बीमार पिता को अस्पताल लेकर पहुँचा बेटा… और सामने डॉक्टर निकली उसकी तलाकशुदा पत्नी!

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कहानी: अधूरा रिश्ता… और किस्मत का दूसरा मौका

वक़्त और किस्मत का खेल हमेशा सबसे अजीब होता है।
एक तपती दोपहर, सड़कें धूप से पिघल रही थीं। हवा में आग जैसी चुभन थी। ऐसे में अचानक मोहनलाल जी ने अपने सीने को पकड़ते हुए कराह भर दी। उनका इकलौता बेटा, अजय, घबरा उठा।

“पिताजी, हिम्मत रखिए… मैं अभी आपको अस्पताल ले चलता हूँ।”

कांपते हाथों से उन्होंने रिक्शा रोका, पिता को सहारा देकर बैठाया और पूरे रास्ते दुआ करता रहा। “हे भगवान, मेरे पिताजी को कुछ मत होने देना।”

अस्पताल पहुँचते ही अजय पंजीकरण करवा कर आपातकालीन वार्ड की ओर भागा। दरवाज़ा खुला और वह अपने पिता को अंदर ले गया। लेकिन जो दृश्य सामने आया, उसने उसके पैरों तले ज़मीन खिसका दी।

सामने सफेद कोट में खड़ी डॉक्टर… कोई और नहीं बल्कि उसकी तलाक़शुदा पत्नी स्नेहा थी।

एक पल को समय थम गया। अजय की सांस अटक गई। वही स्त्री, जिसके संग कभी जीवन भर का वादा किया था और फिर छोटी-छोटी तकरारों ने सब तोड़ डाला था।

उनकी आंखें मिलीं। उनमें दर्द था, अधूरा प्रेम था और वे शब्द भी जो कभी कहे नहीं गए। लेकिन परिस्थिति का बोझ भारी था। स्नेहा ने खुद को संभाला और पेशेवर अंदाज़ में कहा—
“मरीज को तुरंत भर्ती करना होगा। हालत नाज़ुक है।”

अजय चुप रह गया। पिता को वार्ड में ले जाया गया और स्नेहा अपनी टीम के साथ जुट गई। बाहर अजय बेचैनी में गलियारों में टहलता रहा। मन ही मन सोचता— “कभी अहंकार ने हमारे घर की नींव हिला दी थी, और आज वही औरत मेरे पिता की जान बचाने की कोशिश कर रही है।”

अतीत की परछाइयाँ

अजय को याद आने लगा—
कॉलेज का पुस्तकालय, पहली बार जब उसने स्नेहा को देखा था। किताबों में डूबी मासूम सी लड़की। दोस्ती, फिर प्यार और घर बसाने के सपने।

लेकिन हकीकत अलग थी। नौकरी का दबाव, परिवार की जिम्मेदारियाँ और अजय का कठोर स्वभाव। स्नेहा बेबाक थी, वह अपनी बात कहती थी। नतीजा—हर दिन झगड़े।
कभी खर्च को लेकर, कभी समय को लेकर, कभी बस छोटी-छोटी अनसुनी भावनाओं को लेकर।

आख़िरकार तलाक़ हो गया। वह घर जिसे उन्होंने मिलकर बसाया था, बिखर गया।

आज वही अतीत सफेद दीवारों के बीच जीवित खड़ा था।


जीवन-मृत्यु की जंग

वार्ड के भीतर स्नेहा पूरी गंभीरता से काम कर रही थी। इंजेक्शन, ऑक्सीजन, दवाइयाँ—सब समय पर। हाथ स्थिर थे, पर आँखों में चिंता छिपी थी।

रात भर अजय वहीं कॉरिडोर में रहा। न नींद आई, न भूख लगी।
उसने देखा, स्नेहा लगातार ड्यूटी कर रही थी। थकी आँखें, पर अडिग संकल्प।

अजय धीरे से बोला, “स्नेहा… थोड़ी देर आराम कर लो, मैं यहाँ हूँ।”
स्नेहा ठिठकी। फिर बोली—
“डॉक्टर का आराम मरीज से बड़ा नहीं होता। मुझे हर हाल में आपके पिताजी को बचाना है।”

उसके शब्द अजय के दिल को चीर गए। “जिसे मैंने कटु शब्दों से कभी चोट दी थी, वही आज मेरे पिता की ढाल बनी हुई है।”

रात के किसी पहर, अजय ने देखा—स्नेहा चुपचाप हाथ जोड़कर भगवान से प्रार्थना कर रही थी। उसके भीतर कसक उठी—“इतनी शिद्दत से तो उसने कभी मेरे लिए भी दुआ की होगी और मैंने उसे क्या दिया? बस ताने और दूरी।”


निर्णायक क्षण

सुबह डॉक्टरों की टीम ने कहा कि स्थिति अब भी नाज़ुक है। अचानक मोहनलाल जी ने धीमी आवाज़ में अजय का हाथ दबाया—
“बेटा… स्नेहा बहुत अच्छी लड़की है। मैंने उसे हमेशा बेटी माना है।”

अजय की आंखें नम हो गईं। तभी वरिष्ठ डॉक्टर ने घोषणा की—“इमरजेंसी प्रक्रिया करनी होगी। देर खतरनाक होगी।”

स्नेहा तुरंत ऑपरेशन थिएटर में चली गई। अजय बाहर खड़ा पागलों सा दरवाज़ा देखता रहा।
अचानक मशीन की बीप गड़बड़ा गई। अंदर अफरा-तफरी। स्नेहा की आवाज़ गूँजी—
“डिफिब्रिलेटर… जल्दी!”

अजय रो पड़ा। “हे भगवान, मेरे पिताजी को बचा लो।”

कुछ मिनटों की भयावह खामोशी के बाद दरवाज़ा खुला।
स्नेहा बाहर आई। चेहरे पर थकान, पर आंखों में चमक।

“खतरा टल चुका है। आपके पिताजी ने जिंदगी की लड़ाई जीत ली है।”

अजय वहीं घुटनों के बल बैठ गया। आंसू रुक नहीं रहे थे। उसने भगवान को धन्यवाद दिया और फिर स्नेहा की ओर देखा।

“अगर आज तुम ना होती… तो मैं अपने पिता को खो देता।”

स्नेहा की आंखें भीग गईं। उसने धीरे से कहा—
“मैंने तो बस अपना कर्तव्य निभाया है।”


दिल की दीवारें

अजय ने कांपते स्वर में कहा—
“स्नेहा… रिश्ता कभी सिर्फ कागज़ के तलाक़ से नहीं टूटता। सच तो यह है कि मैं आज भी तुमसे दूर नहीं हो पाया।”

स्नेहा की आंखों से आंसू बह निकले।
“फिर क्यों अजय? क्यों हमारे बीच अहंकार की दीवार खड़ी कर दी? अगर तुम एक कदम बढ़ाते तो मैं आज भी तुम्हारे साथ होती।”

अजय ने स्वीकार किया—
“हाँ, मेरी गलतियाँ थीं। मेरा अहंकार, मेरी कठोरता… सब मेरी हार थी। अगर किस्मत मुझे एक और मौका दे तो… क्या तुम फिर से हमारे रिश्ते को जी सकोगी?”

स्नेहा ने उसकी आंखों में देखा। वहां पछतावा भी था, सच्चाई भी और वही अनकहा प्यार।
वह मुस्कुरा दी। आंसुओं के बीच वह मुस्कान कह रही थी—“किस्मत ने हमें एक और मौका दिया है।”


परिवार का पुनर्जन्म

मोहनलाल जी ने आंखें खोलीं। उन्होंने दोनों को साथ देखा और धीमे स्वर में कहा—
“मेरा परिवार अब फिर से पूरा हो गया क्या?”

अजय और स्नेहा ने सिर झुका कर हामी भरी।

कुछ दिनों बाद जब मोहनलाल जी अस्पताल से घर लौटे, मोहल्ले में उत्सव जैसा माहौल था।
सबसे बड़ी खुशी यह थी कि अजय और स्नेहा फिर से एक हो गए थे।

अब घर में झगड़े नहीं, बल्कि हंसी और अपनापन लौट आया।


नया उद्देश्य

इस अनुभव ने उन्हें सिखा दिया—
“रिश्ते अहंकार से नहीं, धैर्य और आलिंगन से निभते हैं।”

उन्होंने तय किया कि अपनी कहानी से समाज को भी प्रेरित करेंगे।
अस्पताल में उन्होंने एक टीम बनाई, जो उन दंपतियों से मिलती थी जिनके रिश्ते टूटने की कगार पर थे।
वे समझाते—“प्यार को बचाना मुश्किल नहीं है, मुश्किल है अहंकार को छोड़ना।”

धीरे-धीरे लोग उन्हें आदर्श मानने लगे।

मोहनलाल जी आंगन में बैठ मुस्कुराते—
“अब मुझे चैन है। मेरा परिवार फिर से एक है और यह अब दूसरों को भी जोड़ रहा है। यही जीवन का सच्चा सुख है।”


सीख

यह कहानी सिर्फ अजय और स्नेहा की नहीं, बल्कि हर उस इंसान की है जिसके पास रिश्ते हैं।
हम सब माता-पिता, भाई-बहन या जीवन साथी से जुड़े हैं। लेकिन अक्सर छोटी-छोटी बातों और अहंकार के कारण हम उन्हें खो बैठते हैं।

सच्चाई यही है—अगर दिल से कोशिश की जाए तो कोई रिश्ता कभी टूटता नहीं।
प्यार कभी समाप्त नहीं होता। वह बस इंतज़ार करता है कि कोई उसे ईमानदारी से पुकारे।
और जब वह पुकार गूंजती है—जिंदगी सबसे सुंदर जवाब देती है।


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