“अम्मी हमें भूख लगी है… दो यतीम बच्चियों की ऐसी पुकार जिसने आसमान तक को रुला दिया”

धूप से तपता हुआ आसमान, गांव के ऊपर तैरती हुई गर्म हवा और मिट्टी की गलियों में फैलता हुआ सन्नाटा। उस सन्नाटे को तोड़ती थीं सिर्फ दो नन्हीं बच्चियों की थकी हुई चालें — फातिमा और अस्मा। दोनों के सिर पर पानी की बाल्टियाँ, शरीर पर मिट्टी की धूल और आंखों में वही थकान जो उम्र से कहीं ज़्यादा भारी लगती थी।

सिर्फ पांच साल की उम्र, मगर वक्त ने इन्हें बहुत जल्दी बड़ा कर दिया था। माँ एक महीने पहले ही दुनिया छोड़ गई थी, और बाप का साया भी मिट्टी में मिल चुका था। अब दोनों चाची के घर थीं — एक ऐसी औरत के पास जिसके दिल में रहम नाम की कोई चीज़ नहीं थी।

घर पहुँचते ही चाची की आवाज़ गूंजी —
“कहाँ मर गई थीं दोनों? जाओ पहले काम खत्म करो, खाना बाद में मिलेगा!”

फातिमा बोली, “चाची, काम हो गया… बस भूख लगी है।”
उसके जवाब पर चाची की आंखों में आग भर गई, “भूख तो हर वक्त लगती है तुम्हें! पहले कपड़े धो, फिर खाना मिलेगा।”

थके हुए जिस्म, कांपते हुए हाथ, मगर चुप्पी अब भी बरकरार। दोनों बच्चियां बिना कुछ बोले आँगन में बैठकर कपड़े धोने लगीं। सूरज ढलने को था, और उनकी मासूमियत एक-एक दिन जलती जा रही थी।

रात को अस्मा ने धीमी आवाज़ में कहा, “फातिमा, अम्मी बहुत याद आ रही है… चलो उनकी कब्र पर चलते हैं।”

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फातिमा ने डरते हुए कहा, “अगर चाची ने देखा तो मार डालेगी।”
मगर अस्मा की आँखों में जो तड़प थी, उसके आगे फातिमा कुछ बोल न सकी।

दोनों चुपचाप कब्रिस्तान की ओर निकल पड़ीं। रास्ते में उन्हें ज़मीन पर दो सूखी रोटियाँ मिलीं। दोनों ने झुककर उन्हें उठा लिया — क्योंकि भूख ने अब शर्म की हदें पार कर दी थीं।

कब्र के पास पहुँचकर फातिमा ने कांपती आवाज़ में कहा,
“अम्मी… वापस आ जाइए… हमें भूख लगी है… चाची बहुत मारती है।”
उनकी आवाज़ इतनी मासूम और दर्दभरी थी कि लगता था खुद मिट्टी भी रो पड़ी हो। हवा थम गई, सूरज ढल गया, और दो नन्हीं ज़िंदगियाँ उस कब्र के सिरहाने बैठे रह गईं, जैसे ज़मीन से लिपटकर अपनी मां की गोद तलाश रही हों।


अगले दिन अस्मा की तबियत अचानक बिगड़ गई। उसे तेज़ बुखार और खांसी थी। फातिमा दौड़कर चाची के पास गई —
“चाची, अस्मा बहुत बीमार है, उसे डॉक्टर के पास ले चलें।”
चाची ने ताने भरे लहजे में कहा, “तुम्हारे पास पैसे हैं? खुद ही ठीक हो जाएगी।”

फातिमा का दिल टूट गया। उसने बहन के पास जाकर उसका सिर सहलाया, मगर आधी रात को अस्मा की सांसें थम गईं। फातिमा की चीखों ने घर को हिला दिया। मगर चाची के चेहरे पर कोई फर्क नहीं पड़ा — जैसे किसी पत्थर से बात कर रही हो।

अब फातिमा अकेली थी। ना मां, ना बहन, सिर्फ यादें और ज़ुल्म।


वक़्त बीतता गया। फातिमा जवान हुई। उसके नैन-नक्श अपनी मां की तरह खूबसूरत थे। मगर चाची और उसकी बेटी नजमा के लिए यही खूबसूरती सबसे बड़ा अपराध थी।
जब कोई रिश्ता घर आता, तो मेहमानों की नज़र हमेशा फातिमा पर ठहर जाती।

एक दिन जब एक अच्छे घर का रिश्ता आया, तो चाची ने फातिमा को कमरे में बंद कर दिया। मगर किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था।

जब नजमा चाय ले जा रही थी, उसका हाथ जल गया और वो चीख पड़ी, “फातिमा! आकर साफ करो!”
फातिमा दौड़ी चली आई। जैसे ही उसने झुकर कप उठाया, मेहमानों की नज़र उस पर पड़ी और सब दंग रह गए।
इतनी सादगी, इतनी खूबसूरती — कि कमरा जैसे ठहर गया हो।

“ये लड़की कौन है?” लड़के की मां ने पूछा।
चाची झूठ बोल पड़ी — “ये हमारे घर की नौकरानी है।”

मेहमान तो चले गए, मगर उस रात चाची का गुस्सा फट पड़ा।
उसने फातिमा को थप्पड़ मारा और चीख़ी —
“मना किया था ना कि सामने मत आना! अब भुगतो!”

फातिमा की आंखों से आंसू गिरते रहे। मगर उसने कुछ नहीं कहा। वो जानती थी, अब उसके हर आंसू का हिसाब खुदा ही लेगा।


कुछ दिनों बाद चाची ने शैतानी साज़िश रच डाली।
एक दिन उसने कहा, “फातिमा, कुएं से पानी भर ला।”

फातिमा बाल्टी लेकर निकली ही थी कि पीछे से किसी ने उसके मुंह पर रुमाल रख दिया।
सब कुछ अंधेरा हो गया।

जब होश आया, तो वो खुद को एक अजनबी कमरे में पाई। हाथ बंधे हुए थे। डर से कांपते हुए उसने रस्सियाँ खोलीं और दरवाज़े की तरफ दौड़ी। बाहर जंगल था। वो भागती रही… कांटे पैरों में चुभते रहे… और फिर अचानक किसी से टकराई — एक नौजवान से।

नौजवान ने उसे संभाला, “आप डरिए मत, अब आप सुरक्षित हैं। मैंने उस आदमी को भागते देखा जो आपको अगवा कर रहा था।”

फातिमा की आंखों में डर था, मगर उस आवाज़ में यकीन।
उस नौजवान का नाम था शहरोज — एक नेकदिल इंसान जिसने फातिमा को अस्पताल पहुँचाया।

फातिमा ने रोते हुए सब कुछ बताया — चाची की साज़िश, बहन की मौत, और अपने अकेलेपन की कहानी।
शहरोज के दिल में उसके लिए इज्ज़त और रहम दोनों उमड़ आए। उसने कहा,
“आप मेरे घर चलिए। वहां कई काम करने वाली औरतें हैं, आप सुरक्षित रहेंगी।”


समय बीतता गया। हवेली में रहते हुए शहरोज को एहसास हुआ कि फातिमा सिर्फ खूबसूरत ही नहीं, बल्कि बहुत नेकदिल भी है।
धीरे-धीरे उसे उससे मोहब्बत हो गई।

एक दिन उसने कहा,
“फातिमा, मैं तुमसे निकाह करना चाहता हूं। मैं तुम्हारे अतीत को नहीं, तुम्हारे सब्र को चाहता हूं।”

फातिमा की आंखों से आंसू गिर पड़े। बरसों का दर्द जैसे एक पल में पिघल गया।
और यूं — फातिमा का निकाह शहरोज से हो गया।

वो हवेली की मलिका बन गई। अल्लाह ने उसे एक बेटे से नवाज़ा।
अब वही फातिमा, जो कभी भूखी पेट रोटियाँ ढूंढती थी, आज दूसरों को खिलाती थी।


उधर चाची और नजमा की जिंदगी बर्बाद हो चुकी थी।
नजमा को तलाक मिल गया, और वो गुस्से में अपनी मां को कोसती रही।
एक दिन उसे तेज बुखार हुआ — और उसी बुखार ने उसकी जान ले ली।

चाची पर ग़म का पहाड़ टूट पड़ा। उसे वही मंजर याद आने लगा जब अस्मा बुखार में तड़प रही थी और उसने मदद करने से इंकार किया था।
अब वही दर्द उसके घर में उतर आया था।

कुछ महीनों बाद चाची को फालिज का दौरा पड़ा। वो बिस्तर पर पड़ गई — लाचार और अकेली।

एक दिन फातिमा अपने बेटे के साथ उसके घर पहुँची।
चाची ने उसे देखा और फूट-फूट कर रोने लगी।
“मुझे माफ कर दो फातिमा… मैं गुनहगार हूं… तुम्हारी बहन की कातिल हूं…”

फातिमा ने उसके कांपते हाथ थामे और कहा,
“चाची, मैं आपको माफ करती हूं… क्योंकि अल्लाह भी माफ करने वालों को पसंद करता है।”

चाची ने सुकून की सांस ली — और अगले ही पल उसकी रूह उड़ गई।
फातिमा की आंखों से आंसू गिरते रहे, मगर दिल में एक सुकून था —
कि आखिरकार इंसाफ हो गया।