एक पाव रोटी की कीमत: इंसानियत को जगा देने वाली बुलंदशहर की कहानी

उत्तर प्रदेश का बुलंदशहर, जून की भोर। धूप की पहली किरण ने अभी शहर की गलियों को पूरी तरह नहीं छुआ था। सुबह-सुबह मजदूरों, रिक्शा वालों, स्कूल जाते बच्चों और चाय-पकोड़े के दुकानदारों की आवाजाही से पूरा इलाका गुलजार होने लगता। मगर इन्हीं सबके बीच, एक फाटक के कोने में, चाय और ब्रेड पकौड़े की सुनसान सी दुकान के बाहर, आठ साल का एक बच्चा चुपचाप बैठा था।

नाम था रोहन, कपड़े पुराने, चेहरा धूल-मिट्टी से सना, और पैरों में फटे-पुराने चप्पल। उसकी आंखों में मासूमियत तो थी मगर साथ ही वो चुप्पी भी थी, जिसमें न जाने कितने सपनों और उम्मीदों की कब्र दबी थी। आजकल रोहन का चेहरा हर सुबह इसी दुकान पर दिखने लगा था। दुकान के मालिक अशोक चाचा जैसे ही अपना सामान लेने जाते, रोहन आकर कोने में बैठ जाता। न कोई दोस्त, न हथेली में कुछ खाने को, बस एक उम्मीद कि शायद आज कुछ बचा हुआ मिल जाए।

इसी सुबह एक सफेद रंग की कार आकर दुकान के पास रुकी। उसमें से उतरे करीब 26 साल के आनंद कश्यप। आनंद अच्छे कपड़े पहनते थे, उनकी घड़ी, बेल्ट और चाल-ढाल से कोई भी देख कर अंदाजा लगा सकता था कि वह संपन्न हैं, पढ़े-लिखे और संस्कारी हैं; लेकिन वो जिसे सबसे ज्यादा महत्व देते थे, वो थी–इंसानियत। आनंद हमेशा यही मानते थे कि बड़े होटलों से खाना मँगवाना आसान होता है, लेकिन छोटी दुकानों से खरीदने में जितनी आत्मीयता होती है, उतनी शायद कहीं और नहीं।

आनंद दुकान के पास आए और देखा कि दुकानदार वहाँ नहीं है। उन्होंने आवाज़ दी, “भैया, कोई है?” और उसी वक्त रोहन सामने आया। उसने धीरे से बोला, “अंकल, दुकान वाले अंकल कुछ सामान लेने गए हैं।” आनंद मुस्कुराए, “कोई बात नहीं बेटा, मैं थोड़ी देर इंतजार कर लेता हूं। वैसे, मुझे बहुत भूख लग रही है, अगर ब्रेड पकौड़े हैं तो दे सकते हो?” रोहन कुछ पल चुप रहा और फिर रुक-रुक कर बोला, “साहब, मत खाइए ये पकौड़े…ये आपके लिए नहीं हैं।”

आनंद को कुछ अजीब लगा। उन्होंने झुक कर उसके बराबर में बैठकर फिर से पूछा, “क्यों बेटा, इन में कोई खराबी है?” इस बार रोहन की आंखें नम हो गईं। उसने फुसफुसाकर कहा, “नहीं, खराब तो नहीं। लेकिन अगर आपने ये खा लिए तो मेरी और मेरी छोटी बहन की आज की रात भूखे गुजर जाएगी।”

आनंद सन्न रह गए। बरसों पहले पढ़ी कहानियों जैसी कोई हकीकत सामने खड़ी थी। उन्होंने प्यार से उसका कंधा सहलाया, “क्या मैं तुम्हारी बहन से मिल सकता हूं?” रोहन ने सिर झुका लिया, “वो पास के मंदिर में बैठी है, जब कोई बचा हुआ मिलता है तो उसे भी बुला लाता हूँ।”

आनंद को बच्चे की बातें भीतर तक छू गईं। उन्होंने कहा, “आज मेरे लिए, ये पकौड़े तुम और तुम्हारी बहन खाओ। जब दुकान वाला आएगा, मैं उसके पैसे दे दूंगा। भूख मैंने भी जानी है, पर तुम्हारी हालत देखकर लगता है जैसे मैं आज पहली बार खुद को जान रहा हूँ।”

इतने में उसकी बहन सृष्टि भी पास आ गई। दोनों भाई-बहन का चेहरा थोड़ा खिल गया। आनंद ने उन्हें दुकान के बेंच पर बैठाया, ताजे पकौड़ो का इंतजार करवाया, और जब मिले तो दोनों ने ऐसे खाया जैसे महीनों से कुछ ठीक नहीं खाया था।

कुछ देर बाद दुकानदार अशोक चाचा वापस आए। आनंद ने मुस्कुरा कर उन्हें सारी बात बताई, पैसे भी दिए और बोले, “चाचा जी, मैं चाहता हूँ कि ये दोनों भाई-बहन कभी भूखे न रहें। जब भी कुछ बचे, उन्हें जरूर दे दिया कीजिए। और जो भी पैसे चाहिए, मैं दूँगा।”

अशोक चाचा ने भारी मन से कहा, “बेटा, इनकी मां को एक साल हो गया गुजर गए। कैंसर हो गया था। बाप शराबी हो गया, कई बार घर आता है, कई बार नहीं आता। दोनों बच्चे पिछले कुछ महीनों से दुकान के बचे-खुचे खाने पर ही जिंदा हैं। स्कूल भी छूट गया।”

आनंद के लिए यह सिर्फ एक “कृपा की कहानी” या दया का मौका नहीं था, ये उन्हें अपने बचपन के उन दिनों की याद दिला गया जब उनकी माँ भी सुबह से शाम तक काम करती थीं, और वो खुद भी कभी भूखे सो जाते थे। उन्होंने अशोक चाचा से बच्चों के घर चलने की जिद की। तीनों गलियों में घूमते हुए, रोहन और सृष्टि की टूटी-फूटी झोपड़ी तक पहुँचे। घर के बाहर एक झरझरा-सा दरवाज़ा, भीतर एक बोरी बिछी थी, दो प्लेटें, और एक कोने में कुछ पुरानी किताबें।

आनंद का दिल भर आया। थोड़ी ही देर में पास पड़ोस की एक बूढ़ी अम्मा आईं, जो सबके दुख-सुख की भागीदार थीं। आनंद ने उनसे कहा, “क्या आप इन बच्चों का ध्यान रख सकती हैं? मैं हर महीने मदद पहुंचा दूँगा।” अम्मा की आंखों में पानी आ गया, वो बोलीं, “ममता की कोई कीमत नहीं। मैं इन्हें अपने पोते-पोती की तरह पाल लूंगी, मेरे पास बस प्यार है बेटा।”

आनंद ने ₹5000 दिए, आगे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, नए कपड़े, स्कूल फीस, मेडिकल मदद… हर जिम्मेदारी खुद उठा ली। अगले ही दिन, आनंद ने दोनों बच्चों का स्कूल में दाखिला करवाया, उन्हें स्कूल ड्रेस, बैग, किताबें और जरूरी सामान ले दिया। पहली बार दोनों भाई-बहन स्कूल के नए कपड़ों में, बैग टांगकर, मुस्कुराते हुए घर से निकले तो पूरा मोहल्ला देखता रह गया।

स्कूल में भी बच्चों के लिए नया हौसला था। अध्यापकों ने पूछा, “आखिर तुम दोनों अचानक कैसे पढ़ने आ गए?” रोहन की बड़ी-बड़ी आंखों में आशा की चमक थी, “भगवान ने हमें एक अंकल भेजा है…” कई बच्चे उस दिन सच्चे नायक की कहानियाँ सुनाने लगे।

इधर घर लौटे तो शाम को पिता किशन भी लौट आया। दरवाज़े पर न सिर्फ खाने की खुशबू थी, बल्कि घर में सच्चा उजाला था। छोटे-छोटे तोहफे, बच्चों की हँसी और किताबों के ढेर के बीच, किशन की आंखें भर आईं। उन्होंने अपने जीवन की सबसे बड़ी गलती मानी और बच्चों के सामने वादा किया, “अब एक दिन भी शराब नहीं पिऊँगा। मेहनत-मजदूरी करूँगा, लेकिन तुम्हें भूखा नहीं सोने दूँगा।”

समय बीता। आनंद हर महीने मदद करता, बच्चों की फीस, यूनिफार्म, किताबें सब खुद लाता। जब भी वक़्त मिलता, स्कूल या घर आ जाता। अक्सर दुकान पर जाते, और वहां दूसरों को भी इसी तरह मदद करते देखते।

तीन साल बीत गए। अब रोहन कक्षा पांच में, सृष्टि कक्षा तीन में पढ़ती थी। स्कूल के एक समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में आनंद भी बुलाए गए। रोहन मंच पर गया और कहा, “मैं वही बच्चा हूं, जो एक दिन पकोड़े वाले की दुकान पर बैठा हुआ था। जब दुख और भूख हावी थी, तो भगवान ने हमारे लिए एक फरिश्ता भेजा। आनंद अंकल ने भूख को, नाउम्मीदी को, दुख को हर लिया… इंसानियत का असली मतलब हमें जिंदा महसूस कराया।” वहाँ उपस्थित सभी लोगों की आंखें भीग गई। हॉल में तालियों की गूंज भर गई थी।

आनंद ने कहा, “मदद का मतलब सिर्फ पैसा देना नहीं, बल्कि किसी के लिए वक्त निकालना, उसे हौसला, शिक्षा, सम्मान देना है।” उन्होंने बच्चों को गले लगाया और उनकी पढ़ाई, खेल, और हर सपने के साथ और मजबूती से जुड़ गए।

आज रोहन और सृष्टि का परिवार बदल चुका था—उनका भूत, आज और भविष्य सब रौशन हो गया था। किशन ने ईमानदारी से मजदूरी कर के अपने बच्चों के लिए खाना, कपड़े और पर्व-त्योहार पर छोटा-सा तोहफा लाने का जिम्मा उठा लिया था।

स्कूल में उनकी मेहनत रंग लाई—दोनों भाई-बहन पढ़ाई में अव्वल आए, और समाज के लिए मिसाल। मोहल्ले के बाकी गरीब बच्चों को भी मोका मिला—क्योंकि अब लोग समझने लगे थे कि बेसहारा को दिया एक “पाव रोटी” किसी का जीवन बदल सकता है।

इस कहानी की सीख: गरीबी सिर्फ जेब की नहीं, हालात और समाज की बेरुखी की भी होती है। एक छोटी ने