इंसानियत की ठंडक – रमेश की कहानी

दोपहर का वक्त था। दिल्ली की तपती सड़कें पिघले हुए तारकोल जैसी चमक रही थीं। भीड़भाड़ इतनी थी कि हर कोई अपने-अपने काम में मग्न था, जैसे दुनिया में सिर्फ वही है। गाड़ियाँ हॉर्न पर हॉर्न बजा रही थीं, लोग जल्दी में थे। इसी अफरातफरी के बीच एक आदमी सड़क किनारे पड़ा था। उसके सिर से खून बह रहा था, कपड़े फटे थे, साँसें भारी थीं। शायद किसी गाड़ी ने टक्कर मार दी थी। लोग उसकी तरफ देखते, लेकिन बस एक झलक भर। कोई रुकता नहीं। किसी ने मोबाइल निकालकर वीडियो बना लिया, कोई घृणा से देखता, कोई तेज़ कदमों से आगे बढ़ गया। “पता नहीं किस झंझट में पड़ा है,” एक आदमी ने कहा। “शायद शराब पीकर गिरा होगा,” दूसरे ने हँसते हुए अंदाजा लगाया।

वो घायल आदमी अपनी आधी खुली आँखों से जैसे मदद की गुहार कर रहा था, पर आवाज गले में ही अटक गई थी। उसके हाथ बेतहाशा काँप रहे थे, जैसे जिंदगी के अदृश्य धागे को पकड़ने की कोशिश कर रहे हों। गर्म हवा उसके चेहरे को और सूखा रही थी। आसमान में एक चील चक्कर काट रही थी, मानो वक्त गवाह हो रहा हो कि इंसानियत फिर हार गई।

भीड़ से थोड़ी दूर, एक पुराने पुल के नीचे रमेश बैठा था। फटे पुराने कपड़े, धूप-धूल से काला चेहरा, टूटी चप्पलें, हाथ में पीतल का कटोरा – यही उसकी पूरी पूंजी थी। कभी वह पंजाब के एक गाँव का मेहनती किसान था, लेकिन सूखे और कर्ज ने सब छीन लिया। दिल्ली आया, मजदूरी की, हादसों और बीमारियों ने लाचार कर दिया। अब पेट भरने के लिए भीख माँगता था। उस दिन सुबह से सिर्फ ₹1 मिला था, पेट खाली था, आँखें लाल थीं, गला सूखा था। लेकिन चेहरे पर एक शांति थी – मानो उसने हालात से समझौता कर लिया हो। वह अक्सर कहता, “जिंदगी भगवान की दी हुई है, जब तक है जी लेंगे।”

दोपहर को रमेश सड़क पार कर रहा था, तभी उसकी नजर उस घायल आदमी पर पड़ी। एक पल के लिए ठिठक गया। जानता था यहाँ कोई नहीं रुकेगा। लेकिन दिल में किसी ने जोर से दस्तक दी। रमेश धीरे-धीरे घायल के पास पहुँचा, “भाई, सुन रहे हो?” घायल की पलकें हल्की सी हिलीं, होंठ फड़फड़ाए, शायद पानी माँग रहे थे। रमेश ने कटोरे में बचा गंदला सा पानी, जो सुबह मंदिर के बाहर मिला था, बिना सोचे घायल के होठों से लगा दिया। आसपास खड़े लोग देखने लगे, “छोड़ो भाई, पुलिस का चक्कर है।” “तेरा क्या जाएगा?” लेकिन रमेश ने जवाब नहीं दिया। उसने अपने गमछे का टुकड़ा फाड़कर घायल के सिर से बहते खून को रोकने की कोशिश की।

अगर मैं भी चला गया तो यह यहीं मर जाएगा – रमेश ने खुद से कहा। उसकी आँखों में अपने अतीत की तस्वीरें घूमने लगीं – जब उसके पिता खेत में घायल हुए थे और मदद के लिए कोई नहीं रुका था। रमेश ने घायल को उठाने की कोशिश की, लेकिन वजन बहुत था। पसीना टपकने लगा, साँस फूलने लगी, लेकिन हार नहीं मानी। बुदबुदाया – “इंसान इंसान के काम नहीं आएगा तो क्या आएगा?”

आसपास के लोग बस तमाशा देख रहे थे। “क्यों अपनी जान मुसीबत में डाल रहा है?” “तू भिखारी है, तेरे पास पैसा है क्या अस्पताल का?” रमेश को चुभन महसूस हुई, लेकिन अनसुना कर दिया। औकात की बात याद आई – औकात तो उस दिन खत्म हो गई थी जब जमीन बिक गई थी। उसने घायल के सिर को गमछे से कसकर बाँध दिया।

एक नौजवान ने मोबाइल निकालकर वीडियो बनाना शुरू कर दिया, और कुछ ही पल में सात-आठ लोग वही करने लगे – “वाह, कंटेंट मिल गया!” लेकिन रमेश को इन कैमरों से कोई मतलब नहीं था। उसे बस उस घायल की धीमी होती धड़कन महसूस हो रही थी।

“कोई है जो रिक्शा बुला दे?” रमेश ने आवाज लगाई, लेकिन जवाब में बस कंधे उचकाना और मुंह फेर लेना मिला। रमेश जानता था उसके पास पैसे नहीं हैं, फिर भी खुद दौड़कर करीब 50 मीटर आगे एक रिक्शा वाले के पास गया। “भाई, जरा चलो, एक आदमी की जान जा रही है।” रिक्शा वाला पहले राजी हुआ, लेकिन घायल को देखकर बोला, “पुलिस का मामला है, मैं नहीं पड़ूंगा। अस्पताल में तो पहले एडवांस माँगते हैं, तेरे पास है क्या?” रमेश ने जेब में हाथ डाला – ₹1 सिक्के में। “बस इतना है मेरे पास।” रिक्शा वाला हिचकिचाया, फिर सिर हिलाकर आगे बढ़ गया।

रमेश वहीं खड़ा रह गया, गुस्से और बेबसी में काँपते हुए। फिर खुद घायल को कंधे पर उठाने का फैसला किया। पैर कमजोर थे, लेकिन हौसला मजबूत। एक-एक कदम बढ़ाते हुए सड़क पार की। गाड़ियों के हॉर्न बज रहे थे, लेकिन रमेश को अब दुनिया की आवाज सुनाई नहीं दे रही थी। करीब 15 मिनट बाद वह एक पुराने मेडिकल स्टोर तक पहुँचा। वहाँ एक बुजुर्ग दवाई वाले बैठे थे। “बाबूजी, थोड़ा पट्टी और पानी दे दीजिए, यह आदमी मर जाएगा।” दवाई वाले ने शक की नजरों से देखा, फिर गॉज और एंटीसेप्टिक निकाला – “ले बेटा, जितना कर सकता है कर दे।” रमेश ने घायल के घाव को साफ किया, पट्टी बाँधी, पानी के छींटे मारे।

अब अस्पताल ले जा – दवाई वाले ने कहा। लेकिन अभी भी कोई वाहन नहीं था। तभी सड़क के दूसरी तरफ एक हाथगाड़ी वाला खड़ा था। रमेश दौड़ा, मदद माँगी। हाथगाड़ी वाले ने कुछ पल सोचा, फिर बोला – “बैठा दे, लेकिन जल्दी कर, मेरा भी काम है।” रमेश की आँखों में उम्मीद की किरण चमकी। हाथगाड़ी पर लादकर रमेश और गाड़ी वाला तेजी से अस्पताल की तरफ बढ़े। धूप तेज थी, पसीना बह रहा था। लोग अब भी अजीब नजरों से देख रहे थे – कोई दया से, कोई तिरस्कार से, कोई तमाशे की तरह।

आधे घंटे बाद वे सरकारी अस्पताल पहुँचे। रमेश ने रिसेप्शन पर जाकर चिल्लाया – “इमरजेंसी! यह मर जाएगा, जल्दी करो!” ड्यूटी पर मौजूद नर्स पहले कागजी काम में उलझी रही, लेकिन रमेश की आवाज में कुछ था कि उसने तुरंत स्ट्रेचर मंगवाया। डॉक्टर ने घायल की नब्ज़ देखी, तुरंत ऑपरेशन थिएटर में भेज दिया।

रमेश वहीं कुर्सी पर बैठ गया। गला सूख चुका था, शरीर थककर चूर था, लेकिन चेहरे पर राहत थी – उसने जो कर सकता था, कर दिया था। ऑपरेशन थिएटर के बाहर दीवार के सहारे आँखें मूंदे बैठा रहा। करीब आधे घंटे बाद डॉक्टर बाहर आए, “तुम कौन हो, रिश्तेदार?” रमेश ने सिर हिलाया, “नहीं, बस सड़क पर मिला था। कोई रुक नहीं रहा था, मैं ले आया।” डॉक्टर ने उसकी तरफ देखा, फिर बोले, “अगर तुम 5 मिनट और देर कर देते, तो यह आदमी बचता नहीं।”

रमेश के दिल में एक गर्माहट फैल गई। डॉक्टर के जाने के बाद रमेश की आँखें अतीत में लौट गईं – पिता के खेत में गिरने का दृश्य याद आया, जब कोई मदद को नहीं आया था। शायद उसी दिन उसके भीतर यह बीज बो दिया गया था कि अगर कभी मौका मिला, तो वह मदद करने से पीछे नहीं हटेगा।

दूसरे दिन अस्पताल के नोटिस बोर्ड पर एक फोटो लगी थी – गुमशुदा व्यक्ति की तलाश। रमेश ने देखा, वही आदमी था जिसे सड़क से उठाया था – नाम अर्जुन मेहता। रिसेप्शन पर अखबार पड़ा था – प्रसिद्ध उद्योगपति विक्रम मेहता का बेटा अर्जुन। तीसरे दिन अस्पताल में पत्रकारों की भीड़ उमड़ पड़ी – “भिखारी ने उद्योगपति के बेटे की जान बचाई!” रमेश से सवाल – “कैसा लगा? क्यों मदद की? इनाम चाहिए?” रमेश ने बस इतना कहा, “मैंने इंसानियत का काम किया है, सौदेबाजी नहीं।”

टीवी चैनलों पर उसका जवाब बार-बार चला, सोशल मीडिया पर तारीफें होने लगीं। चौथे दिन अर्जुन के पिता विक्रम मेहता अस्पताल पहुँचे, रमेश को देखा – दुबला, फटे कपड़े, थकी आँखें। विक्रम की आँखें भर आईं, “तुमने मेरा बेटा बचाया है, मैं जिंदगी भर एहसान मानूंगा।” रमेश ने मुस्कुराकर कहा, “मैंने सिर्फ वो किया जो इंसान को करना चाहिए। अगर मेरी जगह आप होते, तो शायद आप भी यही करते।”

अर्जुन धीरे-धीरे ठीक हो रहा था। एक दिन उसने रमेश का हाथ पकड़कर कहा, “अगर आप नहीं होते, तो मैं आज जिंदा नहीं होता। आपने मेरी जिंदगी ही नहीं, मेरा नजरिया भी बदल दिया है।” विक्रम मेहता ने उसी समय घोषणा की – “आज से रमेश हमारे परिवार का हिस्सा है।”

कुछ ही हफ्तों में रमेश की जिंदगी बदल गई। उसे घर मिला, नौकरी मिली – कंपनी में सुरक्षा अधिकारी की। रमेश अब सड़कों पर भीख नहीं माँगता था, रोज साफ कपड़े पहनकर काम पर जाता। लेकिन उसने अपनी जड़ें नहीं भुलाईं – हर महीने कमाई का हिस्सा जरूरतमंदों को देता। “मैंने भूख देखी है, कोई भूखा रहे यह मुझसे नहीं होगा,” वह कहता।

एक साल बाद उसी सड़क पर फिर एक हादसा हुआ। इस बार दर्जनों लोग दौड़कर मदद करने पहुँचे – क्योंकि उन्होंने रमेश की कहानी सुनी थी। रमेश भी वहाँ खड़ा था, दूर से मुस्कुराता हुआ। उसे लगा उसकी छोटी सी कोशिश ने शहर की सोच में एक बीज बो दिया है। उसने आसमान की तरफ देखा और कहा, “भगवान, मैंने अपना वादा निभा दिया।” उस दिन धूप में भी एक ठंडक थी – इंसानियत की ठंडक।