अनन्या – एक माँ की जीत

दोपहर का समय था। लखनऊ शहर की सड़कों पर भीड़ उमड़ रही थी। गर्म हवा चल रही थी और सूरज की किरणें ज़मीन पर आग बरसा रही थीं। भीड़ के बीच से एक बड़ी सी काली गाड़ी धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। गाड़ी के अंदर बैठे थे विक्रम राजवंश सिंह — शहर के सबसे अमीर और सम्मानित व्यक्ति। सफेद बाल, सधा हुआ व्यक्तित्व और आंखों में एक गहरी गंभीरता।

सिग्नल लाल हुआ तो गाड़ी रुक गई। ड्राइवर ने खिड़की नीचे की ताकि हवा अंदर आ सके। तभी विक्रम की नज़र सड़क किनारे बैठी एक औरत और एक छोटी बच्ची पर पड़ी। औरत के कपड़े फटे हुए थे, चेहरे पर धूप की काली परत और आंखों में अजीब सी थकान। छोटी बच्ची अपने नन्हे हाथों में फूल लिए राहगीरों से कह रही थी – “अंकल, फूल ले लो ना, दो दिन से खाना नहीं मिला।”

विक्रम की आंखें जैसे जम गईं। वह उस औरत को पहचान गए। वह उनकी बहू अनन्या थी।

वह जल्दी से गाड़ी से उतरे, भीड़ को चीरते हुए उसके सामने पहुंचे और कांपती आवाज़ में बोले –
“यह क्या हाल बना लिया तुमने, अनन्या? आर्यन कहां है? वो तो तुम्हें विदेश ले गया था न?”

अनन्या ने सिर उठाया, उसकी आंखों में आंसू थे लेकिन चेहरे पर एक दर्द भरी मुस्कान।
“हां, ले गया था… इस स्टेशन तक।”

विक्रम जैसे पत्थर के बन गए। उनके होंठ कांपने लगे, गला सूख गया। उन्होंने बेंच पर बैठकर गहरी सांस ली और कहा – “सब बताओ अनन्या, आखिर हुआ क्या?”

अनन्या की आंखों में अतीत के दृश्य तैरने लगे।

वह दिन याद आया जब उसके पिता मोहन चौहान ने अपनी बेटी के लिए एक सादगी भरा जीवन चुना था। मोहन चौहान एक ईमानदार और साधारण व्यक्ति थे, जो हमेशा कहते थे – “बेटी, इज्जत कभी पैसों से नहीं, कर्मों से बनती है।”

दूसरी तरफ विक्रम राजवंश सिंह अरबों की कंपनी के मालिक थे। उनका एक बेटा था, आर्यन — स्मार्ट, पढ़ा-लिखा, विदेश से लौटा हुआ। पर उसके पास संस्कार नहीं थे, बस अहंकार था।

एक दिन विक्रम ने अपने पुराने दोस्त मोहन से कहा –
“मोहन, मैं चाहता हूं कि तेरी बेटी मेरी बहू बने।”
मोहन चौंक गया, बोला – “विक्रम, हम छोटे लोग हैं, तुम्हारे घर में मेरी बेटी कैसे रह पाएगी?”
विक्रम ने कहा – “मोहन, छोटा या बड़ा कोई नहीं होता, इंसान की सोच ही उसे ऊंचा बनाती है।”

शादी भव्य थी। पूरे शहर में चर्चा हुई कि अमीर घराने का बेटा एक साधारण परिवार की लड़की से शादी कर रहा है।
शादी की रात अनन्या के सिर पर लाल दुपट्टा था और आंखों में सपनों की झिलमिलाहट।

शादी के कुछ महीने तक सब अच्छा चला। विक्रम अपनी बहू से बहुत खुश थे। वह उसे बेटी की तरह मानते। घर में सुकून था।

पर धीरे-धीरे आर्यन बदलने लगा।
वह कहता – “अनन्या, तुम्हें थोड़ा मॉडर्न होना चाहिए, ये देहाती सादगी अब पुरानी हो गई है।”
कभी कहता – “तुम्हारे कपड़े, तुम्हारी बातें सब पुराने जमाने की हैं।”

अनन्या हंसकर सब टाल देती। उसे लगता, समय के साथ सब ठीक हो जाएगा।
लेकिन वक्त की चाल कोई नहीं जानता।

आर्यन देर रात तक बाहर रहने लगा। फोन पर किसी से बातें करता।
अनन्या पूछती – “किससे बात कर रहे हो?”
वह झुंझलाकर कहता – “तुम्हें हर बात में टांग अड़ाने की आदत है।”

धीरे-धीरे उनके बीच दीवार खड़ी हो गई।

एक साल बाद अनन्या ने एक बेटी को जन्म दिया। उसका नाम रखा गया आर्या।
विक्रम के घर में खुशियां लौट आईं। मिठाई बंटी, नौकरों को इनाम मिला।
पर आर्यन बस खामोश खड़ा रहा। उसने बच्ची को गोद में नहीं लिया।
रात को जब अनन्या ने कहा – “देखो ना, कितनी प्यारी है हमारी बेटी।”
तो आर्यन ने ठंडे स्वर में कहा – “मेरे पास टाइम नहीं है इन सब बातों के लिए।”

वो लहजा अनन्या के दिल में तीर की तरह उतर गया।

वह रोज मंदिर में दीप जलाती और भगवान से दुआ मांगती – “हे प्रभु, मेरे घर में शांति दो।”
लेकिन भगवान भी शायद परखना चाहते थे कि एक औरत कितना सह सकती है।

कुछ महीनों बाद आर्यन की जिंदगी में आई रिया।
वो ऑफिस में नई जॉइनिंग थी — खूबसूरत, आत्मविश्वासी और आज़ाद खयालों वाली।
रिया की बातें आर्यन को भाने लगीं। वो कहती – “आर्यन, तुम बहुत खास हो। तुम्हें अपनी तरह की जिंदगी जीनी चाहिए, किसी बंधन में नहीं।”

धीरे-धीरे आर्यन पूरी तरह रिया के जाल में फंस गया।
रिया ने कहा – “अगर मुझसे सच में प्यार करते हो, तो अनन्या और उस बच्चे को छोड़ दो।”
आर्यन ने कुछ नहीं कहा, लेकिन उसके मन में निर्णय हो चुका था।

एक सुबह आर्यन ने कहा – “अनन्या, चलो आज बाहर घूमने चलते हैं। बहुत वक्त हो गया।”
अनन्या मुस्कुरा उठी। उसे लगा, शायद अब सब ठीक हो गया है।
उसने बच्ची को तैयार किया, खुद साड़ी पहनी, और मुस्कुराते हुए बोली – “आज आर्यन फिर से पहले जैसे लग रहे हैं।”

गाड़ी रेलवे स्टेशन के पास रुकी।
आर्यन बोला – “मैं टिकट लेकर आता हूं, तुम यहीं रुको।”
अनन्या बच्ची को गोद में लेकर बैठी रही। वक्त बीतता गया, पर आर्यन नहीं लौटा।
जब उसने चारों ओर देखा, तो गाड़ी गायब थी।

वो वहीं प्लेटफॉर्म पर बैठ गई। उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। बच्ची मासूमियत से बोली –
“मां, पापा कब आएंगे?”
अनन्या ने बस आसमान की तरफ देखा। कोई जवाब नहीं था।

उस दिन से उसने भीख मांगना शुरू किया। कभी किसी ने सिक्का डाला, कभी किसी ने नजर फेर ली।
वो अपनी छोटी बेटी के साथ जीने की कोशिश करती रही।

सालों बीत गए। विक्रम को लगता था कि उसका बेटा विदेश में खुश है।
उसे इस बात का अंदाजा भी नहीं था कि उसका बेटा अपनी पत्नी और बच्ची को प्लेटफॉर्म पर छोड़ गया है।

फिर वो दिन आया, जब उसने अपनी बहू को सड़क पर देखा।
उसका दिल टूट गया।
उसने कहा – “बिटिया, घर चलो।”

अनन्या बोली – “नहीं पिताजी, अब नहीं। अब मैं अपने हक की इज्जत खुद कमाऊंगी।”
विक्रम ने कहा – “पर मैं गुनहगार हूं।”
अनन्या बोली – “आप नहीं, आपके बेटे ने गुनाह किया। आपने बस आंखें मूंद लीं।”

विक्रम रो पड़े। उन्होंने कसम खाई कि वो अपने बेटे से यह सच छिपाएंगे नहीं।

उधर आर्यन की जिंदगी भी अब बिखर चुकी थी।
रिया ने उसे छोड़ दिया था। बोली – “मैं किसी और से प्यार करती हूं, तुम सिर्फ एक पड़ाव थे।”
आर्यन के हाथ से गिलास गिरा और उसकी दुनिया बिखर गई।

सुबह वह अपने पिता के घर आया।
विक्रम दरवाजे पर खड़े थे।
आर्यन बोला – “डैड, रिया चली गई।”
विक्रम ने कहा – “बेटा, जिंदगी ने वही लौटाया जो तुमने दिया था।”

तभी दरवाजे पर अनन्या आई — अपनी बेटी के साथ।
आर्यन के पांव कांपने लगे। वह जमीन पर गिर पड़ा और बोला –
“मुझे माफ कर दो अनन्या।”

अनन्या ने कहा –
“माफ कर सकती हूं, पर भूल नहीं सकती। जहां भरोसा टूटता है, वहां रिश्ता जिंदा नहीं रहता।”

आर्या मासूमियत से बोली –
“पापा, अब हमें स्टेशन पर नहीं छोड़ोगे ना?”
आर्यन की आंखों से आंसू बह निकले।
उसने कहा – “नहीं, अब कभी नहीं।”

दिन बीतते गए।
विक्रम ने अपनी संपत्ति का एक हिस्सा अनन्या और उसकी बेटी के नाम कर दिया।
उन्होंने कहा – “अब तुम अपने नाम से जिओ, किसी के रहम पर नहीं।”

आर्यन अक्सर उसी स्टेशन पर जाकर बैठ जाता, जहां उसने उन्हें छोड़ा था।
वह रेल की पटरियों को देखता और सोचता — “काश मैं उस दिन लौट आता।”

वर्षों बाद वही स्टेशन फिर धूप में चमक रहा था।
अनन्या अब फूल बेचने वाली नहीं थी। उसके नाम से दुकान थी — “आर्या फ्लॉवर्स।”
उसकी बेटी स्कूल जाती थी। एक दिन दौड़ते हुए आई और बोली –
“मम्मी, आज टीचर ने कहा मैं सबसे बहादुर हूं।”

अनन्या ने मुस्कुराकर उसे गले लगाया और आसमान की ओर देखा।
धीरे से बोली –
“भगवान, तूने मुझे तोड़ा बहुत, पर बिखरने नहीं दिया।”

विक्रम पास से गुजरे और बोले –
“बिटिया, आज तू ही इस घर की असली शान है।”

सूरज ढल रहा था।
हवा में सुकून था।
अनन्या की आंखों में शांति थी।
वो हारकर भी जीत चुकी थी।

कहानी हमें सिखाती है कि रिश्तों की बुनियाद प्यार और भरोसे पर टिकती है, पैसे या रूप पर नहीं।
जो साथ देता है बुरे वक्त में, वही सबसे बड़ा धन है।
और याद रखिए —
जिसे कभी छोड़ दिया जाता है, वही वक्त आने पर सबसे ऊंचा उठता है।