मजदूर ने खुदाई में मिला सोना लौटाया, फिर किस्मत ने उसे वो दिया जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता
विजय की ईमानदारी और उम्मीद की कहानी
लखनऊ की हलचल भरी सड़कों पर, जहाँ हर कोने से कबाब की खुशबू और रिक्शों की घंटियां गूंजती थीं, वहाँ एक मेहनती मजदूर अपनी पसीने की कमाई से जिंदगी के पहिए चलाता था। उसका नाम था विजय। उसके हाथों में फावड़ा था, जो मिट्टी से खेलता, और चेहरे पर मेहनत की गहरी लकीरें थीं। हर दिन सुबह से शाम तक सड़कों पर काम करता विजय, अपने परिवार के लिए एक बेहतर जीवन का सपना संजोए था। उसका सबसे बड़ा सपना था कि वह अपनी छोटी बेटी रिया को अच्छे स्कूल भेज सके और अपनी बूढ़ी मां शकुंतला को एक पक्का घर दे सके।
एक धूल भरी जून की दोपहर, जब विजय अपनी टीम के साथ हजरतगंज की एक पुरानी सड़क की मरम्मत कर रहा था, तभी फावड़े की चोट से जमीन में कुछ टकराया। उसने ध्यान से देखा तो मिट्टी के नीचे एक छोटी सी कपड़े में लिपटी पोटली मिली। पोटली खोलने पर वह हैरान रह गया—एक चमकदार सोने का हार था, जिसमें बीच में एक बड़ा नीलम जड़ा हुआ था। उसकी चमक ऐसी थी जैसे सूरज का एक टुकड़ा धरती पर गिर गया हो।
विजय का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। हार की कीमत उसकी पूरी जिंदगी की कमाई से भी ज्यादा थी। वह सोचने लगा, “इसे बेचकर मैं अपनी बेटी को अच्छे स्कूल में भेज सकता हूँ, मां के लिए एक पक्का घर बना सकता हूँ।” मगर तभी उसकी नजर फावड़े पर पड़ी, जिस पर रिया ने अपने नन्हे हाथों से “पापा” लिखा था। विजय ने ममता, अपनी दिवंगत पत्नी की आवाज़ अपने कानों में सुनी, जो हमेशा कहती थी, “ईमानदारी से बड़ा कोई धन नहीं।”
उसने हार को फिर से कपड़े में बांधा और अपने जेब में रख लिया। विजय का मन साफ था—वह हार उसके नहीं था, इसे मालिक तक लौटाना उसका फर्ज था।
शाम को काम खत्म होने के बाद, विजय पास के पुलिस थाने गया। उसने थानेदार को हार सौंपते हुए कहा, “साहब, यह मुझे सड़क पर मिला है। इसका मालिक जरूर इसे ढूंढ रहा होगा।” थानेदार ने उसकी ईमानदारी की तारीफ की और कहा कि वे हार का मालिक खोजने की कोशिश करेंगे।
विजय घर लौटा, मां और रिया को पूरी बात बताई। उसकी मां शकुंतला ने उसका माथा चूमते हुए कहा, “बेटा, तूमने जो किया वो किसी साधारण इंसान से नहीं हो पाता।” रिया ने मासूमियत से पूछा, “पापा, वो हार इतना चमकदार था, उसे रख लेते तो मुझे नई किताबें मिल जातीं न?” विजय ने उसे गोद में उठाते हुए कहा, “बेटा, जो हमारा नहीं, वो हमारा कभी नहीं हो सकता। लेकिन ईमानदारी का इनाम जरूर मिलता है।”
अगली सुबह, काम पर लौटे विजय के पास अचानक एक काली गाड़ी रुकी। उसमें से एक औरत उतरी, जिसकी उम्र करीब 50 साल थी। उसकी साड़ी सादी थी, मगर उसकी आंखों में गहरा दर्द था। वह खुद को सुधा मेहता के नाम से परिचित कराई। उसने कहा, “विजय, वो हार मेरा था। तुमने उसे लौटाकर मुझ पर बड़ा उपकार किया है।”
विजय ने नम आंखों से जवाब दिया, “मैडम, मैंने सिर्फ अपना फर्ज निभाया।” सुधा ने बताया कि वह हार उसकी मां की आखिरी निशानी थी, जिसे सालों से संभाल कर रखा गया था। कुछ दिन पहले जब वह हजरतगंज से गुजर रही थी, उसका थैला गिर गया और हार खो गया। अगर विजय जैसे इंसान न मिले होते तो वह अपनी मां को हमेशा के लिए खो देती।
थानेदार ने कहा, “ऐसे लोग बहुत कम मिलते हैं जो बिना लोभ के अपने फर्ज निभाते हैं।” सुधा ने विजय को धन्यवाद दिया और उसे अपने घर आने का न्योता दिया। उसने कहा, “मैं तुम्हारी बेटी रिया को अपने स्कूल में पढ़ाना चाहती हूँ। मैं उसकी पढ़ाई का पूरा खर्च उठाऊंगी। साथ ही, मेरे बगीचे और घर की देखभाल के लिए मुझे एक भरोसेमंद आदमी चाहिए। क्या तुम वह काम करोगे?”
विजय की आंखें नम हो गईं। उसने हाथ जोड़कर कहा, “मैडम, मैं आपकी जिंदगी भर कृतज्ञ रहूंगा।”
विजय ने मां और रिया को पूरी बात बताई। रिया खुश होकर बोली, “पापा अब मैं स्कूल जाऊंगी!” शकुंतला ने कहा, “बेटा, तुम्हारी ईमानदारी ने हमें ये सब दिया है।”
कुछ समय बाद, सुधा ने विजय को एक पुरानी हवेली में बुलाया। वहाँ उसकी मां कमलावती व्हीलचेयर पर थीं। कमलावती ने विजय को बताया कि हार सिर्फ गहना नहीं, उनकी मेहनत, प्यार और संघर्ष की कहानी थी। उन्होंने बताया कि वह एक मजदूर की बेटी थीं, जिन्होंने अपने पति से शादी की थी, जो बाद में छोड़ गया। हार शादी का तोहफा था और उनकी मेहनत की निशानी।
कमलावती ने विजय से कहा, “तुमने सिर्फ हार नहीं लौटाया, मेरी बेटी को सुकून दिया। मैं तुम्हें एक जमीन दूंगी, जिस पर तुम अपना घर बनाओ।”
विजय भावुक हो उठा, उसने उनके पैर छूते हुए कहा, “मैं आपका एहसान कभी नहीं भूलूंगा।”
सुधा ने भी कहा, “विजय, मेरे स्कूल में बच्चों को मेहनत और ईमानदारी की कहानियां सुनाने के लिए एक शिक्षक चाहिए। क्या तुम वह काम करोगे?” विजय ने खुशी से हाँ कहा।
विजय अब सुधा के बगीचे की देखभाल करता, रिया सुधा के स्कूल में पढ़ती, और मां की दवाइयों पर उसका खर्च चलता। हर रविवार वह स्कूल में जाकर बच्चों को अपनी कहानी सुनाता कि कैसे एक मजदूर ने अपनी ईमानदारी से ना सिर्फ एक गुमशुदा हार लौटाया बल्कि एक टूटे हुए परिवार को जोड़ा और अपनी बेटी के लिए नया भविष्य बनाया।
एक दिन, स्कूल में विजय के पास एक बूढ़ा आदमी आया। उसने कहा, “तुम वही विजय हो जिसने हार लौटाया था। मैं सुधा का पिता हूँ। सालों पहले मैंने अपनी पत्नी और बेटी को छोड़ दिया था, लेकिन तुम्हारी ईमानदारी ने मुझे शर्मिंदा कर दिया। मैं अपनी बेटी से माफी मांगने आया हूँ।”
सुधा ने अपने पिता को गले लगाया और उस दिन हवेली में एक टूटा हुआ परिवार फिर से जुड़ गया। कमलावती ने अपने पति को माफ कर दिया और विजय की ईमानदारी ने एक नई शुरुआत की नींव रखी।
यह कहानी हमें सिखाती है कि ईमानदारी सबसे बड़ा धन है और मेहनत से बढ़कर कोई चीज़ नहीं होती। विजय की कहानी उम्मीद और बदलाव की मिसाल है, जो हमारी ज़िंदगी को प्रेरित करती है।
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