कहानी: आत्मसम्मान की रोशनी
दिल्ली के एक पुराने मोहल्ले में एक घर था, जिसकी दीवारों पर अब भी पुराने दिनों की हँसी की गूंज बसती थी। उसी घर में रहती थीं — जानकी देवी, एक साठ पार की महिला, जिनकी आँखों में अब थकान और होंठों पर चुप्पी का वास था।
उनके पति राघव जी का देहांत हुए कई साल बीत चुके थे। कभी यह घर उनकी हँसी और प्रेम से गूंजता था। रसोई से आती खुशबू के साथ जब राघव जी की आवाज़ गूँजती — “जानकी, तुम्हारे हाथ की दाल जैसी दुनिया में कहीं नहीं!” — तब जानकी मुस्कुरा उठतीं, “बस तुम्हारे लिए ही खास है।”
मगर अब वह आवाज़, वह अपनापन और वह सुकून सब अतीत की परछाईं बन चुका था।
अब वे अपने बेटे अजय और बहू सोनिया के साथ रहती थीं। पर यह साथ केवल कागज़ों पर था, दिलों में नहीं। चारों तरफ़ महंगे पर्दे, सजे हुए कमरे, चमकती फर्श — लेकिन इन सबमें अपनत्व की एक बूँद भी नहीं थी। हर सुबह सूरज की किरणें जब उनके कमरे की खिड़की से भीतर आतीं, तो जानकी उनींदी आँखों से उन्हें देखतीं और एक लंबी सांस भरतीं — “क्यों उठना है? किसके लिए?”
फिर भी आदत से मजबूर होकर उठतीं, चप्पल पहनतीं और धीमे-धीमे दरवाज़ा खोलतीं, मानो उनकी आहट भी किसी को बुरा न लगे।
घर बड़ा था, पर उस घर में उनके लिए जगह छोटी होती जा रही थी। वे धीरे से बरामदे से गुज़रतीं, चाय का कप बनातीं और कोने में बैठकर चुपचाप दिन बीतातीं।
एक दोपहर की घटना उनके दिल में हमेशा के लिए刻 गई।
खाने की मेज़ पर सब बैठे थे। जानकी देवी ने धीमी आवाज़ में कहा,
“बहू, मुझे बहुत खांसी है, चावल नहीं खा पाऊँगी। मुझे रोटी दे दो।”
उनकी बात में न जिद थी न हक, बस एक साधारण तकलीफ।
अजय ने तुनककर कहा —
“मां, दो दिन से सोनिया को भी सर्दी है। उसे रोटी खाने दो, तुम चावल खा लो। वैसे भी तुम्हें रोटी चबाने में देर लगती है।”
जानकी की आँखें भर आईं। उन्हें याद आया जब अजय छोटा था, तो वही अपने हाथों से उसे रोटी तोड़कर खिलाती थीं। आज वही बेटा उन्हें उपदेश दे रहा था कि कैसे खाना चाहिए। उन्होंने सिर झुका लिया, गले में निवाला अटक गया। किसी ने ध्यान नहीं दिया कि मां बिना खाए उठ गई।
दिन पर दिन, उपेक्षा और तानों का सिलसिला बढ़ता गया। अब उनका घर, उनका नहीं रहा था।
इन सबके बीच एक सहारा थी — उनकी बचपन की सहेली सुशीला।
सुशीला अक्सर पास के पार्क में मिलती, कभी घर के बने लड्डू, कभी गरम पकोड़े लाती। वही एक थी जो उनकी आँखों का दर्द पढ़ लेती थी।
एक दिन सुशीला बोली —
“जानकी, मैं कुंभ स्नान के लिए प्रयागराज जा रही हूं। तुम भी चलो, मन बदल जाएगा।”
जानकी ने हिचकते हुए कहा,
“वहां भीड़ बहुत होगी, हम कैसे जाएंगे?”
सुशीला मुस्कुराई —
“डरना छोड़ दो। मैं हूं ना। बस थोड़ी हिम्मत रखो।”
जानकी ने आँसू पोंछे और कहा,
“तुम कितनी किस्मत वाली हो, सुशीला। तुम्हारे बच्चे तुम्हारा ख्याल रखते हैं। मेरा बेटा तो पास रहकर भी मुझसे बात तक नहीं करता।”
सुशीला ने गंभीर स्वर में कहा —
“जानकी, हमेशा चुप रहना अच्छी बात नहीं होती। अगर हम नहीं बोलेंगे, तो लोग हमारी चुप्पी को कमजोरी समझेंगे।”
वो शब्द जानकी के दिल में उतर गए।
जब वह शाम को घर लौटीं, सोनिया दरवाज़े पर मिली —
“आ गई महारानी पार्क घूमकर? घर का काम करने को कहो तो तबीयत खराब हो जाती है, और बाहर घूमने में मज़ा आता है!”
पहली बार जानकी ने सिर उठाकर कहा,
“बहू, मैं घर का हर काम करती हूं। झाड़ू, पोछा, खाना — सब। अगर कोई काम रह गया हो, तो बता दो, मैं कर दूँगी। लेकिन ताने मत मारा करो।”
सोनिया का चेहरा लाल हो गया। वो पैर पटकते हुए कमरे में चली गई।
शाम को अजय आया, और सोनिया ने आँसू बहाकर कहा —
“आज आपकी मां ने मेरी बहुत बेइज्जती की!”
अजय गुस्से से माँ के कमरे में घुसा —
“मां, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई सोनिया को कुछ कहने की! आगे से अगर कुछ कहा तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा!”
जानकी ने काँपते हुए कहा —
“बेटा, तुझे बस अपनी पत्नी की तकलीफ दिखती है। मां की नहीं? ऐसा बेटा होने से अच्छा था कि मेरा कोई बेटा ही न होता।”
यह सुनकर अजय का पारा चढ़ गया। उसने गुस्से में मां के गाल पर थप्पड़ जड़ दिया।
कमरा सन्न रह गया।
उस थप्पड़ ने केवल उनके गाल को नहीं, उनकी आत्मा को भी तोड़ दिया।
उन्होंने कांपते स्वर में कहा —
“अजय, आज तूने मेरी परवरिश को कलंकित कर दिया। याद रखना, मां पर हाथ उठाने वाला बेटा कभी सुखी नहीं रहता।”
उस रात उन्होंने पहली बार अपने कमरे का दरवाज़ा भीतर से बंद किया।
आईने के सामने खड़ी होकर बोलीं —
“अब वक्त आ गया है जानकी, खुद को फिर से पहचानने का। अब तू चुप नहीं रहेगी।”
सुबह होते ही उन्होंने अपनी पुरानी संदूकची खोली — उसमें राघव जी की तस्वीरें, चिट्ठियाँ, और वो चूड़ियाँ रखी थीं जो उन्होंने शादी में पहनी थीं।
एक चिट्ठी पर लिखा था —
“तुम मेरी सबसे बड़ी ताक़त हो।”
उन शब्दों ने जैसे उनके भीतर की नींद तोड़ दी।
उस दिन वे अपने पति के पुराने मित्र विनोद जी के पास गईं, जो वकील थे। उन्होंने पूरी बात सुनाई।
विनोद जी बोले —
“कानून आपके साथ है, जानकी जी। पर असली ताकत आपकी हिम्मत में है। अगर आपने ठान लिया कि आप अपनी जिंदगी अपने दम पर जिएंगी, तो कोई ताकत आपको रोक नहीं सकती।”
उस शाम जानकी देवी ने अपना छोटा बैग पैक किया। कुछ कपड़े, दवाइयाँ और थोड़े गहने।
जब अजय और सोनिया को बुलाया, तो आवाज़ शांत थी पर शब्दों में दृढ़ता थी —
“अब मैं इस घर में नहीं रहूँगी। मैंने रामनगर में एक छोटा घर किराए पर लिया है। अब मैं अपनी जिंदगी अपने तरीके से जिऊंगी। अगर मैं तुम्हारे लिए बोझ हूं, तो मैं खुद ही ये बोझ उतार देती हूं।”
अजय हैरान था, पर सोनिया ने तिरस्कार से कहा,
“ठीक है मांजी, जैसा आपको सही लगे। हमें कोई फर्क नहीं पड़ता।”
जानकी ने बैग उठाया, एक बार घर की दीवारों की ओर देखा — बिना गुस्से, बिना आँसू के — जैसे किसी पुराने अध्याय को बंद किया जा रहा हो, और बाहर निकल गईं।
रामनगर का छोटा सा घर अब उनका नया ठिकाना था। एक कमरे का मकान, छोटा सा आँगन, और खिड़की से झिलमिलाते तारे।
पहली रात उन्होंने आसमान की ओर देखा और महसूस किया — अब मैं सच में आज़ाद हूँ।
शुरुआत के दिन कठिन थे। खुद सब्जी खरीदना, बिजली-पानी के बिल भरना, अकेले रहना।
पर हर छोटा कदम उनके अंदर आत्मविश्वास भरता गया।
धीरे-धीरे वो पार्क में कुछ और बुज़ुर्ग महिलाओं से मिलने लगीं। किसी की बहू से अनबन थी, किसी का बेटा बेरहम था — सबके दिल में एक जैसा दर्द था।
जानकी को एहसास हुआ कि वो अकेली नहीं हैं।
एक दिन सुशीला बोली —
“जानकी, पास के स्कूल में बुज़ुर्ग औरतों को बच्चों को कहानी सुनाने का काम मिलता है। तुम कोशिश करो।”
पहले तो झिझकीं, फिर अगले दिन स्कूल पहुँचीं।
प्रिंसिपल ने बात की और तुरंत उन्हें एक क्लास दे दी।
पहले दिन बच्चों के सामने खड़े होकर उनका दिल काँप रहा था। मगर जैसे ही उन्होंने पंचतंत्र और लोककथाओं की बातें शुरू कीं, बच्चे मंत्रमुग्ध हो गए।
क्लास खत्म हुई तो एक बच्चा बोला,
“दादी, आप रोज़ आना।”
वो सुनकर जानकी देवी का दिल भर आया।
उन्हें लगा कि खोया हुआ सम्मान लौट आया है।
अब उनकी दिनचर्या बदल चुकी थी —
सुबह स्कूल, दोपहर आराम, शाम को पार्क, रात को किताबें।
थोड़ी तनख्वाह से खर्च चलने लगा।
लोग उन्हें “जानकी दी” कहकर सम्मान से बुलाने लगे।
समय बीतता गया।
इधर अजय और सोनिया के घर में झगड़े बढ़ गए।
पैसों की किल्लत, मनमुटाव, तनाव।
एक दिन अजय अपनी मां के छोटे घर आया।
दरवाज़ा खुला तो मां रसोई में बच्चों के लिए लड्डू बना रही थीं।
अजय की आँखें भर आईं।
“मां, मैंने बहुत गलती की। मुझे माफ कर दो। मैं आपको वापस घर ले जाना चाहता हूं।”
जानकी ने मुस्कुराकर कहा —
“बेटा, माफ करना आसान है, पर भरोसा करना नहीं।
मैं तुम्हें माफ करती हूं, पर अब उस घर में लौटना नहीं चाहती जहाँ सम्मान नहीं।
इज्जत शब्दों से नहीं, रोज़ के व्यवहार से मिलती है।
अगर सच में बदलना चाहते हो, तो अपने जीवन में बदलाव लाओ।”
अजय ने सिर झुका लिया, मां के पैर छुए और चला गया।
जानकी ने आँसू पोंछे, पर दिल में सुकून था।
कुछ महीनों बाद स्कूल ने उन्हें “प्रेरणादायक महिला” के रूप में सम्मानित किया।
जब मंच पर तालियां गूंजीं, तो उनकी आँखों से आँसू बह निकले — मगर इस बार ये आँसू दुख के नहीं, संतोष के थे।
उन्होंने मुस्कुराकर आसमान की ओर देखा —
“राघव जी, मैंने हार नहीं मानी।
मैंने सीखा — आत्मसम्मान से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता।”
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