जिस मां को बेटा बहू ने नौकर समझा… वही निकली रेस्टोरेंट की मालकिन
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अध्याय 1: सुधा जी का संघर्ष
उत्तर प्रदेश के प्रयागराज की गलियों में एक छोटा सा घर था, जिसमें सुधा जी अपने बेटे विकास के साथ रहती थीं। पति की मृत्यु के बाद घर की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई थी।
सुधा जी ने स्कूल में आया की नौकरी कर ली। सुबह-सुबह स्कूल जातीं, बच्चों की क्लास सजातीं, झाड़ू-पोछा करतीं, बर्तन मांझतीं।
तनख्वाह बहुत कम थी, लेकिन उसी से घर का खर्च चलता था।
बेटे को पढ़ाया, उसकी हर जरूरत पूरी की।
सर्दी-गर्मी, बीमारी-तंगी—हर हालात में सुधा जी ने बेटे को कभी कमी महसूस नहीं होने दी।
विकास पढ़ाई में अच्छा था, मां के सपनों की वजह से उसने कॉलेज भी कर लिया।
अध्याय 2: घर में नई बहू
समय बीता।
विकास की शादी पूनम से हुई।
सुधा जी ने सोचा, अब घर में रौनक लौटेगी।
बहू आएगी, अकेलापन खत्म होगा, बुढ़ापे में सहारा मिलेगा।
शादी के बाद कुछ दिन तो सब ठीक रहा।
लेकिन धीरे-धीरे पूनम का व्यवहार बदलने लगा।
वह सुधा जी को कभी मां की तरह अपनाती नहीं थी।
खाने-पीने पर रोक लगाती,
कभी कहती—“बिजली का बिल ज्यादा आता है, पंखा मत चलाओ।”
कभी ताने देती—“तुम हमारे रहम पर जी रही हो।”
सुधा जी सब सहती रहीं, सोचती रहीं—बेटा बहू जवान हैं, उनका गुस्सा है, एक दिन सब ठीक हो जाएगा।
अध्याय 3: अपमान की हद
एक रात सुधा जी बेटे के कमरे में सो गईं।
विकास गुस्से से चिल्लाया—“मां, कितनी बार कहा है बच्चों के कमरे में मत सोया करो। जब भी तुम कमरे में आती हो तो बदबू फैल जाती है। कहीं बच्चा बीमार न पड़ जाए। सीढ़ियों के नीचे जगह है, वही जाकर सोया करो।”
सुधा जी का दिल रो पड़ा।
आंखों से आंसू बह निकले।
तभी पूनम की आवाज आई—“सुनिए जी, मैं तो पार्टी में थक गई हूं, आज कोई काम नहीं करूंगी। बुढ़िया से बोल दीजिए, सारा काम वही करेगी।”

विकास ने बिना सोचे मां से कहा—“मां बहुत थकी है, तुम जाकर उसके पैरों में तेल लगाकर मालिश करो।”
सुधा जी का सीना दर्द से छलनी हो गया।
कांपती आवाज में बोली—“बेटा, बचपन में जब तू बीमार पड़ता था, मैंने कभी तुझे खुद से दूर नहीं किया। आज मेरी खांसी से तुझे बदबू आती है? यही तेरी पढ़ाई है जिसने तुझे मां का दर्द भूलना सिखा दिया?”
लेकिन विकास पर मां की बातों का कोई असर नहीं हुआ।
अध्याय 4: मां का दर्द
सुधा जी रोती-रोती अपने कमरे में चली गईं।
उस रात उन्होंने मन ही मन कहा—“क्या इसी दिन के लिए मैंने अपनी सारी जिंदगी कुर्बान कर दी थी? मां बनने का यही अंजाम होता है?”
दिन बीतते गए, लेकिन सुधा जी के लिए हालात हर रोज और कठिन होते चले गए।
खटिया पर सोने से कमर का दर्द बढ़ता गया।
एक दिन घर में पार्टी थी—बेटे और बहू की शादी की सालगिरह।
पूरा घर रोशनी से सजाया जा रहा था, रंग-बिरंगे पर्दे, मेहमानों के लिए पंखे।
इसी बीच दो आदमी आए और सुधा जी के कमरे से पंखा खोलने लगे।
सुधा जी हड़बड़ाकर उठ बैठीं—“बेटा, यह पंखा क्यों खोल रहे हो? इस गर्मी में मैं कैसे रहूंगी? पहले मेरा कमरा छीन लिया, अब पंखा भी ले जा रहे हो। मेरी कमर का दर्द दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है, थोड़ी हवा मिलेगी तो चैन आएगा।”
पूनम तिरछी नजर से बोली—“ए बुढ़िया, तुझे जो छत और तीन वक्त की रोटी मिलती है, उसी का शुक्र मना, पंखा चाहिए महारानी को! पता भी है कितना बिजली का बिल आता है? दिन भर पड़ी रहती हो, चरने के अलावा और काम ही क्या है तेरे पास?”
सुधा जी की आंखें भर आईं, लेकिन वह चुपचाप अपनी खटिया पर बैठ गईं।
अध्याय 5: रसोई की कैद
रसोई में हलवाई तैयारी कर रहा था।
उसका सहायक बीमार पड़ गया।
हलवाई बोला—“मैडम, मुझे एक और मददगार चाहिए, सब्जियां काटने, पूरिया बेलने और बर्तन मांझने वाला चाहिए, नहीं तो काम में देर हो जाएगी।”
पूनम मुस्कुराते हुए बोली—“चिंता मत करो, मेरे पास एक सहायक है, वो सब कर देगी।”
थोड़ी ही देर बाद उसने सुधा जी को आवाज दी और उन्हें रसोई में ले आई।
हलवाई ने दया भरी नजरों से देखा—“अम्मा जी, आप इस उम्र में इतना काम कैसे करेंगी?”
सुधा जी बोलीं—“बेटा, जब किस्मत ही खराब हो तो उम्र को भी झुकना पड़ता है। बहू का हुक्म है, तो करना ही होगा।”
उन्होंने धीरे-धीरे सब्जियां काटना शुरू किया।
हाथ कांप रहे थे, आंखों में आंसू थे।
दिल से आवाज आ रही थी—“क्या इसी दिन के लिए मां-बाप को बुढ़ापे की लाठी कहा जाता है?”
अध्याय 6: अपमान की पराकाष्ठा
शाम होते ही घर में रोशनी जगमगा रही थी, दीवारों पर झालरें, मेहमानों का स्वागत।
रसोई में सुधा जी पर पहाड़ टूट रहा था।
सुबह से उन्होंने एक निवाला भी नहीं खाया था।
पूनम ने आदेश दिया—“सुन बुढ़िया, आज गलती से भी बाहर मत निकलना। मैंने मेहमानों से कह दिया है कि तुम तीर्थ यात्रा पर गई हो। अगर किसी ने तुम्हारा चेहरा देख लिया तो मेरी इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी।”
सुधा जी चुप रह गईं।
अब वह अपने ही घर में मेहमानों से छुपाई जाने वाली शर्मिंदगी बन चुकी थीं।
अध्याय 7: मां का मनोबल
रसोई का तापमान बढ़ता गया।
बाहर पंखों के नीचे मेहमान आराम से बैठे थे,
अंदर रसोई में सुधा जी पसीने से तर-बतर थीं।
हड्डियां जवाब दे रही थीं, पूनम बार-बार झांक कर डांटती—“जल्दी-जल्दी काम करो बुढ़िया, वरना खाना लेट हो जाएगा। और हां, ध्यान रखना, कहीं बाहर मत निकल जाना।”
सुधा जी ने मन ही मन कहा—“आज अगर मेरा पति जिंदा होता तो शायद यह दिन मुझे देखने को न मिलता। लेकिन अब तो बेटा और बहू ही मेरे मालिक बन बैठे हैं।”
घंटों तक काम करने के बाद खाना तैयार हुआ।
जब मेहमान खाने-पीने में व्यस्त थे, तब भी वह रसोई में बैठी बर्तन मांझ रही थीं।
अध्याय 8: भूख और दया
पार्टी खत्म हुई, मेहमान चले गए।
हलवाई ने पूनम से कहा—“मैडम, मेरे पैसे दे दीजिए, और हां, बर्तन धोने के लिए किसी को रख लीजिए, यह अम्मा जी कब तक बड़े-बड़े बर्तनों को धोएंगी?”
पूनम भड़क उठी—“किसी को पैसे क्यों दूं? मेरे पास तो बर्तन धोने वाली है। यह सब करेगी। और जहां तक खाने की बात है, जो बचा है तुम लोग ले जाना।”
हलवाई ने धीरे से कहा—“मैडम, लेकिन अम्मा जी ने तो आज सुबह से कुछ खाया भी नहीं है, इतना काम करवाया, उनके लिए थोड़ा खाना रख लीजिए।”
पूनम ने गुस्से में जवाब दिया—“तुम्हें इससे मतलब क्यों है? ऐसा खाना इसे पचता नहीं। इसका खाना तो फ्रिज में पड़ा है, कल का बासी दाल-चावल यही खाएगी।”
सुधा जी की आंखों से आंसू बह निकले।
सुबह से भूख थी, अब भी उन्हें सिर्फ बासी दाल-चावल ही नसीब होने वाले थे।
लेकिन हलवाई ने उनके लिए जानबूझकर थोड़ा खाना छोड़ दिया।
उन्होंने जल्दी-जल्दी वह खाना खाया और हलवाई को मन ही मन दुआ दी।
अध्याय 9: बेटे का तिरस्कार
खाना खाकर फिर वह बर्तन मांझने बैठ गईं।
हाथ कांप रहे थे, कमर दर्द से झुक रही थी।
तभी विकास रसोई में आया—“मां, यह धीरे-धीरे क्या कर रही हो? जल्दी-जल्दी हाथ चलाओ। खाती तो इतनी हो, पता नहीं सब कहां चला जाता है।”
सुधा जी ने थकी आवाज में कहा—“हां बेटा, खाती तो हूं बहुत कुछ, पर खाना नहीं, अपने आंसू, अपना दर्द, अपना मान-सम्मान। लोग कहते हैं मां-बाप बुढ़ापे की लाठी होते हैं, लेकिन आज समझ आया कि कभी-कभी वही लाठी बच्चों के सिर पर बोझ बन जाती है।”
विकास ने तिरस्कार से कहा—“कितनी बातें बनाती है बुढ़िया, जैसे मुझ पर कोई बड़ा एहसान किया हो। अच्छा होता जो तुम मुझे पैदा ही न करती, आज शायद मैं किसी रईस घर में जन्म लेता।”
सुधा जी की आंखें भर आईं।
कांपती आवाज में कहा—“बेटा, हमेशा से मैंने यही सुना कि माता-पिता बच्चों को पालते हैं, लेकिन आज यह भी देख लिया कि बच्चे भी मां-बाप को पालते हैं। फर्क बस इतना है कि एक मां अपना सब कुछ देकर भी कभी हिसाब नहीं मांगती, लेकिन बच्चे हर वक्त एहसान गिनाते रहते हैं।”
अध्याय 10: किस्मत का मोड़
उस रात सुधा जी ने मन ही मन ठान लिया—अब वक्त आ गया है, मैं अपनी किस्मत खुद लिखूंगी।
कुछ दिन इसी तरह गुजरते रहे।
सुधा जी ने अब यह ठान लिया था कि वह बेटे और बहू के अपमान को और सहन नहीं करेंगी।
लेकिन खुलकर कुछ कहने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रही थीं।
तभी किस्मत ने एक नया रास्ता दिखाया।
एक दिन वही हलवाई उनके घर आया।
उसने पूनम से कहा—“पिछली बार मेरी एक बड़ी कड़छी यही छूट गई थी, वो लेने आया हूं।”
पूनम ने शक भरी नजरों से देखा—“जाकर देख लो, और सुन बुढ़िया, तुम भी साथ जाओ, पता नहीं यह लोग क्या चुरा लें।”
सुधा जी उसके साथ रसोई में गईं।
हलवाई ने धीरे से कहा—“अम्मा, मैं तो बहाने से आया हूं। असली बात यह है कि आप बहुत अच्छा खाना बनाती हैं। पिछले दिन आपने बताया था कि आपको खीर और हलवा बहुत अच्छा बनाना आता है। एक सेठ जी नवरात्रि का बड़ा भंडारा करा रहे हैं, अगर आप वहां खाना बना दें तो आपकी किस्मत बदल सकती है।”
सुधा जी ने घबराकर कहा—“बेटा, यह सब मुझसे नहीं होगा। बहू और बेटा मुझे घर से निकलने भी नहीं देंगे। अगर उन्हें पता चल गया तो और भी ज्यादा काम करवाएंगे।”
हलवाई ने मुस्कुराते हुए कहा—“अम्मा, यह आपका हुनर है, क्यों दबा रही हैं इसे? आप मंदिर जाने का बहाना बनाकर निकल सकती हैं। देखना, एक दिन यही हुनर आपको पहचान और सम्मान दिलाएगा।”
अध्याय 11: हुनर की पहचान
सुधा जी ने बहुत सोचा।
आखिरकार एक दिन पूनम से कहा—“बहू, मैं मंदिर जा रही हूं, तुम्हारे लिए प्रसाद भी ले आऊंगी।”
और उसी बहाने वह हलवाई के साथ भंडारे में पहुंच गईं।
वहां उन्होंने खीर, पूरी, हलवा और देसी व्यंजन बनाए।
लोगों ने जब उनका स्वाद चखा तो सबकी जुबान पर बस यही नाम था—अम्मा के हाथ का बना खाना।
धीरे-धीरे उनका नाम फैलने लगा।
कभी किसी पूजा में बुलाया जाने लगा, कभी किसी भंडारे में।
पैसे बहुत ज्यादा नहीं मिलते थे, लेकिन लोगों का प्यार और सम्मान उन्हें हर बार ताकत देता।
अध्याय 12: सम्मान की ऊंचाई
कुछ महीने बाद दिल्ली में एक बड़ा आयोजन हुआ।
देश भर से लोग अपने-अपने व्यंजन बनाने आए।
हलवाई ने उन्हें भी ले जाने का इंतजाम किया।
सुधा जी ने वहां चूल्हा जलाकर दाल बांटी, मक्के की रोटी, सरसों का साग, खीर-पूरी और देसी आइटम बनाए।
जब जजों और लोगों ने खाना चखा तो भीड़ उमड़ पड़ी।
स्टेज पर उनका नाम पुकारा गया।
उन्हें लाखों का इनाम और सम्मानित करने के लिए बुलाया गया।
तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा पंडाल गूंज उठा।
उस पल सुधा जी की आंखों से आंसू बह निकले—“आज भगवान ने मेरी लाज रख ली। जिस बेटे ने मुझे बोझ कहा, आज उसी मां के हुनर ने उसे जवाब दिया है।”
दिल्ली में ही उन्हें रहने का भी इंतजाम मिल गया।
फिर सुधा जी ने फैसला किया कि अब वापस बेटे-बहू के पास नहीं जाएंगी।
हलवाई की मदद से उन्होंने एक छोटा सा रेस्टोरेंट शुरू किया।
धीरे-धीरे वह इतना मशहूर हो गया कि अखबारों और टीवी पर उनके इंटरव्यू आने लगे।
लोग उन्हें देसी स्वाद की रानी कहकर बुलाने लगे।
अध्याय 13: बेटे-बहू की हालत
कुछ साल बीत गए।
विकास और पूनम की हालत खराब हो गई थी।
बिजनेस में घाटा हुआ, घर तक बेचना पड़ा, किराए के मकान में रहना पड़ा।
एक दिन उनका 10 साल का बेटा मोबाइल पर शॉर्ट वीडियो देख रहा था।
अचानक स्क्रीन पर सुधा जी का इंटरव्यू चलने लगा।
वह खुशी से चिल्लाया—“मम्मी-पापा देखो तो, दादी मोबाइल पर आ रही है।”
विकास और पूनम ने सोचा कि बच्चा मजाक कर रहा है।
लेकिन जब उन्होंने देखा तो उनके पैरों तले जमीन खिसक गई।
यह तो वही मां थी जिन्हें वे समझते थे कि शायद अब तक मर गई होंगी।
अध्याय 14: मां का सामना
लालच और पछतावा दोनों के दिल में जाग उठा।
दोनों ने मां का पता किया और रेस्टोरेंट पहुंचे।
वहां सुधा जी साड़ी पहने, हाथ में आईफोन, कलाई में घड़ी लगाए ग्राहकों से बात कर रही थीं।
उनका व्यक्तित्व पहले से कहीं ज्यादा दमक रहा था।
जैसे ही बेटे-बहू ने उन्हें देखा, दोनों उनके पैरों में गिर पड़े।
विकास रोते हुए बोला—“मां, हमें माफ कर दीजिए। हमने आपको नौकर समझा, आपके साथ बहुत बुरा किया, लेकिन आप तो कोहिनूर हीरा निकली। मां, हमें माफ कर दीजिए।”
पूनम भी गिड़गिड़ाई—“अम्मा, मुझसे बहुत गलती हो गई, आपने मुझे बेटी माना और मैंने आपको नौकर समझा। एक बार माफ कर दीजिए।”
अध्याय 15: मां का उत्तर
सुधा जी ने दोनों को उठाते हुए ठंडी सांस भरी—“तुम मेरे मेहमान हो और हमारे संस्कार कहते हैं कि मेहमान भगवान के समान होते हैं। खाना खाकर जाना, लेकिन याद रखना, आज मैं तुम्हें माफ कर भी दूं, लेकिन तुम्हारे किए घाव कभी भर नहीं सकते। हां, एक काम जरूर करूंगी—अपने पोते के लिए कुछ पैसे छोड़ूंगी ताकि वह एक नेक इंसान बने, उसे अपनी तरह मत बनाना।”
उनकी आंखों से आंसू गिर रहे थे, लेकिन चेहरे पर आत्मसम्मान की चमक थी।
अध्याय 16: नई शुरुआत
उस दिन के बाद विकास और पूनम शर्मिंदा होकर वहां से लौट गए।
सुधा जी ने अब अपनी बाकी जिंदगी अपने रेस्टोरेंट और अपने सम्मान के साथ जीना शुरू किया।
मूल संदेश
मां-बाप का अपमान करने वाला कभी सुखी नहीं रह सकता।
उनका आशीर्वाद ही असली दौलत है।
मां-बाप का सम्मान सबसे बड़ी दौलत है।
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