी ट्रेन के एक डिब्बे में जुड़ गई। इंसानियत, ममता, अपनापन और संघर्ष की यह कहानी बताती है कि मुश्किल हालात में भी उम्मीद की किरण मिल सकती है।

अगर आप भी कभी किसी सफर में किसी की मदद कर सकते हैं, तो जरूर करें। हो सकता है, आपकी छोटी सी कोशिश किसी की पूरी जिंदगी बदल दे।

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जय हिंद! जय भारत!