बूढ़े बाप को वृद्धाश्रम छोड़ आया बेटा, अगले दिन जब आश्रम का मालिक घर आया तो बेटे के होश उड़ गए!
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नोएडा की ऊँची-ऊँची इमारतों के बीच, राकेश का जीवन किसी सपने जैसा था। मल्टीनेशनल कंपनी में मैनेजर की नौकरी, सुंदर पत्नी सुनीता, दो प्यारे बच्चे, तीन बीएचके फ्लैट, बड़ी गाड़ी—दुनिया की हर सुविधा। लेकिन इस चमचमाती तस्वीर में एक “दाग” था, जो राकेश और सुनीता को हमेशा खटकता—राकेश के 75 वर्षीय पिता, श्री हरिनारायण।
हरिनारायण जी, जो कभी एक सम्मानित स्कूल मास्टर थे, अब उम्र और बीमारी से कमजोर हो चुके थे। पत्नी के गुजर जाने के बाद, उन्होंने अपने बेटे का सहारा लिया। लेकिन बेटा और बहू उन्हें पुराने, बेकार फर्नीचर की तरह समझते थे—घर की आज़ादी छीनने वाला बोझ। सुनीता अक्सर ताने देती—
“तुम्हारे पापा की वजह से न दोस्तों को बुला सकते, न पार्टी कर सकते। इन्हें किसी अच्छी जगह रख दो।”
धीरे-धीरे राकेश का दिल भी कठोर हो गया। वह भूल गया कि यही पिता कभी रात-रात भर जगकर उसे पढ़ाते थे, अपनी छोटी-सी तनख्वाह से उसके सपनों को पूरा करने के लिए अपने सपने कुर्बान कर देते थे।
निर्णय
एक दिन, दोनों ने ठान लिया—पिताजी को वृद्धाश्रम छोड़ देंगे। राकेश ने झूठ बोला—
“पापा, शहर के पास एक बहुत अच्छा आश्रम है। आपके जैसे कई लोग रहते हैं, आपका मन भी लगेगा।”
पिता खुश हुए, उन्हें लगा बेटा उनकी भलाई सोच रहा है।
अगले दिन, राकेश ने उन्हें गाड़ी में बैठाया और शहर से दूर “शांति कुंज” वृद्धाश्रम ले गया। रास्ते में पिता बचपन की कहानियाँ सुनाते रहे, बेटा पत्थर-सा चुप रहा।
आश्रम में कागज़ी औपचारिकताएँ पूरी कर, राकेश ने पिता के हाथ झटकते हुए कहा, “आता रहूंगा, पापा… अपना ख्याल रखना,” और बिना पीछे मुड़े चला गया। गेट पर बूढ़ा बाप, आँसुओं के साथ अपने उजड़े घर को देखता रह गया।
घर पहुँचकर राकेश और सुनीता ने राहत की साँस ली, रात को पार्टी की। उधर आश्रम के कमरे में, हरिनारायण जी सारी रात करवटें बदलते रहे—उन्हें एहसास हो चुका था कि बेटा उन्हें “घुमाने” नहीं, छोड़ने लाया था।
मुलाकात
अगली सुबह, आश्रम के मालिक आनंद कुमार, नए सदस्य से मिलने आए। 50 वर्षीय शांत, सुलझे व्यक्ति, जिन्होंने अपने माता-पिता की याद में यह आश्रम सेवा के रूप में बनाया था। उन्होंने हरिनारायण जी की उदासी देख पूछताछ की।
पिता ने अपने बेटे की कहानी बताई—कैसे उन्होंने सब कुछ कुर्बान कर उसे पढ़ाया, और आज वही बेटा उन्हें बोझ समझता है।
नाम सुनते ही आनंद चौंक पड़े—
“बाबूजी, आपका पूरा नाम… हरिनारायण शर्मा?”
“हाँ बेटा… पर तुम क्यों पूछ रहे हो?”
आनंद की आँखें भर आईं। वह पैरों पर गिर पड़े—
“गुरुजी! मैं आनंद हूँ… आपका सबसे नालायक शिष्य।”
यादें लौट आईं—गाँव का वह अनाथ लड़का, जिसे हरिनारायण जी ने मुफ्त में पढ़ाया, अपनी तनख्वाह से कॉलेज भेजा, और कहा था—
“बेटा, इतना बड़ा बनना कि हजारों लोगों की मदद कर सको।”
आज वही आनंद, देश का बड़ा उद्योगपति था… और अपने गुरु को इस हालत में देख रहा था।
सच का तूफ़ान
जब आनंद को पता चला कि राकेश, वही बेटा, जिसने गुरु को छोड़ा, उसकी कंपनी में मैनेजर है—तो उनके भीतर आग जल उठी।
अगली सुबह, राकेश आराम से चाय पी रहा था, तभी डोरबेल बजी। सामने आनंद खड़े थे।
“मैं शांति कुंज का मालिक हूँ… जहाँ तुमने कल अपने पिता छोड़े।”
राकेश का चेहरा सफेद पड़ गया—
“देखिए, मैंने सारे पैसे जमा कर दिए हैं, पिताजी अपनी मर्जी से—”
आनंद ने ठंडी, लेकिन धारदार आवाज़ में कहा—
“तुम्हें शायद पता नहीं… तुम्हारे पिता मेरे गुरु हैं। उन्हीं की बदौलत मैं यहाँ हूँ। जिस कंपनी में तुम काम करते हो, वह मेरी है। जिस फ्लैट में तुम रहते हो, यह बिल्डिंग मेरी है। यहाँ तक कि तुम्हारी गाड़ी भी कंपनी के नाम पर—यानि मेरी है। तुम्हारी दुनिया, तुम्हारे पिता की दी हुई दुआओं पर टिकी है… और तुमने क्या किया? उन्हें वृद्धाश्रम भेज दिया।”
राकेश और सुनीता के पैरों तले जमीन खिसक गई।
अल्टीमेटम
“मैं चाहूँ तो एक मिनट में सब छीन सकता हूँ,” आनंद बोले।
“पर मैं अपने गुरु के बेटे को बर्बाद नहीं करूँगा। तुम्हारे पास 24 घंटे हैं—अभी जाओ, उनके पैरों पर गिरकर माफी माँगो, उन्हें सम्मान से घर लाओ… वरना यह घर छोड़ दो और कल से नौकरी पर मत आना।”
राकेश का घमंड टूट चुका था। वह और सुनीता भागते हुए आश्रम पहुँचे, पिता के पैरों पर गिर पड़े—
“पापा, हमें माफ कर दीजिए… हमने बहुत बड़ा पाप किया।”
पिता का दिल पिघल गया—
“बेटा, माता-पिता अपने बच्चों से नाराज़ हो सकते हैं, लेकिन उन्हें छोड़ नहीं सकते।”
नया जीवन
उस दिन के बाद, राकेश एक बदला हुआ इंसान था। उसने समझ लिया कि असली दौलत गाड़ियाँ, फ्लैट या नौकरी नहीं—बल्कि वे माता-पिता हैं, जिनके आशीर्वाद से यह सब संभव होता है।
आनंद अक्सर अपने गुरु से मिलने आते—अब मालिक के रूप में नहीं, बड़े भाई की तरह।
यह कहानी सिर्फ एक बेटे की गलती नहीं, बल्कि एक चेतावनी है—
माँ-बाप बोझ नहीं होते। वे वह नींव हैं, जिस पर हमारी सफलता की इमारत खड़ी होती है। नींव को तोड़ोगे, तो एक दिन पूरी इमारत गिर जाएगी।
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