पाकिस्तानी बच्ची सायरा और कैप्टन अरुण की इंसानियत भरी कहानी

दोपहर की तपती धूप में पाकिस्तान की एक छोटी बच्ची, सायरा, भेड़ें चराते-चराते अनजाने में भारत की सरहद पर पहुंच गई। सीमा पर तैनात भारतीय जवानों ने उसे देखा तो तुरंत सतर्क हो गए। किसी ने कहा, “आगे बढ़ी तो गोली चल सकती है!” दूसरे ने कहा, “यह तो पाकिस्तान की है, पकड़ लो और थाने ले चलो।” बच्ची डर के मारे वहीं सिमट गई। उसकी मासूम आंखों में डर और बेबसी थी।

एक जवान ने विरोध किया, “तुम्हें शर्म नहीं आती? एक छोटी बच्ची को अपराधी की नजर से देख रहे हो।” लेकिन बाकी जवानों ने उसकी बात नहीं मानी। बच्ची की छोटी सी कलाई सख्त हथेलियों में जकड़ी हुई थी, वह रोती रही, “मैं रास्ता भटक गई। मेरी अम्मी मेरा इंतजार कर रही होंगी।” लेकिन जवानों ने उसे चौकी ले जाने का आदेश दिया।

चौकी पर कैप्टन अरुण सिंह ने यह सब देखा। अनुशासन और सख्ती उनका दूसरा नाम था, लेकिन दिल में एक अनकही पीड़ा भी थी। उन्होंने गुस्से में जवानों को डांटा, “शर्म नहीं आती? यह मासूम बच्ची है, इसमें तुम्हें आतंकवादी दिख रहा है?” अरुण बच्ची के पास गए, आवाज नरम की, “बेटा डर मत, बताओ कैसे आई?” सायरा ने कांपती आवाज में बताया, “मेरा नाम सायरा है, मैं पाकिस्तान के गांव धनक से आई हूं। भेड़े चराते-चराते रास्ता भटक गई।”

अरुण ने उसकी आंखों में झांका, वहां डर था, लेकिन झूठ नहीं। उन्होंने आदेश दिया, “इसे कोई चोट नहीं पहुंचेगी, आराम करने दो, पानी दो।” जवानों ने उसकी देखभाल शुरू की, लेकिन शक अब भी बाकी था। बाहर जवानों की चर्चा थी—क्या पता बच्ची सच बोल रही है या कोई चाल है? अरुण के मन में भी युद्ध चल रहा था—कर्तव्य और इंसानियत का।

सायरा की अम्मी बीमार थी, घर में गरीबी थी। उसका पिता मजदूरी करता और सायरा भेड़ों के सहारे घर चलाने का सपना देखती थी। चौकी पर उसे खाना दिया गया, तो वह डरते-डरते रोटी खाने लगी, आंखों से आंसू बहते रहे।

रात को सायरा सोने की कोशिश कर रही थी, लेकिन अम्मी की याद में उसकी नींद उड़ गई। अरुण भी अपनी बहन मीरा को याद कर रहे थे, जो बचपन में इसी सरहद पर खेलते-खेलते पाकिस्तान चली गई थी और कभी वापस नहीं लौटी। अरुण की आंखों में दर्द था, सायरा में उन्हें अपनी खोई बहन की छवि दिख रही थी।

अगली सुबह जवानों ने सायरा को बिस्कुट दिए, धीरे-धीरे उसके चेहरे पर मुस्कान आई। अरुण ने उससे पूछा, “क्या देख रही हो?” सायरा बोली, “वो सूरज… अम्मी कहती थी जब सूरज उगता है तो अल्लाह नई उम्मीद भेजता है।” अरुण का दिल पिघल गया।

फिर मुख्यालय से आदेश आया—बच्ची को इंटेरोगेशन यूनिट के हवाले करो। बड़े अफसर ने कहा, “यह जासूसी हो सकती है।” अरुण ने विरोध किया, “सर, यह बच्ची है, इंसानियत से देखना चाहिए।” अफसर बोले, “सरहद पर दया कमजोरी होती है।” अरुण की आत्मा इंसानियत की ओर झुक रही थी। बाहर सायरा रो रही थी, “मुझे अम्मी के पास भेज दो।”

आखिरकार, अफसर ने अरुण को बच्ची को पाकिस्तान सेना के हवाले करने का आदेश दिया। अरुण ने कहा, “मैं फौजी हूं, लेकिन इंसान भी हूं। यह बच्ची कोई दुश्मन नहीं है, सिर्फ अपनी मां की गोद में लौटना चाहती है। अगर इसे वापस भेजने से खतरा है तो मैं जिम्मेदारी लेने को तैयार हूं।”

शाम को अरुण ने सायरा का हाथ थामा, तारों के पास पहुंचे, औपचारिक बातें हुईं। सायरा की आंखों में चमक थी। जैसे ही उसने पाकिस्तान की जमीन पर कदम रखा, उसकी मां दौड़ती हुई आई, उसे गले लगा लिया। वहां खड़े जवानों की आंखें भी भीग गईं। जाते-जाते सायरा ने अरुण को देखा और बोली, “अल्लाह आपको खुश रखे, अंकल। आप मेरी जान बचाने वाले फरिश्ता हो।”

अरुण ने सलाम ठोका और सिर झुका लिया। उस दिन अरुण ने समझा कि सरहदें देशों को बांट सकती हैं, लेकिन इंसानियत दिलों को जोड़ देती है। कभी-कभी एक मासूम की मुस्कान जीत होती है और बंदूकें हार जाती हैं।