“सब्ज़ी मंडी का असली दाता”

सर्दियों की सुनहरी सुबह थी। शहर की सबसे बड़ी सब्ज़ी मंडी में भीड़ उमड़ी हुई थी। सब तरफ़ दुकानदारों की पुकार, खरीदारों की आवाज़, और ठेलों का शोर था। इसी भीड़ में एक 75 साल का बुजुर्ग, झुकी कमर, सफेद बिखरे बाल और फटी-पुरानी कपड़ों में, भारी थैला लेकर धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था।

कई लोगों ने उसकी हालात देखकर ताने मारे — “ये भिखारी मंडी में क्यों आया?”, “देखो, कपड़े तो देखो इसके!”, “लगता है भीख ही मांगेगा।” अचानक भीड़ में धक्का लगा और वह बुजुर्ग गिर पड़ा, थैला फट गया और उसकी सारी सब्ज़ियां कीचड़ में बिखर गईं। लोग हँसने लगे, ताने कसने लगे — किसी ने मदद को हाथ नहीं बढ़ाया।

बस, भीड़ में से एक 11-12 साल का मासूम बच्चा आगे आया, झुका, सब्ज़ियां उठाने में बुजुर्ग की मदद करने लगा। “दादाजी, घबराइए मत। मैं हूँ न!” उसने सच्चे मन से कहा। बुजुर्ग की आंखों में पानी आ गया। वो फुसफुसाए — “रहने दो बेटा, मैं संभाल लूंगा…”

आवाज़ों के बीच बुजुर्ग रुके, गहरी सांस ली और बोले — “मैं हूं रघुनाथ प्रसाद।” मंडी में सन्नाटा छा गया। जिनकी हंसी गूंज रही थी, वहां शर्म और पश्चाताप उतर आया। एक दुकानदार धड़कते दिल से बोला — “क…क्या आप वही हैं, जिन्होंने बरसों पहले ये जमीन मंडी के लिए दान दी थी?”

लोगों को अहसास हुआ — यही तो हैं वो शख्स, जिनकी बदौलत मंडी, रोजी-रोटी और आजीविका सब कुछ है। जिनकी असल में हर दुकानदार कर्जदार था, आज वो उनका मज़ाक बना रहे थे।

बच्चा मासूमियत से बुला — “दादाजी, आपने इतना सब दिया, फिर आप आज इतने अकेले और बेसहारा क्यों हैं?” रघुनाथ प्रसाद ने मुस्कुराकर जवाब दिया, “बेटा, इंसान को इंसान उसकी सोच और कर्म से पहचानो, कपड़ों या हालात से नहीं। मैंने बस चाहा था कि कोई भूखा न रहे, अपना कर्तव्य निभाया, यही मेरी पूंजी है।”

बाजार के दुकानदार, ग्राहक, सब झुक गए। किसी ने पैरों पर गिर कर माफ़ी मांगी, किसी ने आश्चर्य में आंखों से आंसू पोछे। रघुनाथ बाबू बोले, “गलती कपड़ों से नहीं, नजरों से होती है। इज्जत कभी धन से नहीं, इंसानियत से मिलती है।”

उनका जीवन एक सीख बनकर मंडी में गूंजने लगा — कि जो दूसरों को ऊपर उठाने के लिए खुद नीचे झुक जाता है, वही इंसान सच्चा दाता और पूजनीय होता है।